Book Title: Jain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Author(s): Alpana Agrawal
Publisher: Ilahabad University
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Epistemology and Contemporary Thought A THESIS SUBMITTED TO THE Faculty of Arts UNIVERSITY OF ALLAHABAD For The Award of the Degree of Doctor of Philosophy By Alpana Agrawal Under the Guidance of Dr. S. L. Pandey, D. Litt., University Professor and Head Department of Philosophy University of Allahabad Department of Philosophy University of Allahabad Allahabad SEPTEMBER-1987 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “ল নি-নীলয়া ও মালীন পিয়া লালাম্মা লিয়িায় না পক্ষায় ৪া কাল ॥ fলালী उपाधि हेतु प्रस्तात | গা ঢল untu TzT: শ্মশা ওয়াল ঘাগ লিঙ্কঃ gp যা বলি যায়, প্রীলিতে, ভূমি ধন ভিসা। दोन विभाग স্কুলাঙাৰা "বিধিলিয় গল শি ব্লুলার লিপ্পিালয় 1887 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य रूप से जैन-दर्शन को दो युगों में बांटा जाता है भागमऔर न्याय युग । यदि दोनों युगों का ज्ञान-मीमाता की दृष्टि से अध्य किया जाये तो स्पष्ट होगा कि उपरोका दोनों पुगों में ज्ञान-मीमांसा के स्वरूप में अन्तर है। पास्तव में कहा जाये तो आगम-युग में कोई शान-मीमाता नहीं क्योंकि वहा पर बान-मीमासा का स्वतंत्र विवेचन कहीं भी नहीं मिलता वस्तुत: उस युग में दार्शनिक विचारों का स्वतन्त्रतापूर्वक कहीं उल्लेख नहीं धार्मिक विचारों के सन्दर्भ में ही दार्शनिक विचारों का उल्लेख किया गया इस युग में दार्शनिकों का दृष्टिकोण धार्मिक ज्ञान का है, ताकि बान का है। यधपि जैन दार्शनिक स्पष्ट रूप से इस बात को स्वीकार नहीं करते भी जिस प्रकार अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञानों का जैन-गधों में विवेचन किया गया है उससे उनके परम्परागत धार्मिक विश्वासों और विचारों की होती है। उदाहरणार्थ, जैन ज्ञानों को इन्द्रिय जन्य और अतीन्द्रिय पर बाँटते हुये भी इन्द्रियजन्य झानों को दूसरे दर्शन मैं मान्य प्रत्यक्षा प्रमाण के नहीं रखते वरन् परोक्ष प्रमाण मानते हैं, क्योंकि जैन "अक्षा शाब्द का अर्थ । न मानकर आत्मा" मानते हैं और उती जान लौकिक ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं जो आत्ममान सापेक्ष होता है | अत: स्पष्ट है कि यहाज्ञान तार्किक विवेचन का अभाव है। केवलज्ञान का विवेचन 'निरपेक्षान के रूप में किया गया है किन्तु दुष्टि से इसके विवेपन का प्रयास नहीं किया गया है, क्योंकि इस ज्ञान से परे माना गया है। इसे तर्क से परे एक आध्यात्मिक अनुभति के रूप उपाधि किया गया है। ये ऐसे धान के प्रकार नहीं हैं जो वस्तुगत ज्ञान अतः इन्हें वस्तगत ज्ञान की कसौटियों से प्रमाणित भी नहीं किया जाता यह ज्ञानगत भेद है ही नहीं, यह तो आध्यात्मिक अनुभूतिया है। जैन र Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवीन ज्ञान प्रकारों की सम्भावना मानते हैं, अतः इन ज्ञान प्रकारों को रूद अर्थ में न लेकर अनुभव की संभावनाओं के रूप में लेना चाहिये । जैन विचारों के अनुसार, ज्ञान को मोक्ष प्राप्ति में एक साधन के रूप में माना गया है। ज्ञान का तार्किक स्वतंत्र ज्ञान-मीमांसा के रूप में विकास नहीं किया गया है। यहाँ ज्ञान को सवाँच्च महत्व नहीं दिया गया है बल्कि मूल्यों को अधिक महत्व दिया गया है। ज्ञान को पहीं तक महत्व दिया गया है वहाँ तक लोक व्यवहार में उपयोगी है। यह ही कारण है कि ज्ञान को उत्पत्ति और मूल्यांकन दोनों ही दृष्टियों से सापेक्ष माना गया है । वास्तव में, इस दृष्टि से जैन भान-मीमाता को आन्वीक्षिकी के अन्दर रखा ही नहीं जा सकता क्योंकि आन्वीक्षिकी में तर्क का खंडन किसी भी प्रकार से नहीं किया जा सकता किन्तु जैन दार्शनिक ज्ञानों के विवेचन में अंत में, तर्क का खंडन करते प्रतीत होते हैं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आगम युग में यधपि ज्ञान प्रकारों का 'विवेचन किया गया किन्तु यह विवेचन धार्मिक ही रह गया, वहाँ तार्किक विवेचन का अभाव है जिससे उस युग में स्वतंत्र ज्ञान-मीमाता का निमाण न हो सका। __ तार्किक ज्ञान-मीमाता का बाद में विकास हुआ जिले न्याय परम्परा के रूप में रखा जाता है। इस परम्परा में आचार्य उमास्वाति, सिमोन, समन्तभद्र, अफलक देव, विधानन्दि, वादिदेवतरि, माणिक्यनन्दि आदि के नाम उल्लेखनीय है। इन विद्वानों ने उस समय अन्य दर्शनों की तार्किक प्रवृत्तियों से आगमकालीन धार्मिक ज्ञान-मीमाता का सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया। यहा ज्ञान का तार्किक स्पष्टीकरण करने का प्रयास दिखायी भी पड़ता है। इस युग में दार्शनिक विचारों की तफपूर्वक प्रतिष्ठा की गयी। इस स्म में प्रमाणशास्त्र का विस्तृत विवेचन किया गया। इसके पूर्व जागम युग में यधपि प्रमाण पशब्द का Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोग हुना था लेकिन प्रमाण के स्वतंत्र एवं विस्तृत विवैधन का अभाव था । इस युग में, आगम युग में मान्य पाच ज्ञान प्रकारों को स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाणों में रख दिया गया। साथ ही लोकपरम्परा का अनुसरण करते बुरी इन्द्रियपन्य ज्ञानों को सा व्यवहारिक प्रत्यक्ष की कोटि में रख दिया गया। प्रत्यक्ष का साव्यावहारिक और पारमार्थिक दो कोटियों में विभाजन किया गया। इस सन्दर्भ में आवायं अकालक का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने प्रमाणशास्त्र की तार्किक प्रतिष्ठा की और उपर्युक्त दो भेदों में प्रत्यक्ष का तार्किक दृष्टि से विभाजन किया। बाद में आने वाले प्रायः सभी दानिक अकलंक-कृत इस विभाजन को मानते हैं। आचार्य सिद्धसेन का भी इस संदर्भ में महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने अपनी कृति "न्यायावतार में अपने स्वतंत्र विचारों का परिचय देते हुये आगम के विपरीत तीन प्रमाण माने - प्रत्यक्ष अनुमान और आगम | साथ ही उन्होंने तार्किक ढंग से अनेकासवाद की भी प्रतिष्ठा की। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने जैन न्यायशास्त्र की या प्रमाण निरूपण में ही समाप्त नहीं की परन् नयाँ का लक्षण और विष्य बताकर जैन न्यायशास्त्र की विशेषता की और भी दार्शनिकों का ध्यान खींचा। उपर्युक्त दो परम्पराओं के अतिरिक्त जैन दर्शन में हमें मान की एक और परम्परा मिलती है - नय मरम्परा। यह न आगम परम्परा है, न न्याय परम्परा: मलिक लोक परम्परा है। यह मय विचार लोक मा और सामान्य भाषा के जो आधुनिक दर्शन है उनकी कोटि का है। इस रूप में जैन जान-मीमाता मैं कई अत्याधुनिक विचारों का समावेश हो जाता है। जैन दार्शनिक ज्ञान को नय और प्रमाण रूप मानते हैं। नय शान को Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोण उपस्थिा करते हैं। चाहे उत्पत्ति की दृष्टि से देखा जाये अध्या मूल्यांकन की दृष्टि से, जैन सत्य को परिस्थिति सापेक्ष मानते हुये सत्यता-संभाव्यता को बनाये रखते हैं। इनका नयवाद इसी सत्य प्रायिकता के सिद्धांत का प्रतिपादन करता है जो इनकी ज्ञान-मीमाता में प्रमुख है। नयापद के रूप में मना व्यापक दृष्टिकोण उपस्थित किया गया है 'कि इसमें एक ही बात को जानने के सभी संभाषित मार्ग पृथक-पृथक नय के रूप में शामिल हो गये हैं। तभी मत नय स्म में पूर्ण सत्य को जानने के भिन्न-भिन्न उपाय है। वस्तु ज्ञान को अपेक्षाभेट पर निर्भर माना गया है इसलिये सभी मतों को यहा एक दृष्टिकोण माना गया है और किसी मत्त का सर्वथा डन नहीं किया गया है। एक ही वस्तु के विषय में विविध मत संभव है : उतने नय हो सकते हैं किन्तु सभी नयों का समावेश द्रव्यार्षिक और पाया कि दो नषों में संभव मानते हैं। आचार्य तिनसेन ने अतवादों को व्यायिक मय के संगल नय मैं समाविष्ट किया । बौद्धों की दृष्टि को पयायनय में अनुसूत्र नय के अन्दर माना और साव्य का समावेश द्रव्यार्थिक नय में एवं वैशेषिक दर्शन को दोनों नयों में समाविष्ट माना। नयों की तरह निक्षेपों के द्वारा भी जैनों ने विरोध समन्वय का प्रयास किया। निदेष योजना जैनों की नयों की तरह ही मालिक योजना है। आगम युग में अनुयोग द्वार में निक्षेप को नय के साथ स्वतंत्र स्थान मिला जबकि प्रमाण को नहीं मिला । न्याय युग में भी प्राय: सभी तालिका ने तत्व-निरूपण में प्रमाण और नय के साथ ही निक्षम का भी विचार किया। भैनों की इस ज्ञान-मीमांसा से स्पष्ट होता है कि जैन ताकिकों को यह स्पष्ट हो चुका था कि प्रत्येक मत में कुछ पूर्वाग्रह होते हैं। दर्शन एक व्यवस्था नहीं है, क्योंकि यदि एक व्यवस्था है तो उसकी विरोधी व्यवस्था भी है। कोई भी मत एकान्त स्म से सत्य नहीं है। उनके विचारों से स्पष्ट होता है Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि दर्शन एक संप्रत्यय या स्पष्टीकरण है। ऐसा ही विन्टेन्स्टाइन ने भी कहा कि दर्शन विचारों का तार्किक स्पष्टीकरण एवं विश्लेषण है। विश्लेषण की सबसे बड़ी उपलब्धि यह ही है कि यह किसी व्यवस्था को न मानकर विशिष्ट म की स्थापना करता है । यह ही नयवाद की उपलब्धि है । जहाँ तक कोई संप्रत्यय मत है वहाँ तक ठीक है किन्तु जहाँ उसे एक व्यवस्था के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया जाता है वहाँ वह मिथ्या दुर्नय हो जाता है । इसी कारण जैन ज्ञान- माता में नयवाद की प्रमुख स्थान दिया गया । जैनों की ज्ञान-मीमांसा के अध्ययन से स्पष्ट होगा कि उनकी एक ज्ञान atarar नहीं है । आगम, नयाय व नय तीनों भिन्न दृष्टिकोण है जिनका समन्वय नहीं हो सकता । दृष्टिकोणों की इसी भिन्नता का परिणाम है कि कहीं इनकी ज्ञान-मीमांसा आधुनिक वास्तववाद, बुद्धिवाद और अनुभववाद के समीप लगती है तो कहीं प्रत्ययवाद और अध्यात्मवाद के समीप और कहीं arter और व्यवहारवाद के समीप । जहाँ तक ज्ञान की विषमता का प्रश्न है जैन यथार्थवादी एवं वस्तुवादी व्याख्या करते प्रतीत होते हैं, सत्यता के पुत्रन पर सापेक्षवादी व्यावहारवादी मत के समर्थक और सर्वज्ञता के प्रश्न पर अध्यात्मवादी दर्शन के समीप लगते हैं । अतः इनकी एक ज्ञान-मीमांसा नहीं है । arayकारों को एक ज्ञान के स्तर के रूप में नहीं माना जा सकता । इस रूप में इनका समन्वय असंभव है। वास्तव में, जैन दार्शनिक सभी ज्ञानों का समन्वय भी नहीं करते हैं। ये दिखाते हैं कि ज्ञान के विविध प्रकार हैं और उनमें कोई विरोध नहीं है किन्तु समन्वय कैसे होता है यह स्पष्ट नहीं करते । विरोध परिहारमात्र समन्वय नहीं है । फिर एक में ऐसा विरोध नहीं है कि एक है तो दूसरा नहीं है । यह ही कारण है कि यहाँ ज्ञान की कोई ऐसी परिभाषा नहीं दी गई जो सभी ज्ञानों में लागू होती हो । कहीं आगम के अनुसार परिभाषा दी गई तो कहीं तार्किक परिभाषा और कहीं नय के अनुसार रा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त में, मैं अपने शोध-निर्देशक डा0 संगमलाल पाण्डेय, प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष, दर्शन विभाग, इलाहाबाद विश्वविधालय के प्रति AT से अभिभूत हूँ कि यह शोध-बन्ध उन्हीं के मार्गदर्शन के कारण संभव हो सका । उनका पितृवत् स्नेह मुझे सदैव प्रेरित करता रहा है। उन्होंने अपने व्यस्ततम क्षणों में भी सदैव मेरे विषय की क्षमताओं की जानकारी दी। साथ ही, मैं उन सभी की भी हृदय से आभारी, जिन्होंने सो स शोध-प्रबन्ध के ओखन और प्रस्तुतीकरण में मिली भी रूप में सहायता प्रदान स्थान : अलाहाबाद दिनांक : || सितम्बर, 1987 29मना कर अलाना अग्रवाल Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण-पत्र प्रमाणित किया जाता है कि अल्पना अशवाल ने डाक्टर ऑफ फिलॉसफी की उपाटि के लिए क्ला संकाय के अन्तर्गत मेरे निर्देशन में न शान-मीमांसा एवं समकालीन विधार" विषय पर कार्य किया है। यह कार्य विश्वविधालय के नियमों के अनुसार बिया गया है या शोधकत्री के पास इसके लिम आवश्यक योग्यता Gononenata? ETD संगमलाल पाय प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष | মহল বিশানা इल TETबाद विश्वविद्यालय इलाहाबाद। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख प्रथम अध्याय द्वितीय अध्याय तृतीय अध्याय चतुर्थ अध्याय पंचम अध्याय घष्ठ अध्याय सप्तम अध्याय अष्टम अध्याय संदर्भ ग्रन्थ सूची अनुक्रमणिका प्रमाण का तार्किक विश्लेषण प्रत्यक्ष प्रमाण केवल ज्ञान-नवीन परिप्रेक्ष्य परोक्ष प्रमाण प्रमाण, नय और निक्षेप अनुमान दर्शन की समग्रता मिध्यात्व सिद्धान्त पृष्ठ संख्या i- vi 001 027 051 061 111 131 - 146 026 050 086 - 110 060 OBS 130 145 - 165 166 - 171 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX प्रथम - अध्याय प्रमाण का तार्किक विश्लेषण XXXXX Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथम - अध्याय पूमाण का ताकि पिरलेषण प्रमाण-पथा: भारतीय दान के अलाश सम्प्रदायों में प्रमाण के विषय में विस्तृत पवार की गयी हैं। डा सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त के अनुसार प्रमाण* शब्द का प्रयोग मुख्यतः दो रूपों में किया गया है - एक तो असत्य और भ्रमपूर्ण मानतिक धान के विपरीत सत्य मानसिक शान के अर्थ में, और दूसरे, ज्ञान को उत्पन्न करने पाली परिस्थितियां के संग्रह या माध्यम के स्प में ।। प्रत्येक दर्शन का ज्ञान के सम्बन्ध में विशिष्ट दृष्टिकोण ही प्रमाण के इन दोनों अर्थों के विषय में मतभेद होने का कारण है। जैन दर्शन में प्रमाण का संपत्थप अन्य दर्शनों के संप्रत्ययों से भिन्न है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए जैन दर्शन में दो युगों - प्राचीन युग और आधुनिक युग का उल्लेख किया जा सकता है। प्राचीन युग, जिसे शागम युग भी कहा जा सकता है. में प्रमाण के विषय में विशेष या नहीं की गयी है। यद्यपि उस युग में भी अन्य दर्शनों में प्रमाण-पगार चलती थी और जैन दार्शनिक उनसे अनभिज्ञ नहीं थे, फिर भी उन्होंने अपने मौलिक ज्ञान-सिद्धान्त में प्रमाण को स्थान नहीं दिया| इतर दोनों में सामान्यत: सत्य और असत्यमान का भेद प्रदर्शित करने के लिए प्रमाणका आप्रय लिया गया है। इसके विपरीत, जैन दार्शनिकों ने सत्य और असत्य ज्ञान में ही मेद स्थापित करके प्रमाण का प्रयोजन ज्ञान द्वाराहीपुरा कर लिया। इस कारण आगम युग में "प्रमाण-वा" मान-चर्चा के अन्तर्गत ही है। फिर भी, पेन दार्शनिक अन्य दर्शनों में चलती प्रमाण-चया से अप्रभावित हुए बिना नहीं रहे हैं। यही कारण है कि यत्र-तत्र दोनों आगमिक गन्धों में प्रमाण और बान* दोनों शब्दों का प्रयोग होता रहा। यहा इसके उल्लेख का प्रयोजन इतना मात्र दिखाना है कि जैन-दर्शन में शाम से धक करके प्रमाण का वेिचन नवीन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग में ही झा है, जिसे न्याय-युग भी कहा जा सकता है। इस विषय पर विस्तृत विवेधन दलसुख मालवणिया जी ने किया है। *ज्ञान* और "प्रमाण में क्या संबंध है" - इस विषय पर स्पष्ट विचार उमास्वाति के गन्ध में मिलता है। उन्होंने ही सर्वप्रथम शान" और "प्रमाग का स्पष्ट संबंध स्थापित किया और कहा कि "ज्ञान* मति, भुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल ज्ञाना ही प्रमाण है। अतः उन्होंने बान' और 'प्रमाण' में अमेट संबंध स्थापित किया । उमास्वाति के पायात अधिकाश जैन - विचारकों ने उनके मत का अनुसरण किया जिसके परिणामस्वरूप ज्ञान और प्रमाण में सामंजस्य स्थापित हो गया। Pottamam अकलंक देव के अनुसार - प्रमाण शब्द 'भाव, कई और करण* इन तीनों अयों में प्रयुक्त होता है। जब भाव की प्रधानता होती है तो प्रमा को प्रमाण कहते हैं, का अर्थ में प्रमातृत्व पाक्ति की प्रधानता होती है जबकि करण अर्थ में प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण की भेद विवer होती है। इनमें से विवक्षानुसार अर्थ ग्रहण किया जाता प्रमाण के भाषसाधन और कर्तु-साधन के रूप पर कुछ आपत्तियां उठाई गयी थी जिनका समाधान अकलक ने किया है। यदि प्रमाण को भाव-साधन के अर्थ में लिया जाये तो यूंकि प्रमा ही प्रमाण है और प्रमा ही फल है अतश्य, प्रमा के पल होने के कारण प्रमा के पल का अभाव हो जायेगा। तक का समाधान करते हुए अक्षांक कहते हैं कि आत्मा को इन्द्रियों Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा जो ज्ञान होता है वही उसका फल है। अतः प्रमाण का मुख्य फल अज्ञाननिवृत्ति ही है। प्रमाण को यदि कर्तुं - साधन माना जाय तो प्रमाण प्रमाता - रूप हो जाता है। अन्य शब्दों में, प्रमाता आत्मा अधात गुणी और उसका गुण - रूप ज्ञान भिन्न-भिन्न होंगे क्योंकि गुणी और गुण में भेद होता है। परन्तुऐसी धारणा बैन - दर्शन के उस आधारभूत सिद्धांत के विपरीत पाती है जिसके अनुसार ज्ञान आत्मा ते पृथक नहीं है। इस संदर्भ में अकलंक का कहना है कि आrमा का गुण शान है । कान और आत्मा अपनी स्वाभाविक पूर्ण अवस्था में एक-दूसरे से पृथक नहीं रह सकते। यदि ज्ञान को आत्मा से सर्वथा भिन्न माना जाता है तो आला "प की तरह "अ" - कानन्य जाई हो जायेगी। कुंदकंद का कथन है कि यदि ज्ञानी और ज्ञान को सदा एक दूसरे से भिन्न पदार्थान्तर माना जायेगा तो दोनों अपेतन हो जायेंगे । क्योंकि ज्ञान के बिना आमा नहीं रह सकती। अत: क्षान आत्मा है। ___यदि प्रमाण और प्रमेय भिन्न-भिन्न हैं तो क्या यह संभव है कि कोई प्रमेय प्रमाण हो जाये' इसके उत्तर में, अकलंक कहते हैं कि यदि प्रमाण स्वयं अपना प्रमेय नहीं बन सकता, तो इसका अर्थ होगा उसे अपनी सत्ता सिद्ध करने के लिए दूसरे प्रमाण का सहारा लेना पड़ता है, दूसरे प्रमाण को तीसरे प्रमाण का और इस प्रकार अनवस्था-प्रसंग उपस्थित हो जायेगा । यदि ज्ञान को दीपक की तरह स्व* और "पर' का प्रकाशक माना जाये तो प्रमाण और प्रमेय के सा की उपर्युक्त समस्या का हल हो जाता है। प्रमेय, निश्चित रूप से, प्रमेयही है, किन्तपमाण - प्रमाण भी है और प्रमेय भी 10 करता है। पूजापाद का कथन है, जिस तरह दीपक घटादि पदार्थों को प्रकाशित करता है और अपने स्परूप को उसी समय प्रकाशित अपने स्वस्य को प्रकाशित करने के लिए दीपक को दूसरी पन्तु का आशय नहीं लेना पड़ता, उसी प्रकार ज्ञान 'स्व' और 'पर दोनों को प्रकाशित करता है।" आशय यह ही है कि प्रमाण पस्त प्रमाग और Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेष दोनों ही है। सिद्धसेन प्रमाण के कई अर्थ बतलाते हैं। उनका कान है कि कस्ता-कारक में प्रमाण का अर्थ आत्मा, कर्म-कारक मैं पदार्थ, करण-कारक में ज्ञान, सम्पदान-कारक में अर्थ-किया, अपादान कारक में कारण-कलाप, अधिकरण कारक योपशाम और भाष-साधन में प्रमिति होता है। प्रमाण के इन ज्ञात अर्थों में प्रमाण का अभीष्ट अर्थ शान है, क्योंकि अन्य अर्थों की परीक्षा शान पर निर्भर है। अत: बान ही प्रमाण है "मीयते अनेन इति प्रमाणम यही प्रमाण का ध्युत्पत्तिमलका अर्थ है 112 यहा एक प्रश्न उठाया जा सकता है कि यदि प्रमाण का अभीष्ट अर्थ ज्ञान है तो प्रमाण के इन सात अर्थों को मानने का औचित्य क्या है' इस प्रश्न का समाधयन जैन-दर्शन के अनेकान्तवाद* में पाया जाता है. जहा वस्तु को अनन्नाघमात्मक माना गया है। अत: जहा पर प्रमाण का जो अर्थ उपयुक्त हो, वहाँ पर यही अर्थ लिया जाये। यहा जिसके द्वारा ठीक-ठीक जाना जाये उस करण साधन के अर्थ में "ITन" प्रमाण का लक्षण हो सकता है। शान के द्वारा ज्ञाता वस्तु को जानता है। यह ज्ञान आत्मा मैं रहता है इसलिए यह आमा का धर्म है। अत: ज्ञान आत्मा से अभिन्न है। सान की प्रमाणताः जैन-दर्शन सिद्धान्ततः प्रमाण को कई अर्थों में प्रयोग करता है लेकिन फिर भी उतको मुख्यतः ज्ञान के अर्थ में ही प्रयोग करता है। परन्तु ऐसा मानने का कारण क्या है' इसे स्पष्ट करने के लिए प्रमाण का लदा जानना अपेक्षित है। पूज्यपाद का कहना है, जो अचसी तरह बान प्राप्त कर लेता है या जिसके .रा मान अच्छी तरह पान लिया जाता है या जो मिति है वह प्रमाण है। अलंकदेव का कथन है, जो प्रमा का साधकतम कारण हो या जिसके द्वारा अच्छी तरह से जाना जाता Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, वह प्रमाण है 114 माणिक्यनन्दि के विचार में - हे त्याज्य एवं उपादेय ग्राम रूप-पदार्थों की तिथि ज्ञान- प्रमाण हो होती है 115 अर्थ-संतति के प्रधान कारणभूत प्रमाण से वस्तुस्परूप का यथार्थ ज्ञान होता है । अतः स्पष्ट है कि प्रमाण का कार्य वस्तु के यथार्थ रूप को प्रदर्शित करना है । प्रमाण के इस कार्य में ज्ञान सहायक होता है । अन्य दर्शन द्वारा मान्य सन्निकर्ष, इन्द्रियवृत्ति, योग्यता आदि ज्ञान की उत्पादक सामग्री में तो सम्मिलित किये जा सकते हैं, किन्तु ये स्वयं अवेतन होने के कारण प्रमाण के साधारण नहीं हो सकते 116 प्रमाण का साक्षात्करण तो वेतन ज्ञान ही हो सकता है । लघीयस्त्र की विवृत्ति में इसी ज्ञान की प्रमाणता का समर्थन करते हुए अकलंक देव ने लिखा है कि आत्मा को प्रमिति क्रिया या स्वार्थविनिश्चय में, जिसकी अपेक्षा होती है, वही प्रमाण है और वही साधकतम रूप से अपेक्षणीय ज्ञान है | 17 O प्रमाण संपत्यय का विकास : जैन दार्शनिकों की प्रमाण-विषयक परिभाषाओं का क्रमिक विकास देखने के लिए उनके ऐतिहासिक विवेचनों को देखना होगा | उमास्वाति ने सर्वप्रथम, ज्ञान और प्रमाण का स्पष्ट निरूपण किया था। अतः उमास्वाति की प्रमाण-परिभाषा का विश्लेषण आवश्यक है । इनके मत में मतिज्ञान, शुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान, ज्ञान के प्रमाण के पांच प्रकार हैं 112 उमास्वाति के ही मत मैं सम्यक ज्ञान ही प्रमाण है। जिसका अर्थ है जो प्रशस्त डी, अव्यभिचारी हो और संगत हो । उमास्वाति के पश्चात्वर्ती विचारकों ने प्रमाण के लक्षण में "ज्ञान" पद को Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो स्थान दिया, किन्तु उस ज्ञान के "सम्यक विशेषण के स्थान पर अन्य विशेषणों सिद्धसेन ने "स्वपरावभाति ज्ञान को प्रमाण कहा । का प्रयोग किया। 20 यहाँ प्रश्न उठता है कि ज्ञान के आगे "स्वपरावभासक" और "स्वपरावभाति" जैसे चित्रण प्रयुक्त करने की आवश्यकता क्यों प्रतीत हुई' इसका कारण यह प्रतीत होता है कि अन्य दर्शनों। जैसे मीमांसा, न्याय, वैशेषिक और साया में ज्ञान को स्वप्रकाशित न मानकर पर प्रकाशित माना गया है । जैन दार्शनिकों ने ज्ञान की परप्रकाशिता का खंडन करने के लिए उपरोक्त विरोध का प्रयोग किया । जैन-परम्परा का स्पष्ट विचार है कि यदि ज्ञान स्व-संवेदी न हो तो उसे प्रमाण नहीं कहा जा सकता । ज्ञान, दीपक की भाँति, दूसरों को भी प्रकाशित करता है और स्वयं अपने को भी । ज्ञान का अर्थ ही हैवह जो स्वपुकाशित हो । ज्ञान दीपक की भाँति जगाता हुआ वही उत्पन्न होता है | 21 सिद्धसेन ज्ञान को स्वपरावभाति विशेषण देते हुए एक अन्य विशेषण भी देते है - बाधाविवर्जित । सिद्धसेन के अनुसार, स्वपरावभाति और बाधाविवर्जित ज्ञान प्रमाण है 1 22 उनका कथन है कि कुछ व्यक्तियों में शारीरिक कमिया होती है जिसके फलस्वरूप उनका ज्ञान बाधायुक्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त, तत्वमीती समस्याओं पर गलत दृष्टिकोण भी बाधक होता है। ऐसे ज्ञान को प्रमाण नहीं कहा जा सकता | इन दुष्टिकोणों के निराकरण के उद्देश्य से ही सिद्धसेन ने बाधा विवर्णित विशेषण का प्रयोग किया है । - अकलंकदेव ने प्रमाण का एक और नया लक्षण दिया "अविसंवादी" 125 उनके अनुसार अविसंवादी ज्ञान प्रमाण है, क्योंकि स्वतवेदन तो ज्ञान सामान्य का लक्षण है Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणता और अप्रमाणता का निर्णय अधिसंवाद और विसंवाद के आधार पर करना चाहिये । अकलंक - द्वारा प्रमाण के इस नवीन लक्षण का औचित्य यही है कि कोई भी ज्ञान एकान्त त्यतै प्रमाण नहीं होता । चूँकि इन्द्रिया सीमित शक्ति वाली होती है, इसलिए इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान सदैव सत्य नहीं होता । रेल से बाहर दिखाई देने वाले दूध, मकान, पहाड़ आदि के अस्तित्व के विषय में कोई विसंवाद न होने के कारण उन चीजों का ज्ञान अविसंवादी है किन्तु चलती रेल से वृक्ष मकान, पहाड़ आदि का चलना विसंवादी होने से अप्रमाण है । सभी भ्रमपूर्ण ज्ञान विसंवादी होने से अनुमान ही हैं। अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण मान लेने पर अविसंवादी ज्ञान के अर्थ का स्पष्टीकरण आवश्यक है। अकलंक के अनुसार, अधिसंवादी ज्ञान का अर्थ है ऐसा जिसमें बाह्य वस्तु जैसी है पैसी ही ज्ञान में पुष्ट हो अन्य शब्दों में, बाह्य वस्तु का यथावत् ज्ञान में प्रकटीकरण ही अधिसंवाद जाये | है । इस संबंध में, यह भी उल्लेखनीय है कि अकलंक अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण मानते हुये उसे अनधिगतार्थग्राही भी कहते हैं। 24 प्रमाण के इस नवीन लक्ष्मका अभिप्राय है - ऐसा ज्ञान प्रगाण होगा जिसका किसी दूसरे प्रमाण से निर्णय न किया गया हो । प्रमाण का विषय "अ" है | मानन्द अवाक देव के प्रमाण के उपरोक्त नवीन ल का समर्थन करते प्रतीत होते हैं जब वे प्रमाण को अपूर्व विशेषण देते हैं। साथ ही कहते हैं कि "स्व" अर्थात्, अपने आपके और "अपूर्वार्ध अर्थात् जिसे किसी अन्य प्रमाण नहीं जाना जा सकता ऐसे पदार्थ के निश्चय करने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं 25 黪 "अपूर्व" शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए माणिक्यनन्दि कहते है कि जिस पदार्थ का पहले "किसी प्रमाण से निश्चय नहीं किया गया हो उसे अपूर्वार्थ कहते हैं 126 आपने वाह यह भी कहते हैं कि केवल अनिर्णीत पदार्थ ही अपूर्व नहीं होते बल्कि ऐसे पदार्थ भी अपूर्व होते हैं जिनको यापि अन्य माध्यमों से ग्रहण किया जा चुका होता है परन्तु Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर भी उनमें संशय, विपर्यय और व्यवसाय उत्पन्न हो गया हो 127 प्रभाबन्द्र स मत का समर्थन नहीं करते, क्योंकि उनके मन में जो भी ज्ञान अभ्यभिचारादि से विशिष्ट प्रमा को उत्पन्न करता है वह प्रमाण है, चाहे वह ज्ञान अधिगतविषयक हो पा अनधिगताविषयक । विधानन्दि ने कहा कि "स्व" और "अपूर्व अर्थ का निश्चय करने वाला भान ही प्रमाण है, वह गृहीतग्राही हो या अगृहीतग्राही। उन्होंने प्रमाण को सुनिश्चितरामवाधकत्त्व ' विग दिया और से ही पूर्ति व्यवसायी माना । प्रमाण-ला 'विवेचन के प्रसंग में हेमचन्द्र का उल्लेक आवश्यक है। उनका कमान है कि रथकाशीबान को प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रमाण की भातिय, पिपर्यय और अनभ्यवसाय आदि अप्रमाण भी स्वसंवेदी होते हैं 128 हेमचन्द्र के मा में अर्थ का सम्यक निर्णय प्रमाण है ।29 प्रमाण ही परिभाषाओं के उपर्युक्त विश्लेग से स्माट है fir जैनदार्शनिकों द्वारा प्रमाण के लक्षण के स्य में किीध पद प्रयोग किये गये, जैसे- सम्यक. अविसंवादी, अनाधिगताणाही, स्वपूषार्थव्यवसायी और बाधाविधार्जित, स्पराषभाति । यहाँ स्थाभाविक स्प से प्रश्न उता है कि प्रमाण के विधा में यह मातभेद कों है, क्या प्रगाण की कोई सर्वमान्य परिभाषा हो सकती है" यह प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वस्तुतः शब्दों की इन विभिन्नताओं के पीछे सत्यता की कई तौटिया किसी प्रमाण की सत्यता की कसौटी: पूर्व-विवेधन से स्पष्ट हो युका है कि जैन-दार्शनिकों के अनुसार शान प्रमाण Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, लेकिन चूंकि सभी ज्ञान की प्रमाण नहीं माने जाते, कालिये यहाँ ज्ञान के "रान" का प्रश्न उठता है । सत्यापित ज्ञान ही प्रमाण है । परीक्षा किस आधार पर की जा सकती है, "सत्य" का क्या अर्थ है, व्याख्या के लिए बैन दार्शनिकों द्वारा सम्यक, अधिसंवादी, स्वपरावभाति, स्वपूवार्यव्यसायी, अनधिगतार्थग्राही और बाधाविति आदि विविध पदों का प्रयोग किया गया है । इन मापदंडों द्वारा ही उन्होंने "सत्य" के स्थल्प को सपन्ट करने का प्रयत्न किया है । areer के इन मापदंडों में आपस में कोई संगति प्रतीत नहीं होती है । यह बात यदि पाश्वात्य-दर्शन में सत्यता के स्वत्प और affart के अध्ययन के सन्दर्भ में जैन-दर्शन की सत्यता और कसौटियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो अधिक स्पष्ट होगी। इसी की पाश्चात्य-दर्शन में मुख्यतः सत्यता की तीन कसौटिया है - संवादिता या अनुकूलता का सिद्धाना | correspondence Theory है, अबाधित अथवा समस्या का साना Icoherence Theory और अर्थक्रियावादी (या उपयोPragmahi Theory 1 30 गितावादी) सित है जो यथार्थ से मेल खाये, are के fear लिना के अनुसार सत्य जो वास्तविकता के अनुष्य हो । इस प्रकार, इस विन्त के अनुसार अनुकूलता की सत्य का लक्ष्ण ही नहीं वरन् सत्यता की कसौटी भी माना गया है । जैनदर्शन सत्यता की इस कसौटी में वहा सहमत प्रतीत होता है जहाँ प्रमाण का लक्षण सम्यक्त्व और अविसंवादित्व माना गया है । सम्यक्त्व को परिभाषित करते हुए आग के ज्ञाताओं ने कहा है सम्यक ज्ञान वह है जो पदार्थको न्यूनतारहित एवं अधिकतारहित ज्यों का त्यों जानता है । इसी प्रकार अक्तिंवादित्व का लक्ष् किया गया है, वह ज्ञान का तथ्य या यथार्थता से विसंवाद न हो, ऐसा ज्ञान जिसमें बाया की पथागत् उपलब्धि हो । बाह्यार्थ की यथावत् प्राप्ति अप्राप्ति Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर अविसंवाद और दिसंबाद निर्भर है। अतः इससे यहा निलो निकलता है कि वह ही बान सत्य था, दूसरे शब्दों में, प्रमाणा हो सकता है जो सम्यक् ही 3 मारमाति तथा हेमचन्द्र के अनुसार तथा अपितवादी हो अकालक के अनुसार, और वस्तु का यथातथ्य चित्रण अथवा यथार्थता की अधात मान में उपयति ही सत्यता की कसौटी है। सत्य की इस कसौटी को यदि मान लिया जाये, तो इसमें कुछ कठिनाइया सामने आती है, जैसा कि कसोटी को मानने वाले पाश्चात्य दार्शनिकों के सामने भी होती रही हैं। बान की यथार्थता से अनुपाता उस तरह नहीं मापी जा सकती, जिस तरह कोई भौतिक वस्तु मापी जाती है। राके अतिरिक्त, कोई 'किसी तव्य का संवादी है। यह कैसे कहा जा सकता है भान तथ्य के अनुशल है यह कहना तभी सार्थक है, जबकि हमें उस तथ्य का, उस शान से, कोई स्वतंत्र पूर्वज्ञान हो चुका हो। लेकिन पान उठता है जिसका पूर्वज्ञान हो चुका हो उसके फिर से ज्ञात होने का क्या औचित्य है' यह तथ्य का ज्ञान होना प्रमाण के अनाधिगताग्राही लक्षण के विरुद्ध है क्योंकि इस लग के अनुसार प्रमाण का कार्य प्रमाणान्तर से अनिीत अर्थ का निर्णय करना होता है। पिर यह कहना कि "पतिलारी हैं तथ्य के साथ संवाद रखता है जो पुनति मात्र है, क्योंकि तथ्य स्पर्ध धात वियों में करते है तथ्य तथा साय एक बारा है। अत: मात्र संघादित्य से प्रत्यक ज्ञान के सत्य की ति नहीं की जा सकती। एक तो शान का पत्तथ्य में संवाद स्थापित करना ही असंभव है, फिर यदि वस्तुतध्य की हमारी धारणा गलत है तो संबाद भी गलत होगा जिसके परिणामस्वल्प मिथ्या भान भीत्य सिद्ध हो जायेगा । कुछ पैन दार्शनिकों ने प्रमाण के तीन लक्षण बताये हैं - अबाधित्व, अध्याभिधारित्व और संगीत। जैसा कि पूर्व-विवेचन से स्पष्ट हो शुका है उस ज्ञान को प्रमाण मानेगे जिस मान की रोष शान से संगति हो। इसका आभाय है कि कुछ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दार्शनिकों ने सत्यता की कसौटी संगति मानी है। पाश्चात्य दर्शन में भी आदर्शवादी दार्शनिक जिनमें हेगेल, ग्रीन, बोसाक और बडने प्रमुख हैं, ने संगति को सत्यता की कसोटी माना है। इनके अनुसार हमारे मान की सत्यता पोकान के साय संगति में निहित है। यदि हमारा वर्तमान तान पूर्वज्ञान के विपरीत है तो हो सकता है कि हमारा वर्तमान शान गलत हो । यद्यपि कभी -कभी ऐसा भी होता है कि नवीन खोजौं एवं अनुसंधानों - प्रारा हमारा पूर्वज्ञान गलत सिद्ध कर दिया जाता है और नवीन शान को सत्य । किन्तु हाँ पर स्पार है कि नवीन ज्ञान और पूर्णान में मंगति शापित कर दी गयी और दोनों में विरोध समाप्त कर दिया गया। का तात्पर्य है कि किसी भी वान सत्य नहीं माना जा सकता | बान में संगति, ज्ञान की सत्यता के विश्वास के लिए आवश्यक है। इस सिद्वाना में भी कई कठिनाया है। सर्कशास्त्र में शEिRT II Non- contradichom : विश्लेषणामक पराम की सत्यता की कसौटी है। विलेामक परामशों का अर्थ है - ऐसे परामर्श जो कोई नवीन ज्ञान तो नहीं देते हैं परन्तु इन परामशों में विधेय उदेश्य का पाटीकरण मात्र भारते हैं। 'पिालेडाणा (मक परामर्धा को उदाहरण से स्पष्ट कर सकते है जैसे निभुज के तीनों कोगों का योग दो समकोणों के योग के बराबर होता है. इस मिने-TeT परामा में उदेश्य त्रिभुज के तीनों मोगा योग से ही यह बात हो जाती है कि विध दो समकोण के योग के बराबर होगा। किन्तु विधारा उददेश्य के য, কং ক মিল সী” । স্কুল জ্ঞান ক্লা শিক্ষক মা ঙ্ক सीमित नहीं किया जा सकता । ज्ञान मैं विधेय को उद्वेषय में शुभ नई बातें जोड़नी चाहिये। जिस परामर्श में विधेय उददेश्य मैं कुछ नई बातें जोड़ता है उस महामर्श को संज्ञलेलामा परामर्श करते है। अतः स्पष्ट है कि यदि सत्यता की कसोटी अबाध का नियम मान लिया Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाये तो मान सिर्फ मिलेगात्मक परामशों तक सीमित रह जायेगा और सम्पूर्ण शान सदैव्युक्त हो जायेगा। पाश्चात्य-दर्शन मैं डेविड हयूम ने इसी प्रकार मात्र अबाध-नियम को सत्य की कसौटी मानकर सम्पूर्ण ज्ञान को संदेशयुक्त सित किया था । ह्यूम के पश्चात्ती जर्मन दार्शनिक इमैन्युअल काट ने बराम के मत का तापूर्ण संडन कर दिया था | काट ने दिखाया कि संघलेषणात्मक परामों की सत्यता पर संदिश नहीं किया जा सकता। ज्ञान सिर्फ यह नहीं है कि "चौकोर गोल नहीं है", परन् वा ज्ञान की सत्यता में किंचित दट नहीं किया जा सकता कि अमुक मेज एक विशिष्ट आकार और विशिष्ट रंग की है। अबाधिता के नियम को सत्यताही तोटी क्यों गाना पाये' यदि संगति और अबाधिता को बान की सत्यता की कसौटी माना जाये तो जिस प्रकार सत्य मानों में सामंजस्य स्थापित किया जाता है, उसी प्रकार পেয়ে ফ্লাশ * মাশয় গঠির কাট ব্লগ চানী কাবু দানা পা গল । होगा । तिन ने साधा विर्णित ज्ञान को प्रमाण माना, किन्तु अबाfree और सत्यता में कोई अनिवार्य संबंध नहीं किया जा सकता। हम आकाशकुसुम की । कल्पना कर सकते हैं, इस कल्पना में कोई बाधा नहीं है क्योंकि आकाश भी सत् है और अराम भी सत् है, लेकिन क्या इससे आकाशसम की सत्यता सिर की जा सकती है' रेगिस्तान में कहीं-कहीं पानी का भम होता है, उस समय उस ज्ञान में कोई बाधा नहीं प्रतीत होती किन्तु पास जाने पर पानी का शान भम सिन्द होता है। तात्पर्य यह है कि संगति और बEिRIT को सत्य की कसोटी मानने पर सत्य और भ्रमपूर्ण ज्ञानों में अंतर नहीं किगा जा सकता बोंकि भूमपूर्ण कानों में भी संगति स्थापित की जा सकती है। माणिक्यनन्दि सारा बताये गये प्रमाण के लटका मिले ण करने पर सत्यता की एक अन्य कसोटी सामने आती है - अर्थ क्रियावादी कसौटी। इस कसौटी के अनुसार कोई न तभी सत्य कहा जा सकता है जब मान व्यवहार Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारा और निरीक्षण-परीक्षा वारा उलबान को परख लिया जाये। डिवी के अनुसार सत्य का केवल एक अर्थ है- परीक्षित | अर्थक्रियावादी विलियम जेन्स के अनुसार केवल उन्ही प्रत्ययों को सत्य कहा जा TANT है, जो प्रयोग : प्रमाणित किये जा सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि भान अनुभवामित परीण के पश्चात् ही सत्य सिद्ध होता है। माणिक्यनन्दि मती अर्थपियावादी कसोटी का समर्थन करते हैं, जब कहते हैं किया याज्य और उपादेयागाड्या पदाथों की संलिन प्रमाण से होती है । अर्थत तिति के प्रधान कारणभूत प्रमाण से वन्तुरवपar यथार्थ ज्ञान होता है। उनके अनुसार प्रमाण fer की प्राप्ति एवं शहित के परिहार में समर्थ होता है। प्रमाण के धारा पस्तु का परीक्षण किया जाता है, जिससे उपादेय और हेय पदार्थों का ज्ञान होता है। अत: माणिक्यनन्दि के विधारानुसार मान तब तक सत्य नहीं होता जब तक उसकी पुष्टि संतोषजनक परिणामों की और मजाये। सन्तोनक कार्यगत होना सत्यता की कसौटी है। पिलियम जैम्स का कहना है कि वास्तविक विचार वही होते हैं जिन्हें हम समझ सकते हैं, लागू कर सकते हैं, 'पिनकीपुर की जा सकती है और जिन प्रमाणित किया जा सकता है 12 'विचार घटनाओं द्वारा सत्य बना दिया जाता है। यथार्थ प्रत्यय मानय के लिये उपयोगी होता है। उपयोगिता के मानदंड TT यथार्थ प्रत्ययों की रचना की जाती है। शरा सिद्वाना मैं भी कठिनाइयाँ हैं । गपुधाम तो सत्य का निर्णय सदैय परीक्षा नहीं , मूसरे, उपयोगिता की अनुभूति में मम हो सकता है। इसके अतिरिक्त यह आवश्यक नहीं है कि जो उपयोगी है वह यथार्थ है | कभी किसी परिस्थिति में भूठ बोलना उपयोगी हो सकता है, किन्तु इस उपयोगिता से उस की यमाता सिद्ध नहीं की जा सकती । उपयोगिता और लत्यता में अनिवार्य संबंध नहीं है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर्युक्त विवेयन से यही सिद्ध होता है कि प्रमाण सत्यता की कसौटी पर परar Kar भान है। प्रमाण हानमात्र नहीं है, अपितु परीति शान है, सत्यापित भान | बान उत्पन्न होते ही प्रमाण नहीं बन जाता, पल गाण लभी बनता है जब उसे सत्यता की किसी कसौटी पर कसकर ययार्थज्ञान का रूप प्राप्त हो जाये। यह मात्र प्रत्यक्षा नहीं अपितु पुनर्निरीक्षित प्रत्यक्ष है, किन्तु यदि ऐसा है तो यह प्रमाण के अनगिताग्राही और अपूधार्थनाटील. विरह होगा। अकलंकदेव ने प्रमाण का एक लक्षण दिया - "अनागिताग्राही* और माणिक्यनन्दि ने भी प्रमाग का एक लक्षण दिया - "स्वयूवायव्यवसायी"। मकान के अनुसार, अनगित का अर्थ है ऐसा कान प्रमाण होगा जो प्रमाणान्तर से अनिणीत अर्थ का निर्णय करे । इसी प्रकार माणिक्यनन्दि के "स्व" अर्थात् अपने और अपूवार्थ' अधात जिसे किसी अन्य प्रमाण से नहीं जाना गया है, ऐसे पदार्थ के निश्चय करने वाले ज्ञान को प्रमाण महा है। यदि प्रमाण के ये *अपूर्व" और "नाधिगत 'विशोषण मान लिये जाते हैं तो इसका अर्थ हुआ कि प्रमाण सत्यापित ज्ञान नहीं वरन् प्रत्युत ऐसा मान है जिसको पहले किसी प्रमाण से नहीं जाना गया है। अतः प्रमाण के लक्षण परस्पर विरोधी प्रतीत होते है। प्रमाण के लक्षण सम्यक्त्व और अनगितार्थग्राहित्य में स्पष्ट रूप से विरोध परिलक्षित होता है। प्रमाण का लण सम्यक्त्व मानने पर प्रतीत होता है कि ज्ञान को प्रमाण मानने के पूर्व सत्यता की किसी कसौटी पर परखा जा चुका है किन्तु अनधिताया धित्व को प्रमाण का लण मानने पर प्रतीत होता है कि ऐसे कान को प्रमाण माना गया है जिसकी पहले परीक्षा नहीं की गयी इस प्रकार जैन-दार्शनिकों के प्रमाण के लयिान नै स्प होता है कि इनके द्वारा प्रमाण के मकाथन मैं सत्यता की विधि आगों को माना गया । साथ ही, पाश्चात्य-दर्शन की सत्यता की विविध कलाँदियों में जैन दार्शनिकों के प्रमाणलग की तुलना करने पर नई बात सामने आई कि म पाश्चात्य दार्शनिकों . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा सत्यता भी इन विविध कसौटियों को परस्पर विरोधी माना गया है और किसी एक कसौटी को ही अंतिम रूप से चुना गया वहीं जैन-दार्शनिकों द्वारा प्रमाण के लक्षण के रूप में एक साथ ही सत्यता ने ये विविध कप्तौ टिया स्वीकार की। प्रश्न उठता है कि जैन-दार्शनिकों द्वारा प्रमाण के लक्षण में एक साथ सत्यता की ये विविध कसौटिया क्यों मानी गयीं' इसका उत्तर खोजा जा सकता है। जैन-दर्शन की विशिष्ट तत्वमीमांसा में, जिसका अनिवार्य तार निकलता है उनकी अनेकान्तवादी दृष्टि, जो इनके सम्पूर्ण दर्शन में व्याप्त है। इस अनेकान्तवाद के सिद्धान्त के अनुसार वस्तु में विरुद्ध प्रतीत होने वाले अनन्तधाम रह सकते हैं क्योंकि वस्तु अनन्तधात्मक है। वस्तु में जितने विरोधी धर्म हैं सब सत्य हैं क्योंकि वस्तुविषयक सम्पूर्ण यथार्थता का ज्ञान उन विरोधी मों के समन्वय में निहित है। अतः वस्तु के विषय में सभी मत उपयोगी हैं क्योंकि वे वस्तु के विविध पहलुओं का कथन करते हैं और वस्तु के विषय में सम्पूर्ण सत्य को जानने के सहायक होते हैं। वस्तुओं के विषय में जो नाना मत-मतान्तर हैं, उनका कारण वस्तु का अनेक धमात्मकस्वल्प है 133 जैन-दर्शन के अनुसार, वस्तु को ट्रव्य और पदार्थ दोनों ही दृष्टियों से देखा जाना अपेक्षित है 154 द्रव्य की दृष्टि से वस्तु स्थिर प्रतीत होती है। वस्तु में जो अपरिवर्तनशीलता प्रतीत होती है उसका कारण द्रव्य है। किन्तु वस्तु में नित्य नये परिवर्तन होते रहते हैं, जिनका कारण वस्तु के अनन्त पयाय हैं, जो सदैव परिवर्तन उत्पन्न करते हैं। अतः वस्तु के विषय में जो नाना दृष्टिकोणों की विविधता दिखायी पड़ती है वह सम्भव है क्योंकि पर्याय वस्तु में प्रतियण परिवर्तन उत्पन्न करते रहते हैं। वस्तुओं की अनन्तधात्मकता के इस सिद्धान्त को तार्किक रूप से स्यादवाद और सप्तभंगीनय के रूप में व्यक्त किया गया है 135 उपर्युक्त विवेचन का अभिप्राय यह है कि पाश्चात्य - दार्शनिक वस्तु और सत्यता की एक कसौटी मानते हैं और दूसरी कसौटी को उस कसौटी का विरोधी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध करते हैं क्योंकि उनके भत में सत्ता स्व अपरिजनशील है। सो परीत, जैनदार्शनिक वस्तु का विवेचन एक विशिष्ट रूप में करते हैं, वस्तु-विषयक सभी दृष्टिया उस विशिष्ट दृष्टिकोण के संबंध में सत्य हैं। सभी दृष्टिया सत्य को जानने के सम्भावित माध्यम हैं। इससे सिद्ध होता है कि जैन-दार्शनिकों ar प्रमाण के जो विभिन्न लक्षण दिये गये हैं वे सम्भत क्योंकि वस्तु में विभिन्न गुण संभव है। के विरोधी प्रमों को सत्य सि. हारने IT-HT उपर्युक्त सित तार्किक दुष्टि सन्तोषपद नहीं हो सकता | अत: ताकि दुकोण से विवेचन को यहीं सपा नहीं किया जा सकता | ब के शान की उपEि की दृश्टि से प्रमाण के ये पिरोधी लाण संभव हो तो है पयोंकि बाद मैं पत्तियों का अपना यक्तिगत विशिष्ट दृष्टिकोण हो सकता है, तुओं को ग्रहण करने का ध्ययित का अपना तरीका हो सकता है, यस्तु के दाग की पमित्त की सीमा हो सकती हैं जो वस्तु के विधय में व्यक्ति को एक विशिष्ट दृष्टिकोण बनाने को बात कर सकती हैं किन्तु मान की सत्यता की दृष्टि से सभी दृष्टियों को सत्य नहीं माना जा सकता क्योंकि वस्तुओं का सत्य परिवर्तनशील नहीं है। प्रस्तु का सत्या वस्तु की आन्तरिक विशिष्टता होती है जो दष्टिकोणों की विविधता के साथ नहीं बदल जाती । सस्थ व्यक्तिगत नहीं परन् सार्वभौमिक होता है जो प्रत्येक जानने वाली बुद्धि के लिये सत्य होता है आकामा मैं तारों का अस्तित्व और कगीचे में गुलाब का अfिrera किती व्यक्ति के ITन पर निर्भर नहीं है। यह संभव है कि गचित उस गुलाब को अपने तरीके से जाने और विशिश क में जाने लेकिन इससे गुलाब के अस्तित्व में कोई अन्तर नहीं आता। इस प्रकार, व्यक्ति का वन्तुसत्य को ग्रहण करने का तरीका विशिष्ट व्यक्तिगत हो सकता है, किन्तु इससे वस्तु-सत्य यागत नहीं हो जाता। अतः हमें प्रमाण की सत्यता की एक निश्चित कतोटी चाहिये पो प्रमाण Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और पुमिति दोनों को एक साथ सत्य सिद्ध करे। जो हमारे कान और ज्ञान के शिदोनों की यथार्थता स्थापित करे । बरा दुष्टि से "स्वपरासभा जिला प्रमाण का उपयुक्त लक्षण हो सकता है, क्योंकि पहलाण प्रमाण और प्रमिति दोनों को सय मि.: करता है। जैसा कि प्रमाण - लक्षणों के पूर्व विवचन के प्रसंग में अकलंक देव द्वारा लि किया गया कि यदि प्रमाण को दीग की भाति स्व और पर का प्रकाशक माना जाये तो प्रमाण और प्रमेय के संघर्ष की समस्या हल हो जाती है। हेमचन्द्र का कथन है कि ज्ञान प्रकाशमान स्प में ही अ को प्रकाशित करता है 118 ज्ञान का पर प्रकार होने के कारण स्वप्रकार से दीपक की भाति कोई विरोध नहीं है। जानने स्य किया कि घेतम होता है, यही कारण हे विमान को प्रमाण माना गया है। जिस प्रकार दीपक की प्रकाश माने बिना दीपक द्वारा प्रकाशित पदायों की प्रा मानना संभव नहीं, उसी प्रकार यदि प्रमाण स्वस्य ज्ञान की स्वत: प्रकाशता न मानी जाये तो बान दारा TT पदार्थों की प्रत्याला संभव नहीं। शान का गुणबी है - अपने को और पन्तु को प्रलानी करना | ज्ञान चेतन है। इसीलिये जैन-दर्शन में प्राप्ति की दृष्टि से दान स्वत: प्रमाण है 140 ज्ञान के स्वरूपगृहण की अपे। उसका प्रामाण्य-निशाय स्वयं होता है। चाहे प्रमाण हो या अपमाण, पE अपने स्वस्थ का सवेदन करता ही है। माणियनन्दि का कथन है कि कौन सा व्यक्ति है जो भान से प्रतिभा सित सुरु पदार्थ को प्रत्यक्ष मानता भी स्वयं जान को प्रत्यक्षा न भाने ।जैन मत में इन्द्रिया सान्निका प्रमाण के स्वरपगवण में हैतु नहीं होते, अतः शप्ति की दृष्टि से प्रमाण स्वत: होता है। अन्य दोनों मारा मान्य ज्ञान पतन्निकों की प्रमाणता के निराकरण के लिए ही पैनों ने बाप्ति की जान को स्वतः पुमाण माना । यहा परन उanा है कि क्या उत्पत्ति की दृष्टिले मीन यता प्रमाण है' यदि ऐसा मान लिया जाये तो प्रत्येक शान स्वत:प्रमाण हो जायेगा। ज्ञान में अप्रमाणता का प्रान ही नहीं उठेगा । तब प्रथम भाग मैं जब "घाट सप है", ऐसार्स Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में शान होता है तो इस शाम को भी प्रमाण मानना चाहिए । 'किसी वस्तु को जानना और उसकी सत्यता का निश्चय होना भिन्न स्थिति है । FAT RAT प्रकार दिया गया है कि अपमान भी मियाय होता है| रती मैंस का मान होता है उस सिर्फ यही ज्ञान होता है कि या सप । किन्तु यह ज्ञान वस्तु में यथार्थ समाप के विपरीत है अत: इस शान मैं संभाग उपन्न हो जाता है। तब हास संशय के निराकरण की आवश्यकता पड़ती है। सीए TET प्रमाण धन पाता है। प्रमाण र प्रभा दोनों में धान का मि..! पर होती है किन्तु जहा प्रमाण-ज्ञान में संशय, पि ओर अनथ्यवसाय के विरोध न होने से वस्तु का यथार्थ, सत्य ज्ञान होता है वहीं कान में यदि संशय, विषय और यवशाय य समारोप उत्पन्न हो जाये तो ही शान अपमाण हो पाया है। यही कारण है माणिक्यनन्दि फहते हैं कि "दृष्ट जथात् किसी अन्य प्रमाणात भी यदा समारोप हो जाने से अपूवार्थ हो जाते हैं। प्रमाग के लक्षण में जो "अपूर्व पद का प्रयोग माणिक्यनन्दिारा किया गया उसका अभिप्राय यह ही है कि मान के ,TT गृहीत वस्तु का निर्णय न किया जा सके तो यह भी "अपूर्य" ही कही जायेगी। इसी कारण से प्रमाण के लक्षण-कथन में व्यवसायाम पद का प्रयोग भी किया गया है। इसका तात्पर्य है कि संजा, तिपय और अनध्यवसाय स्प जो समारोप है उसके विरोधी पदार्थ को जानना ही प्यलाभकता है, तथा व्यवसायात्मवाता' के होने पर ही प्रमाणहान का अविषादी होना संभव है। प्रमाण की जैन-दर्शन में तार्किक graft दी गयी है - प्रमाया: सात करणं प्रमाणम् । TET अर्थ है, 'जिा माध्यम से पदायों न होता है उस माध्यग को प्रमाण करते है। इसका अभिप्राय है कि मान निमियक नहीं होता। वस्तुमान-स्वभाव है किन्तु वस्तु का अस्तित्व बान पर निर्भर नहीं है । 42 बान की प्रमाणता और अप्रमाणता पदार्थ के हेतु से होती है। अतः शान की प्रमाणता, उत्पत्ति की दुटि से पातकी अपेक्षा अधात परत होती है। माणिजयनान्दिा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथन है कि दूर में जल भर कर आते ही लोगों को देखकर या कमलों की सुगन्ध है जी और तालाब का मान होता है, किन्तु इन लागों से करें या तालाब का ज्ञान तो तभी संभव है जब इन लक्षणों के साथ कुयें और तालाब का HIT जान प्राप्त हो चुका हो 143 उपयुत विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दर्शन में दो अर्थों में प्रमाण और ज्ञान का वियन किया गया - उत्पत्ति अथवा गृहणशीतता और मूल्यांगन । उत्पत्ति और ग्रहणशीलता की दष्टि से ज्ञान की विविधता और पुकारता को माना गया है तथा दूसरी दुटि से कान का मूल्यांकन किया गया है। शी लगा की दृष्टि से न को स्वपरावभाति कहा गया है और उसे प्रत्यः। और परोक्ष धगों में रखा गया है। मूल्याकन में नयवाद और स्पालाद का आता है 11 पाते मूल्यांकन की दृष्टि से सल्म को परिस्थिति-सापे। माना गया है तथा सत्यता: संभामा को बनाये रखा गया है। इनके सभी Pिart "सत्य-प्रायिकता के सिंहति का प्रतिपादन करते हैं। जैनों कीभानगी माताको नापीमांतीयप्रसंभाव्यताबाद* epislamic - Poolocabi.cism | कहा जा सकता है। यही जैन शानमीमांसा का आधारभूत स्वरय है। उत्पत्ति की दृष्टि से स्पष्ट होता है कि नैनों के दृष्टिकोण में दिवादिता नहीं है क्योंकि ज्ञान को प्रत्यक्ष और परीक्षा नगों में बात हो भी निश्चित मानप्रकारों का मिट किया गया है और नवीन HTन-प्रकारों की सम्भावना बनाये रखी है। वास्तव में ज्ञान-प्रकारों में भेद का आधार चेतना का तिहास है, इसलिए जान को कम-1 से जोड़ा है।44 काय के आधार पर न की प्रकारता निशिचत की है। वस्तुतः प्रत्यक्षा और परीक्षा के बीच टपही हाय हैं और यही कर्म- दोनों को धीच सम्पर्क-सू भी है। जैन दार्शनिकों ने अनुसार, जब सम-4 TAT अर्थात् "आवरणीय" का होने पर पान होता है, ऐसी स्थिति में, जो भान होगा, पर परोक्ष होगा । यही कारण है कि यहा' Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान में मात्रात्मक भेद माना गया है, प्रकारात्मक भेद नहीं। लक्षण-भेद ही प्रमाण-भेद का नियामक है। इसलिये जैन-दार्शनिक ज्ञान को एक और अखंड नहीं मानते । वे सभी ज्ञानों का समन्वय भी नहीं करते । वे दशाते हैं कि ज्ञान के विविध प्रकार हैं किन्तु उनमें विरोध नहीं है। "यही है" ऐसा आगृह नहीं है यही "सत्य-प्राय' का रूप है । मूल्यांकन की दृष्टि से भी यह ही सिद्ध होता है कि सत्य निरपेक्ष नहीं वरन् परिस्थिति-सापेक्ष है । इसलिये सत्यापन की जो प्रचलित कसौटिया हैं उनसे इन्हें सत्यापित या असत्या पित नहीं किया जा सकता । इन्हें "अनुभव की । HUTCHTHT"* I possibilities of experiences ! FT # TEGIT UT HOT यहाँ पर जैनों का सिद्धांत काल पापर के "असत्यापन सिद्धांत" | Theoryo Falsshahei के निकट लगता है। पापर का मानना है कि प्रत्येक सामान्य कथन प्रसंभाव्य कथन है । वह तभी तक सत्य माना जाता है जब तक भावी उदाहरणों से अस त्या पित नहीं हो जाता । इस प्रकार किसी कथन के सत्यापन का अर्थ है - उसका असत्यापित न हो पाना ।46 अतः स्पष्ट है कि जैनों का सिद्धांत पापर के "असत्यापन-सितांत से काफी समानता रखता है। जो सत्य है उसे कहा नहीं जा सकता, जो "सत्यप्राय" है उसे मानेंगे । इसी अर्थ में इसे ज्ञानमीमासीय सापेक्षतावाद TEpistemic - Reladiesm | और ज्ञानमीमासीय पृसंभाव्यतावाद या सत्यपायिकतावाद | Episaune. Probabilasm | कहा जा सकता है | अंत में, कहा जा सकता है कि यहाँ सत्यता का संप्रत्यय महत्वपूर्ण नहीं है । प्रगाण अर्थ का ज्ञान देता है । यहाँ पर अर्थ का निर्णय किया गया है, संप्रत्यय का मूल्याकन नहीं। ज्ञान प्रवृतिपरक और फलोन्मुख होता है इसलिये वह सफल और 'निष्फल कहा जाता है। यहाँ जैन-दार्शनिक आधुनिक पाश्चात्य व्यवहारवाद Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | Poogwalism I के काफी समीप प्रतीत होते हैं। पास्तव में, जैन दर्शन के अध्ययन से प्रतीत होता है कि ज्ञानमीमाता को गयों महत्व नहीं दिया गया है। यहाँ मुल्यों को अf HEN दिया गया है। शोभान प्राप्ति की बात कही गयी है जो लोक-व्यवहार में सहायक हो। मीमांसा में तर्फ का खंडन नहीं किया जा सकता । मान्यीक्षिकी के अन्दर अन तीन को नहीं रखा जा सकता है क्योंकि यह अन्ततोगस्था के का डन करता है। बापुसार, कोई तरीका | sysbua संभव नहीं है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ और टिप्पणी ।. दी हिस्ट्री आव इंडियन फिलासफी, भाग दो, डा0 सुरेन्द्रनाथ दास गुप्त, केम्ब्रिज, 1923, पृ0 412. 2. आगम युग का जैन दर्शन, श्री दलसुख मालवाणिया, श्री सन्मति ज्ञान पीठ, आगरा, 1966, पृ0 129. 3. मतिचताऽवधिमनःपर्ययकेवला नि ज्ञानम् । तत्वार्थसून, उमास्वाति, सं0 40 सुखलाल संधावी, भारत जैन महामंडल, वर्धा, 1932, 1.9 +. तत्प्रमाणे । वही 1.10 5. तत्वार्थवार्तिक भाग एक अकलंक, सं00 महेन्द्रकुमार, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, 1953, I. 10-1. 6. वही 1.10-6-7. 7. वही 1.10-8-9. पञ्चारितकायसमयसार, कुंदकुंद, निर्णयसागर पेस बंबई, 1916, गाथा, 48. 49. तत्वार्थवार्तिक ।. 10-12. 10. वही ।.10-14. ।।. सवार्थसिद्धि, पूज्यपाद, सं०० फूलचन्द्र जैन, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, 1955, 7-9-१. 12. न्यायावतार, सिद्धर्शिकी टीका Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. पणोति प्रमीयतेदनेन मितिमा या प्रमाण सार्थसिदि ।10-10. 14. तत्वाधवार्तिक, पृ0 297. 15. परीगुटा, माणिक्यनान्दि, सेन्ट्रल जैन पनिागि हाउस, लखनऊ, 1940, 16. प्रमाणीमाता, हेमचन्द्र, अंग्रेजी अनुबाद, सवारि मुखर्जी, तारा पब्लिोषान, पारासी, 1970, 1.8 17. न्याराशुदचन्द्र, काक की लधीयर य पर TT प्रमावन्द्र, सं0 40 महेन्द्र कुमार जैन, मानिकचन्द्र दिगम्बर जैन सीरीज, खना, 1938, 1.3 T. गतिSTiन: पगलानि नम् । तत्मातून, 1.9 1१. तत्पमाणे । वही 1.10 20. प्रमाणं स्परावभाति ज्ञान बाभाविवर्जितम् । मायावतार वार्तिक सिइसेन, सिंधी जैन-मयमाला, भारतीय ' विभतन, धंधई 1949, 1.2 21. प्रदीपवत् । परी.गुल, 11, 12. 22. न्यायावतार, 1,2. 23. CATी , अक्षतक की अन्टमाती परीका घिनन्दि, निर्णधसागर प्रेत, बन्माई, 1915, पृ0 175. 24. यही, पू0 175. 25. स्पपूर्षि सायरान प्रमाणाम् । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26. अनिश्चितोऽपूवार्थः । परीक्षामुख, 1.4 27. दुष्टोऽपि समारोपातादृक् । वही, 1.5 28. प्रमाणमीमांसा, हेमचन्द्र, 1.3 29. सम्यग्धनिर्णयः प्रमाणम् । वही, I. I.2 30, Dictionary of Philosophy, Edited by DOGOBert D. RUNES. Philosophical library, Newyork, 1942, Page 321. 322. 31. हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततोज्ञानमेव तत् । परीक्षामुख, 1.2 32. Pragmatism, William James, p. 133. 33. पंचा स्तिकाय, गाथा - 8. 34. द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु ।। प्रमाणमीमासा, 1.30 गुणपर्ययवदडव्यम्, तत्वार्थसूत्र, 3.38 35. पंचा स्तिकायसार, गाथा 14 36. प्रमाणनयतत्वलो कालंकार, वादिदेवसारि, जैन साहित्यविकासमंडल, बंबई, 1967, 1.2 37. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ0 187, प्रमाणमीमासा, पृ03 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38. प्रमाणगीमासा, पृ0 5. 39. तपासून, 1.10, परीक्षा मुसा, 1.6-12 निगर, जैन गंध रत्नाकर, बबई, 1916, 11. 40. परीक्षागुल, 1.15 १. परीक्षामा ।।। 42. प्रमेयकमनमाड, माणिक्यनन्दि की परीक्षा पर ITI, प्रमाचन्द्र, निर्णशागर प्रेत, बाई, 1941, पृ0 106. 43. परीक्षा गुण, पूर 45. tilite प्रमाणमीमांसा, 11.15, प्रमेयकमनमाड, पूर 233. 15. तत्मासूर, 1.30 प्रवचनसार, बुदसुंद, निर्णयसागर प्रेत, बबई, 1969, 22. Boston Studies in the Philosophy of science, edited by Coffen an Wortafsky/ Humanities Press, New York, vol. II 1965, p. 60. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ××××××××××××××××××× द्वितीय अध्याय - प्रत्यक्ष प्रमाण XXXXXXXXXX××××××××××××××Xxx} Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष प्रमाण पिछले अध्याय में स्वपरावभाति ज्ञान अधातु ऐसा ज्ञान जो स्वयं अपने के और पदार्थ को प्रकाशित करता है। प्रमाण का उपयुक्त लक्षण प्रतीत हुआ था। इसका तात्पर्य है कि एक ज्ञान दो स्थितियों में प्रमाण होता है। एक तो जब वह अपने स्वरूप का प्रकाशन करता है और दूसरे, जब वह पदार्थों का प्रकाशान करता है। ज्ञान जब अपने स्वरूप का प्रकाशन करता है तो उस स्थिति में प्रमाण को प्रत्यक्ष प्रमाण और जब वह पदार्थों का प्रकाशन करता है तो उस स्थिति में प्रमाण को परोक्ष प्रमाण कहते हैं। अतः दो प्रकार के प्रमाण संभव हैं - प्रत्यक्षा और परोधा । जैनदर्शन में प्रमाण के यह ही दो प्रकार माने गये हैं। न्यायावतार की टीका में सिमा ने कहा है कि मान की प्रवृत्ति दो ही प्रकार की होती है, विशद औरअविशद । इसके अतिरिक्त और किसी प्रकार की ज्ञान-प्रवृत्ति नहीं हैं। अतएव प्रमाण का तीसरा प्रकार हो ही नहीं सकता। विवादमान प्रत्यक्ष है और अविषदबान परोक्ष ज्ञान के जितने भी प्रकार है उन्हें विशदता और अविशदता के अन्दर रखा जा सकता है। उमास्वाति का कथन है कि अनुमान, उपमान, आगम, अापत्ति, संभावना, अभाव और अनुपलब्धि प्रमाण के पृथक प्रोत नहीं हैं। वे इन सब प्रमाणों को परोक्ष प्रमाण में समाविष्ट कर लेते हैं। उनका कहना है कि इनमें से अधिकांश प्रमाण वस्तुओं के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क के कारण है। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि जैन-दर्शन की प्रत्यक्ष और परीक्षा की परिभाषायें सामान्य परिभाषाओं से भिन्न हैं। अकालकदेव ने स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष माना है। स्पष्ट मान का पही अर्थ है जो विशदता का ।' विशदता का अर्थ है ऐसा ज्ञान जिसके प्रकाशन के लिए किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता न हो।' प्रत्यक्षा का व्युत्पत्ति-मूलक लक्षाग जैन दर्शन के अनुसार यह ही है, क्योंकि यहा' "अक्ष' शब्द का अर्थ आत्मा लिया गया है। अत: "अक्षा अथात् आत्मा की अपेक्षा से जो बान होता है वह प्रत्यक्षावान है। किन्तु सामान्य प्रयोग में "rel" का अर्थ आख-इन्द्रिय से Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिया जाता है। अन्य दर्शनों में "अE* का अर्थ इन्द्रियही लिया गया है, परिणाम स्वरूप उन्होंने प्रत्यक्षा का ल किया है। ऐसा ज्ञान जो इन्द्रियों की सहायता से होता है। सिद्धतेन का कथन है कि इन्द्रियों से होने पाला भान साक्षात् आत्मा से नहीं होता, अत: पड प्रत्यक्षा नहीं है।' पैन-दर्भान के अनुसार, प्रत्यक्षा शान में जाता और शेय के मध्य कोई शक्ति नहीं होती। इस प्रकार, यहाँ जो ज्ञान आवरणरक्षित केवल आत्मा के प्रतिनियम है, जो ज्ञान बाय-इन्द्रियादि की अपेक्षा से न होकर केवल पोपशम वाले पा आवरणरहित आत्मा से होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान है । जैनदर्शन का स्पष्ट विगर है जिसमें शीन काल के गोचर अनन्त गुण-पयाय संयुक्त पदार्थ अतिशयता से प्रतिभासित होते हैं उसको ज्ञानी पुरूषों ने ज्ञान कहा है। यह ज्ञान आल्मा का स्वाभाविक है। यदि अग्नि को उष्ण स्वभाव न माना जाये तो अग्नि का स्वरूप क्या रह जाता है, अथात कुछ स्वरूप नहीं रहता, उसी प्रकार यदि आत्मा को शानरूप न माना जाये तो इसका भी कुछ स्वल्प नहीं बचेगा 110 अत: शान आमा का सारतत्व है। आत्मा पद रूप में ज्ञान है और आत्मा ही ज्ञाता रूप में ज्ञात है। ऐसा ही अनुभव पाश्चात्य-दर्शन के महान दार्शनिक रेने देकात ने किया, जब उन्होंने कहा - "मैं सोचता हूँ इसलिये मैं हूँ Icomjargosum !' उन्होंने कहा कि मैं अपने अस्तित्व का निराकरण कर फिर भी निराकता के रूप में आत्मा के अस्तित्व का खंडन नही किया जा सकता है। आत्मा और शान के संबंध को कुन्दकुन्द ने इस प्रकार स्पष्ट किया कि माता और मान में कोई भेद नहीं है, क्योंकि आनुभविक दृष्टि से केवलनानी सम्पूर्ण वास्तविकता को जानता और अनुभव करता है तथा अतीन्द्रिय दृष्टिकोण से आत्मा पहा पर अकलंक एक नवीन विचार प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार शन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान भी प्रत्यक्ष ज्ञान की कोटि में रखा जा सकता है क्योंकि अकालक। के अनुसार प्रत्यक्ष का अर्थ है "पष्ट मान* ! यक्ष ज्ञान आत्मा के द्वारा भी उत्पन्न Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो सकता है। अकलंक प्रत्यक्षा ATन लिए "अS-ATविशेषण का प्रयोग करते हैं जिसका अभिप्राय है प्रत्यक्षाज्ञान अपने स्वभाव से ही स्प होता है. चाहे वह शन्द्रियों से उत्पन्न हो अथवा इन्द्रियों से उत्पन्न न हो । किन्तु अकलंक आत्मा को स्वभावत: मान-स्वरूप पाला मानते हुए कहते हैं कि आत्मा जच निहावरण रूप में होता है तो उसे ज्ञान के लिए इन्द्रियादि साधन की आवश्यकता नहीं पड़ती, वह अपनी शक्ति से ज्ञान प्राप्त कर लेता है। ज्ञान प्राप्ति में इन्द्रियादि-सहायता की आवश्यकता तो तब पड़ती है जब उसका स्वाभाविक ज्ञानमय स्वरूप ढक जाता है।15 उनका स्पष्ट विचार है कि जिस प्रका चलने की शक्ति से सम्पन्न मनु-य स्वयं चलने में असमर्थ होने पर ही लाठी आदि का महारा लेता है उसी प्रकार मानावरण से ढक जाने पर मान-स्वभाव वाली आत्मा बाय-उपकरण का सहारा लेती है। बाय-उपकरण ज्ञान की उत्पत्ति में एक स्थितिमात्र हो हैं जिसमें स्वयं आत्मा का स्वभाव प्रकट होता है। आत्मा का शान सवय आत्मा की अवस्था है जिसमें बाध्य पदार्थ आभासित होते हैं, इन्हीं के आधार पर हमें बाप-पदार्थ का ज्ञान होता है। भाड्य-पदार्थ के अभाव में, उसके विषय में विशिष्ट ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के रूप में स्व का प्रकाशन तो होता ही है। जब भान का स्वता प्रकटीकरण पूर्ण होता है उसे किसी बाध्य पदार्थ की अपेक्षा नहीं होती और इन्द्रियादि से उत्पन्न पदार्थों के for Eान से उसका कोई प्रयोजन नहीं रह जाता | तब पूर्णतान केवलज्ञान अपने में सभी विशिष्ट ज्ञानों को समावेश कर लेता है। उपरोक्त विवेयनों से क्या यह निकली नहीं निकलता कि केवलज्ञान के अतिरिक्त सब कानों को मिथ्या माना जाये' अस विषय में उमास्वाति का तिर है कि जानने की शक्ति चेतना समान होने पर भी जानने की किया-बोध उपयोग सा आत्मानों में समान नहीं होता। यह उपयोग की विविधता बाह्य-आभ्यन्तर का की विविधता पर अवलम्बित है। 'विष्यभेद, इन्द्रियादि साधन भेद, देवकालमेर इत्यादि विविधता बाह्य सामग्री की है। आवरण की तीता-मन्दता का तारत Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्तरिक सामग्री की विविधता है । इस सामग्री की विभिन्नता के कारण एक ही आत्मा में भिन्न-भिन्न समय में विभिन्न बोधक्रियायें होती हैं तथा अनेक आत्मायें एक ही समय में भिन्न-भिन्न बोध करती 1 यह बोध की विविधता अनुभवगम्य है । केवलज्ञान सामान्य ज्ञान है। इसी सामान्य-दान के आवरण भेद से 5 भेद हैं । जैनदापीनिकों की इस परिकल्पना के अनुसार, केवलज्ञानावरण ज्ञान सामान्य को पूरी तरह ढक लेता है फिर भी उससे टुट्यों को जानने वाली ज्ञानकर निकलती रहती है। इन्हीं ज्ञानकरणों के ऊपर त्र आवरण काम करते हैं । इन्हीं अन्य आवरणों की क्षयोपशम की मात्रानुसार शेष ज्ञान प्रकट होते हैं । वीरसेन के अनुसार जिस प्रकार धारद्रव्य से अग्नि को पूरी तरह क लेने पर भी उससे भाप निकलती रहती है उसी तरह ज्ञान पर आवरण पड़ते हैं, फिर भी ज्ञान का एक अंश जिले यदि वह भी आवृत्त हो जायेगा तो ज्ञान कहते हैं सदा अनावृत्त रहता है । जीव अजीव हो जायेगा 117 इसी विचार को और स्पष्ट करते हुए नन्दीसूत्र में कहा गया है कि जिल सन से आच्छन्न होने पर भी सूर्य और चन्द्र की प्रभा कुछ न कुछ आती डी एहती है । fantha near a Taायें पर दिन और रात का विभाग तथा रात्रि में शुक्ल और कृष्ण पक्ष का विभाग बना रहता है । उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म से ज्ञान का अच्छी तरह आवरण हो जाने पर भी ज्ञान की प्रभा अपने प्रकाश स्वरूप के कारण बराबर प्रकट होती रहती है। इसी मन्द्र प्रभा के मक्ति, शु, अवधि और मन:पर्यय ये चार भेद योग्यता और आवरण के कारण हो जाते हैं । here or वा भाग, जो अक्षर के अनन्त भाग के नाम से प्रसिद्ध है तदा अनावृत्त बहता है । चेतना पाश्चात्य मनोविज्ञान वस्तुतः मानव दिखाई देने वाली रोलमा से बहुत अधिक है । चेतना का Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पूर्ण या वेतना अपने सम्पूर्ण रम में हमें बदिखाई नहीं देती । चना के अनन्त पहलू हैं, चेतना का अत्यन्ना विस्तृत है। यही कारण है कि चेतना को मना , आत्मा और व्यक्तित्व का पर्याय नहीं माना जा सकता । मानवीय आत्मा का केवल दृष्टिगोचर चेतन पहलू ही सम्पूर्ण जात्मा की वास्तविकता का उदघाटक नहीं होता| हमारे मन की बाई गालि शुधियों का रहस्य "सिफ मनात सी चैन पहलू के आधार पर नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि आधुनिक मनोविज्ञान आत्मा के इस दृष्य चेतन पहले के अतिfree अचेतन और harन पहलुओं का ऑसत्य भी मानता है। प्रसि मनोवैज्ञानिक TO सिगमंड फ्राय के मत में मास का बहुत भाग अचेतन है और न अचेतन पहा को मनुष्य के व्यक्ति की अनेक जटिलताओं का हा माना जा सकता है ।18 अचान पवन में प्राय के मत में मनुष्य के व्यक्तित्व का एहस्य पिा है। चेतन मन में वही कुछ आता है जिसकी वार्तमान में व्यक्ति को आवश्यता होती है। बाकी लत तुम अचेतन मस्तिष्क में पड़ा रहता है। हमारे सामान्य अनुभा में भी कभी-कभी यह दिखाई पक्षता है कि रात्रि में सोते समय मन में कोई जटिल गुत्थी होती है किन्तु सोकर उने पर उसका कोई हल हमें सूाता है | tी पुकार सोते समय हम एक 'निश्चित समय उठने का संपाय करके तोते हैं और सामान्यतः उत्त निश्चित समय नींद खुल जाती है | सका कारण अचेतन मस्तिक में ही खोजा जा सकता है। प्रख्यात भारतीय गणिती रामानुज का यह व्यक्तिगत अनुभव था। उनका कहना था कि गणित का कोई अटिल प्रश्न जिला न उन्हें नहीं सुला था, प्रायः उसी विष्य में चिन्तन करते-करते में सो जाया करते थे तथा प्रातः उठने पर उस पान का हल उन्हें सूजाया करता था | फ्रायड ने भी इसी प्रकार का विशाल पट किया है 119 जब आइन्स्टीन से उनकी शृजनात्मक प्रक्रिया का रहस्य HIT गया तो उन्होंने उत्तर दिया कि विप्नावस्था और सुपावरा में एक ऐसी शिति ती है जब एक लम्बी लागसी लगाकर शोध के उच्चतर तर तक पहुंच जाती है। संसार के अधिकारी यानि आधिकारी स्थिति में संभ 120 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ्रायड ने इस बात का अन्वेषण किया कि व्यक्ति के वेतन से स्वतन्त्र बहुत सी मानसिक क्रियायें घटित होती है 121 सी०जी० युंग ने अचेतन के गहरे स्तरों की खोज की जहां उन्होंने सामूहिक चरित्र की प्रतीक और प्रतिभायें पायीं । वस्तुतः आधुनिक पाश्चात्य जगत में मानवीय चेतना पर विस्तृत अन्वेषण किये गये। पर्ल, गोल्डस्टीन, मफी, लेविन, गुडमैन, अल्पोर्ट आदि मनोवैज्ञानिकों ने "व्यतितत्व" के अध्ययन में चेतना के विविध स्तरों का उद्घाटन किया तथा व्यक्तित्व के विकास के लिए कई उपाय सुझायें । इन अध्ययन के आधार पर मानवीय व्यक्तित्व को इस रूप में प्रस्तुत किया 122 निम्न अवचेतन व्यक्तित्व का वह स्तर है जहाँ शारीरिक क्रियाओं को निर्देशित करने वाली प्रारम्भिक मनोवैज्ञानिक क्रियायें होती हैं । इनके अन्तर्गत मूल प्रवृत्ति, निम्नकोटि के स्वप्न और कल्पनायें भी सम्मिलित है । उच्च अवचेतन के क्षेत्र में उच्च अंतःप्रेरणायें और अंतःप्रज्ञा उपलब्ध होती है जैसे कलात्मक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और नैतिक । इस क्षेत्र में उच्च क्रियायें और आध्यात्मिक अनुभव छिपे है । यह उच्च अनुभवों का उत्पत्ति स्थल हैं जैसे समाधि की अवस्था के अनुभव | चेतना का क्षेत्र व्यक्तित्व का वह भाग है जिससे हम प्रत्यक्षतः परिचित है । यह संवेदनाओं, प्रतिमाओं, विचारों, इच्छाओं और प्रवृत्तियों का सतत प्रवाह है जिसका हम निरीक्षण, विश्ले और निर्णय कर सकते हैं । चेतन आत्मा या अहं को बहुधा वेतन व्यक्तित्व से मिला दिया जाता है किन्तु दोनों में अन्तर है। चेतना, जो विचार, संवेदन व अनुभव का बदलता हुआ तत्व है. चेतन आत्मा से और असे भिन्न है, जो हमारी चेतना का केन्द्र है, Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध आत्म-अनुभानि का केन्द्र है और जिसे केवल आत्मनिरीक्षण द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। वास्तव में, चेतन आत्मा भी व्यक्तित्व की अंतिम इकाई नहीं है। जब हम सो जाते हैं या अचेतन अवस्था में होते हैं तो यह चैतन आत्मा लुप्त हो गयी प्रतीत होती है और जागृतावस्था में यह भी सक्रिय प्रतीत होती है। यह तथ्य वस बात का परिचायक है कि इस नौतन आत्मा से परे, एक स्थायी केन्द्रका अस्तित्व है। यह उच्च आत्मा सिगरा आत्मा की शारीरिक और मानसिक स्थितियों से अप्रभावित रहती है, क्तिगत चेतना को इस उच्च आमा का मात्र प्रतिबिम्ध माना जा सकता है। मानधीय व्यक्तित्व में इस उच्च आत्मा का स्थान सर्जनात्मक है, क्योंकि ध्यागतत्व की आध्यात्मिका उपलब्धियों का यह माध्यम रेखाचित्र में जो सामूहिक अवचेतन का चित्र दिखाया गया है उसका अभिप्राय विभाजन नहीं है । सीमाहीनता के अर्थ में इनका पटार किया जाता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि दो आत्माओं का अस्तित्व किसी व्यक्तित्व में होता है जो अपने अपने क्षेत्र में स्थित है । आत्मा एक है जो सवेतनता और आत्मानुभूति की विभिन्न माओं को प्रकाशित करती है। व्यक्तिगत आत्मा का वास्तविक आत्मा से अपरिचय हीत की अनुभूति का कारण है। व्यक्तित्व की पूर्णता इसी वास्ततिक आत्मा की उपलब्धि पर निर्भर है। प्रश्न यही है कि कैसे इस आतरिक एकता की पूर्णता तथा सामंजस्यपूर्ण आत्म-अनुभूति को प्राप्त किया जाये। भारतीय दर्शन में इसकी विधि योग, समाधि, ध्यान, धारण और आत्म 'निरीक्षण बताई गयी है। पाचात्य मनोविज्ञान मैं इस समस्या को प्रयोगात्मक तरीके से हाल किया गया | सका अभिप्राय यह ही है कि मानव के इस दाय घेतन पहलू के अतिरिक्त एक उच्चतर Irrer का अस्तित्व मानना होगा कि अती Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्द्रिय बोध क्षमता प्राप्त है । प्राचीन धियों और मुनियों ने मानव आत्मा के महत् रूप की खोज की। उन्होंने स्पष्ट किया कि मानव अपरिमेय शक्ति का पुंज है किन्तु उसे अपने इस महल रूप का ज्ञान आत्मनिरीक्षण से ही मिल सकता है । अदृष्टि ही उसे यह ज्ञान करा सकती है । एक तरह से आत्मज्ञान को भारतीय दर्शन में सामान्य रूप से मुक्ति का साधन माना गया क्योंकि इनके मत में आत्मा इस विश्व का दर्पण है और जगत सूक्ष्म रूप में आत्मा में विमान है। वेदों में सृष्टि को मनोमय कहने का यही अभिप्राय प्रतीत होता है । आत्मा यथार्थ रूप में विश्वात्मा है, इसी सत्य और क्षमता का ज्ञान प्राप्त कर लेना ही मुक्ति और पूर्णता है । महापुरुषों द्वारा आमा केबल दिव्य रूप के साक्षात्कार की झलक यत्र-तत्र वेदों और उपनिषदों में मिलती है । nature में वर्णन आया है कि नचिकेता यम से पर माँगता है उसे आत्मतत्व का पूर्ण ज्ञान हो 123 पर उपनिषद में कथा आती है जहाँ यावलक्य अपनी पत्नी मैत्रेयी को उपदेश देते हुए कहते हैं कि यह आत्मा ही देखने, सुनने, मनन करने और संकल्पपूर्वक ध्यान करने के योग्य है । आत्मा के ही दर्शन, श्रवण, मनन से सारा रहस्य कात हो जाता है 1 24 इसी प्रकार मुण्डकोपनिषद में eer गया है कि दोघहीन संघमी लोग जिसे देखते हैं वह ज्योर्तिमय निर्मल आत्मा इसी शरीर के भीतर विमान है । इसका अभिप्राय है कि हम अपने अन्दर विशुद्र स्वस्य को देख सकते हैं। 25 इसी कारण प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने मानव आत्मा की सम्पूर्ण अन्तर्निहित क्षमताओं के पूर्ण उपयोग के लिए साधन खोजने के प्रयास किये | इसलिए भारतीय दर्शन की विधि भी आत्मनिरीक्षण, अन्नदृष्टि, ध्यान, aarfe और योग है । जैन दर्शन के अनुसार, चेतन आत्मा के सहज रवरूप का पूर्ण प्रकाशन जो सम्पूर्ण विलय से होता है अतीन्द्रिय और शुद्ध अनुभूति कहलाता है। 26 आत्मा के स्वप्रकाशित रूप का डी प्रकाशान अशी न्द्रिय-अनुभूति है। इसे ही केवलज्ञान Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जाता है। यह सभी ऐन्द्रिय अनुभूतियों से स्वतंत्र और सब वस्तुओं को जानने वाला है 127 जैन दर्शन में, अतीन्द्रियान की विस्त रूप से चर्चा की गयी है। आत्मा के स्वरूप और स्वभाव के अपर किये विश्लेग के आधार पर यह स्पट हो चुका है कि बान आत्मा का स्वरूप दी है, आत्मा और सत्ता में एकरपता है। अत: ITrा और य में भी एकरूपता है अर्थात आत्मा ता भी है और य भी । दूसरे शब्दों में, आत्मा और ज्ञान में अभिन्नता है । वस्तुतः जब ऐन्द्रिय साधनों द्वारा आन प्राप्त किया जाता है तो इस प्रकार जात पदार्थ में केय पदार्थ से भिन्नता होनी सभा है, क्योंकि यह ात पदार्थ शन्द्रिय, मन आदि बाहा उपकरणों के अधीन होगा । धाप में, शेय पदार्थ जानने की प्रनिया के दौरान इन्द्रिय और मन के सम्बन्ध के कारण उनसे प्रभावित हो जाता है, किन्तु अतीन्द्रिय माध्यमों बारा प्राप्त ज्ञान में जहा इन्द्रिय और मन की मध्यस्थता नहीं होती, eal trar और य के बीच कोई व्यवधान न होने के कारणETET और नेय में सीधा संबंध स्थापित होता है, अन्य शब्दों में, वहाँ जाता और देय में कोई भिन्नत नहीं होती 129 अतीन्द्रिय धान मैं वस्तु अपने यथार्थ रूप में शान में उपस्थित होती है क्योंकि वह पतु और मान मैं अपरोक्षinr का संबंध है। इन्द्रिय और मन की सीमितता ही पास्तविक और मात वस्तु में भेट का कारण है। जैन दार्शनिकों का मत है कि यदि अन्य दर्शनों की तरह प्रत्यक्ष का लक्षण मान लिया जाये, जो इन्द्रियादि बाह्य साधनों की सहायता से उत्पन्न होता है, तो उस frufir में Hanा की सित सम्म ही नहीं होगी, क्योंकि सर्व का अतीन्यि ज्ञान इन्द्रियों से उत्पन्न नहीं होता। सर्वक्षता प्रत्यक्षबान के बिना संभव ही नहीं। कुदकुद का कथन है कि दूसरे दाशीनिक जोइन्द्रियजन्य कानों को प्रत्यक्ष मानते हैं किन्तु थे प्रत्यक्षा से क हो सकते हैं क्योंकि शन्द्रियों तो अनामरूप होने से परदस्य है। अत: वन्द्रियों द्वारा वस्तु का प्रत्यक्षा नहीं हो Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता । *पर" से होने वाले ज्ञान को परोक्ष कहते हैं 129 यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि बाद में चलकर कुछ जैन दार्शनिकों विशेषकर अकलंक, सिद्धसेन और मानन्दिने, प्रत्यक्ष का सांव्यवहारिक और पारमार्थिक दो रूपों में विभाजन कर दिया 130 साध्यवहारिक प्रत्यक्ष का अर्थ है ऐन्द्रिय प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष का अर्थ है अतीन्द्रिय ज्ञान । प्रत्यक्ष का इन दो रूपों में विभाजन स्पष्टत: जैन दर्शन का उस प्रचलित परम्परा से सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न है जहा प्रत्यक्ष का अर्थ "ऐन्द्रिय स्था* माना गया । जैन दर्शन के मौलिक विचारों के अनुसार, प्रत्यक्ष का अर्थ अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ही है । "प्रत्यदा" शब्द का प्रयोग प्रारंभ में इन्द्रियों द्वारा साक्षात्कार के लिये होता था किन्तु शीघ्र ही उसके अन्तर्गत वह समस्त ज्ञान भी आ गया जो तुरन्त ग्रहण हो जाता है । भले ही उसमें इन्द्रियों की सहायता की आवश्यकता .31 न भी हुई हो । इसी अन्तदृष्टि को वर्गा' ने सहजबोध के रूप में माना । वर्गT के मत में सहजबोध उसका प्रत्यक्ष है जो अदृश्य है किन्तु फिर भी वास्तविक है । इसे डी कॉट ने भी अपनी दूसरी और तीसरी आलोचनाओं में संकल्पेका की अनिवार्यता में विश्वास के रूप में माना तथा इस विश्वास को अनुभूति की आवश्यकara पर आधारित किया । प्रत्यक्ष के तीन प्रकार : जैन दर्शन में अतीन्द्रिय ज्ञान के तीन प्रकार माने गये हैं- अपन मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान 132 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधि शान समान है जो इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मासिक पदार्थों को जानता है। यह ज्ञान द्रव्य और दो की मयादा रहित है। द्रव्य-क्षेत्र काल और भाव का आश्रय लेकर मूर्तिक पदार्थों को प्रत्यक्ष जानने वाले ज्ञान विशेष को अबान कहा गया है। इस अवधिमान के भाव-गुत्थर और गुण-प्रत्यय ये दो भेद होते हैं। जो अवधिज्ञान जन्मसिद्ध होता है, जिसकी प्राप्ति के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता, वह अवधिान भय-प्रत्यय अवधिज्ञान कहा गया है। जो अवधिमान जन्म लेने के बाद विविध प्रकार है। प्रयत्नों के बाल से जैसे लप, व्रत आदि से प्रामा किया जाता है, पान गुण-प्रत्यय अवधिज्ञान कहलाता. यापि अवधिशान उत्पन्न होने के लिए शानावरणीय कामों का आयोपशम आवश्यक है किन्तु इस समानता के होने पर भी जीपों में 5 ऐसी जाति होती है, जिमों जन्म लेते ही अवधिज्ञान के अनुसार करो का क्षयोपशम हो जाता है और इस प्रकार सहज रूप में ही अवमान की उपलबिध हो जाती है, किन्तु कुछ जातियों में जन्म से ही ऐसा नहीं हो जाता प्रत्युत उन्हें योपशम के लिए प्रयत्न करने पड़ते हैं। यह अन्तर ही भव-प्रत्यय और गुग-प्रत्यय अवधिज्ञान में भेद का आधार है। मन:पयर्यज्ञानावरण का होने पर अपने और दूसरे के मन की अपेक्षा से होने वाला ज्ञान मनापर्यय शान है। दूसरे के मनोगत अर्थ को जानना मनःपट यहाँ पर एक का उठाई जा सकती है कि मतिज्ञान भी तो जन : संबंध से होता है, फिर भतिज्ञान को ऐन्द्रिय परोक्षज्ञान के अन्तर्गत क्यों रखा गया' जैनाचार्यों ने इसका उल्लर देते हुए कहा कि जिस प्रकार आकाश में चन्द्रमा को देखने में आकाश की साधारण अपेक्षा होती है, उसी तरह मनः पर्यय Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान दूसरे मन में अभास्थित अर्थ को जानता है, इतनी मात्र यहा मन की अपेक्षा होती है, जबकि मतिज्ञान में तो मन कारक होता हे 136 मनःपर्यशान के जुमति और विपुलमाति ये दो भेद हैं। माति स्थल ज्ञान है और पिपुलमाक्ति सूक्ष्म ज्ञान ! अतर विपुलमति मनःपर्यय बान "जुमति की अपेक्षा अfu विशुध है। दोनों में एक अन्तर और भी है, धनुमति हान उत्पन्न होने के बाद चला भी जाता है किन्तु विपुलमति ज्ञान बना रहा है। अब एक पान यह Torr fक अवधिनान और मनःपय ज्ञान में मेत का आधार क्या है, क्योंकि दोनों ही ऐन्द्रियमन निरपैदा है। का उत्तर यही हो सकता है कि अवशान सीधे मूर्तिक पदार्थ को जानता है किन्तु मनःपर्यय शान मन की पयायों मारा ही मुकि पदाथों को जानता है, सीधे तौर से थी। प्राणी चिन्तन मन से करता है और इस चिन्तन के दौरान चिन्तनीय वस्तु के भेद के अनुसार भिन्न-भिन्न आकृतियों को यह चिन्तनशील मन धारण कर लेता है। यह आकृतिया ही मन की पयाय और उन मानसिक आकृतियों को सातात जानने वाला मान मनःपर्ययशान है । ज्ञान से सिर्फ चिनानशील मन ही आकृतिया ही जानी जाती हैं, 'चिन्तनीय वस्तुयें नहीं जानी जा सकती । तुर्षे तो बाद में अनुमान से जानी जा सकती है।38 अकर्मक इससे असहमति प्रकट करते हैं। उनका कहना है कि मनः पर्ययज्ञान दूसरों के विचारों की विषयवस्तु को साक्षात् जान लेता है, ऐसी वस्तुओं का ज्ञान अनुमान से नहीं माना जा सकता। यह प्रत्यक्ष शान है।३१ केवलशान की चचा भारतीय-दर्शन के प्रायः सभी सम्पदायों में किसी किसी रूप में की गयी है। जैन दर्शन के अनुसार, समस्त शानावरणों के समूल नाश होने पर प्रकट होने वाला निरावरण शान केवलशान है। यह शान मात्र Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापेक्ष होता है तथा चेतनाशक्ति के सम्पूर्ण विकास के समय प्रकट होता है । कोई भी वस्तु या भाव ऐसा नहीं है जो इसके द्वारा न जाना जा सके । केवलज्ञान भों और पार्थी को जानने में सक्षम है 140 अवधिज्ञान की प्रवृत्ति सर्वपारहित सिर्फ मूर्त द्रव्यों में होती है । मन:पर्ययज्ञान की प्रवृत्ति उस मूर्त द्रव्य के सर्वहित अनंतवे भाग में होती है । केवलज्ञान की प्रवृत्ति सभी द्रव्यों और सभी पयायों में होती है । इस प्रकार जैनदर्शन में त्रिकाल, त्रिलोकवर्ती समस्त प्रोयों के प्रत्यक्षदर्शी के अर्थ में केवलज्ञान का प्रयोग किया गया है। इसी अर्थ में जैनदर्शन में कहा गया कि जो एक को जानता है वह सब को जानता है । जैनो का विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति में केवलज्ञानी होने की शक्ति है कि ज्ञान आत्मा का स्वभाव ही है, किन्तु आवरणों के कारण आत्मा का यह स्वभाव धानक जाता है 141 जतः तार्किक रूप से यह निष्कर्ष निकलता है कि एक स्थिति ऐसी संभव है कि जब आपरणों का विनाश हो जाये और उस स्थिति में स्वाभाविक रूप से आत्मा का स्वभाव ज्ञान प्रकट हो जाये । जैनों के अनुसार आवरण व्यक्ति के कमोंके परिणाम होते है । 42 अतः कमों के क्षय के साथ आवरणों का विनाश होना भी अवश्यम्भावी है। जैसा कि हेमचन्द्र का तर्क है कि यदि ज्ञान में मात्राभेद माना जाता है तो इसका अभिप्राय है कि पूर्णज्ञान भी संभव है जिससे निष्कर्ष निकलता है कि ऐसे व्यक्ति का अस्तित्व संभव है जिसे सभी वस्तुओं का पूर्ण ज्ञान होता है । दूसरे शब्दों में, केवलान संभव है 143 हेमचन्द्र यह भी कहते हैं कि ज्ञान में विकास की प्रक्रिया होती है तो तार्किक दृष्टि से इस विकास की प्रक्रिया का कहीं अंत भी होना चाहिए । प्रक्रिया का अंत नहीं होगा जहा ज्ञान पूर्ण और अनंत कहा जा सके । उ यह स्थिति Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौशलज्ञान की नियति है 144 अनुयोगदार मैं वीरसेन ने इसी तर्क प्रक्रिया के अनुसार केवलज्ञान की सिद्धि के लिए कई युपिया दी है, जो उनकी मौलिक उपलEि फटी जा सकती है। प्रथम युपित के अनुसार आत्मा ज्ञान स्वरूप है तथा उसके प्रतिमा को का क्षय होना भी संभव है। प्रतिक कर्म के नष्ट हो जाने पर ज्ञान प्राप्त हो जाना ज्ञान विभाव वाली आत्मा का अनिवार्य है। जैसे अग्नि में जमाने की शक्ति हो और प्रति घट गये हों तो पट दाहक पदाधों को यों नही जलायेगी दूसरी युक्ति में वीरसेन ने पौधलझान को स्वर्गसिद्ध बताया है। फेवलज्ञान और मतिनादि में अजय-अवधिभाव की कल्पना करके उन्होंने फटr, शिा प्रकार घट-पट आदि अवयवी पदाधों का साध्यवहारिक प्रत्यक्ष राम अवयवों को देखकर ही होता है, उसके अन्दर और बाहर के सम्पूर्ण अवयवों को प्रत्यक्षा करना हम लोगों के लिए संभव नहीं है। उसी तरह केवलज्ञान सी मी का प्रत्यक्षा भी उसके काड मतितानादि अवयवों के स्वयेदन प्रत्यक्षा के मारा होता केवलज्ञान के दि. 'य में कुंदगेंद ने कुछ भिन्न विचार प्रस्तुत किया । उनका कहना है कि क्षेतालज्ञान को जो समरत पदार्थों को जानने वाला कहा गया है पल पल व्याहारमय से ही कहा जा सकता है, क्योंकि निश्चय-नय ले तो देवलज्ञान आत्माभिमुख होता है, अपने स्व-प में निमग्न होता है 146 ___एक अन्यस्थान पर उन्होंने कहा है, जो अनंत पर्यायवाले एक द्रव्य को नहीं जानता TE Aधको कैसे जानता है और जो सबको नहीं जानता यह अनत । पाथवाले एक द्रव्य को कैसे जान सकता है#7 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस बात को इस प्रकार से और स्पष्ट किया जा सकता है, जो मनुष्य चटज्ञान के द्वारा पट को जानता है यह साथ ही साथ चटकान के स्वरूप का भी संवेदन कर ही लेता है, क्योंकि ज्ञान स्वप्रकाशी होता है । इस प्रकार जो व्यक्ति घट को जानने की शक्ति रखने वाले पटान का स्वल्प यथावत् जान लेता है वह घट को जानने के साथ ही अनंतयों को जानने की शक्ति रखने वाले पूर्णहान स्वरूप आत्मा को जान लेता है तथा इस शक्तियों के उपयोगभूत अनंत पदार्थों को जान लेता है। 48 49 कुंदकुंद कहते हैं, ज्ञान आत्मा का अनिवार्य स्वभाव है । व्यवहार किन्तु निश्चयदृष्टि से यह सबसे 50 हृदि ते केवली सम्पूर्ण जगत को जानता है । free faर्फ अपनी आत्मा को जानता है | 51 चेतना - परामनोविज्ञान एवं चैन मत : • vide fards, cats, noạch grey sung berharian menje dette vede यह चर्चा त अपूर्ण रहती है जब तक इस अतीन्द्रिय बोधमता पर पाश्चात्य विचारधारा का भी कुछ उल्लेख न किया जाये । भौतिकवादी, वस्तुवादी और प्रत्यवादी कहे जाने वाले पापचात्य जगत में आज भौतिकवाद, वत्तुवाद और प्रत्यक्षवाद का मूल्यांकन किया जा रहा है। इन्द्रिय-मन सीमित भौतिकवादी दुष्टिकोण और भौतिक विज्ञान की सर्वोच्चता में आत्यन्तिक आस्था दोनों ही पीछे छूट रहे हैं। विज्ञान का अनिधार्यता का सिद्धान्त Theory of Indeterminism उस दिशा की ओर संकेत करता है, जहां कुछ भी निश्चितरूपसे भविष्यवाणी नहीं की जा सकती । विज्ञान केत्र में आइन्स्टीन, हेनरी, पियत, मैक्स प्लैंक लेनार्ड, हाइजनबर्ग आदि कुछ नाम ऐसे हैं जिनके निकों ने एक ऐसी स्थिति को जन्म दिया है जहाँ निर्णय भी एक नियम बन गया है। प्रिन्सटन युनिवर्सिटी के जान व्हीलर ने कहा कि ब्रहमोडका "होना" सिर्फ तटस्थ भाव से देखते रहने के अलावा और कोई चारा नहीं, तो संभवतः वह ऐसे व्यक्ति की Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवस्था है जो जानता तो है परन्तु जिसे या तो उसके 'विष्य में कुछ बताना नहीं चाहिये या फिर यह कि वह धाता नहीं पाता । आज का वैज्ञानिक सूप्ति की अणिमा से ही आतंपित होकर रहस्य की भाषा बोलने के लिए विवश है। उसकी स्थिति छांदोग्य उपानिबद के प्रवेतकेतु की याद दिलाती है जिसके गुर आणि ने उससे वटा के फल के दाने तोड़कर कहा था, श्वेतकेतु यह अगिमा ही सब कुछ है, तू भी बसी का प्रतिस्प है। कहीं किसी गहरे अपह स्तर पर प्रहमाई का एक एक खंड पूर्ण है 152 मूक स्पष्ट है कि भौतिक विज्ञान जिस ऐन्द्रिय प्रत्यक्षा पर आधारित है, वह भौतिक विज्ञान भी अब तक पदार्थ को वास्तविक स्वरूप को नहीं जान सकता है। पदार्थों का सूक्ष्म विलेजण करते करते वै पदार्थों से परमागुणों और परमाणुणों से वित तरंगों तक पहुंचे हैं फिर भी पदार्थ के स्म तक नहीं पहुंच पाये हैं। चैन दर्शन के अनुसार तो स्वरूप को ऐन्द्रिय ज्ञान ATT जाना ही नहीं जा सकता। मात्र ऐन्द्रिय ज्ञान के आधार पर वस्तु के यथा रुप को कभी भी नहीं जाना जा सकता । पही कारण है कि पाश्चात्य देशानिक आज निरन्तर चेतना के नवीन आयामों की खोजकर रहे हैं। मनोविमान, परामनोविज्ञान अतीन्द्रिय के रहस्यों को सुलझाने का प्रयत्न कर रहा है। पाचात्य जगत में इस अतीन्द्रिप-बोध क्षमता पर शोध करने वाले विद्वानों ने त बोम-दमिता के लिए कई शब्दों का प्रयोग किया। प्रो० रिचटे ने किषधी तिस | crypure.sis शाद इसके लिए 'दिया तो प्रो0 मार्श ने टेलीपैथी ! Tela.pbihy | पद दिया | प्रो० सहन Hair TTC a second sight te were arribar a clairvoyance Frente का प्रयोग किया। टेलीपैथी का अर्थ है ऐन्द्रिय संवेदनों के अतिरिक्त, अन्य साधनों Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारा एक मन से दूसरे मन का ज्ञान संभव है। कोयरवॉयस का अर्थ है परत का ज्ञान या प्रत्या अनुभव रेन्द्रिय उपकरणों के बिना भविष्य में, दूर में, सगीप में हो सकता है। इसके लिए बाट ट्रांसफर ! Thought Frankee ! और माइंड रीडिंग I Maid. Reocdrugs शब्दों का भी प्रयोग किया गया, जिसका अर्थ है पति दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क में क्या है, जो प्रत्यक्षा से जान सकारा है। दूरी का प्रश्न यहा गौण हो जाता है । परामनोविज्ञान पर शोध करने वालों में, जिनमें कुछ प्रयास निक और मनोवैज्ञानिक भी सम्मिलित हैं, इस बात पर सहमत हैं कि Enfirm मैं अतीन्द्रिय बोध-मता है। मनुष्य में सवेदन का एक आश्चर्यजनक विभाग है, जो सूचनायें लाता है जिन्हें सामान्य इन्द्रियों TT प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतीन्द्रिय अनुभा का यह विभाग देश और काल से सीमित नहीं है। काया के मात .. में पाट-ट्रांसफर | Theusine Transfer | के में काफी वजनी संभावनायें हैं। जैन-दर्शन के अतीन्द्रिय ज्ञान - प्रकारों से विवेचन दो उपरात art पारागनोवि.नो अतीन्द्रियमान के भेदों से जैन दर्शन के अतीन्द्रिशमान की तुलना की जाये तो बात अधिक स्पष्ट होगी। परामनोविज्ञान TT टेलीपैथी और लेपरवायत ये अतीन्द्रिय बोध के जो दो तय माने गये हैं और उनकी जिस प्रकार से व्याख्या, मी गयी उनसे स्ट हो आतr है कि ये दोनों कमाः जैन दर्शन में मान्य मनःपर्यय के निचार और भावनाओं का दूरवर्ती या निकटपती दूसरे मारक क "पिना परिचित न्द्रिय साधनों के स्वःतापूर्वक संप्रेषण है। यह एक मास्ति भी विचार अनुभवों और भावनाओं का दूसरे मास्तिक से संबंध स्थापित होना है, जो रेन्द्रिय साधनों के बिना स्थापित होता है। टेलीपैथी सहज और प्रायोगिक दोनों रूपों में होती Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । सहज टेलीपैथी वह है जहाँ असाधारण विचारों और भावनाओं का अकस्मात् बिना किसी पूर्व आशा के एकाएक ग्रहण होता है । जहाँ पूर्ण नियंत्रित परिस्थिति मैं सामान्य चेतन स्थिति में समीप में या दूर में टेलीपैथी पर प्रयोग किये गये, काल्पनिक कायें, भावनायें, अनुभव, विचार सफतापूर्वक एक मस्तिष्क रा प्रेषित और दूसरे मस्तिष्क ारा ग्रहण किये गये, वह प्रायोगिक टेलीपैथी है 154 अन्यत्र यदि पात्रचात्य अतीन्द्रियगोधकताओं के साँझको मैट्री 1 Psychometry $ नामक अतीन्द्रिय ज्ञान शाखा पर कुछ विचार किया जाये तो उसकी कुछ सीमा तक केवलज्ञान से समानता प्रतीत होती है 155 तात्पर्य है कि अंतिम रूप में पदार्थ कोई ऐसी सरता है जो अपने हाय 'म से उच्च है, महान है । ऐन्द्रिय और गन के संबंध इससे स्थापित होने पर यह ऐन्द्रिय पदार्थ के स्व में उपस्थित होता है, पास्तविक पदार्थ के रूप में नहीं । पदार्थों के मूल रूप का वट जगत् इन्द्रियगन्य देशकाल के आयामों से परे है। संभवतः इसे ही फोटो ने "प्रत्ययों का जगत" और काटे ने "परमार्थ जगत" कहा था । अतीन्द्रिय ज्ञान देशकाल और वस्तु से सीमित नहीं है, यह वस्तुओं के उन गुणों को जानता है जो ऐन्द्रिय साधनों द्वारा नहीं जाने जा सकते । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I. प्रमाणमीमांसा, पृ0 18. 2. न्यायावतार, सिद्वर्षि की टीका, पृ0 25. 3. विपदः प्रत्यक्षाम् । प्रमाणगीमासा, 11-13. विषादः प्रत्यामिति ।। परीक्षामुख, 2.3, ५. न्यायचिनिश्चियातिधरण, पृ0 95. 5. न्यायविनिश्चय विवरण, 13, 6. वही, पृ० 98. 7. वही, पृ0 90. 8. प्रतिनियामिति परापेक्षा नितिः । "अणोति व्यापनोति जानाति" इति आक्ष आत्मा, प्राप्तायोपशाप: प्रक्षीणावरुणो परापेक्षा निवृत्तिा ता भवति । तत्वार्थवारिक भाग एक, 1.12-2 न्यागावतार, 1.4, १. प्रवरानसार, लोक ।, पंचास्तिकायसमयसार टीका, गाथा 48. न्यायधिनिश्चयविवरण, पृ० 95. 13. बट्टी, पृ0 98. 14. इन्द्रियनिन्द्रियानपेमाती तव्याभिवार साकारग्रहणं प्रत्ययाम् । तात्यार्थवाििक, भाग एक, 1.12-1. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. aet, 1.12-4-5. 16. acte, CO 73, # 74 17. ELTACTE. HULUMT THAT FETT, TCH TO TATE, gʻo MTTRACT, *T TOTYK fait, *To fco tanto, utenot YkT, 70. 18. You remember that the conflict of two mental frotora, which we roughly call the repressed unconscious and conscious, nominatag our life and that the resistence against the interpretation of dreams, the hall mark of the dream-censorship 1 none other them the repression. resistence, which keeps these two factors apart. New Introductory lectures on Psychoanalysis, Sigmund Freud, Translated by J.H. 3prott, Third artition. Nogarth press, London and the Institute of Psychoanalye sis, 1946, p. 26. 19. The sleeper has to dream because the nightly relaxation of mpression allows the upward thrust of the tramatic fixation to become active. Ibid. p. 44. 20. EINSTein's conception of science, P.S.C. Northrop Philosopher Scientist, edited by Paul Arthur Schilpp. Second dition, 1951, Tudor Publishing Company, New York, p. 400-402. 21. The process of dream work has given us our first glimpse into those proco88 which go on in our unconscious mental system and shows us that they are quite different from what we know about our conscious thought, Ibid, p. 27. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22. Psychoanalysis, * manual of principles and Techen Inues. Roberto Argaoguioli, Hobbs Dorman and Company, New York, 1965, p. 17. 23. कठोपनिषद, 3.1,2. 24. "आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तगो निप्रिया शितप्यः मै पात्मनो IT अरे दर्शनेन 'पणेन मत्या पिजानेनेद राई अदितम् ।* पृहदारण्योकपनिषद, 2.4-5. 25. अन्तःशारीरे ज्योतिर्मयो हि शुभो । यनिा गतमः शीणदोषाः ।। गुण्डकोपनिषद, 2.15 26. मेथकमलमा , पृ. 241. प्रवधनतार, 21, 22. 28. प्रमाणनय तत्वलोकालंकार, धादिदेवसूरि, II, 18. 29. प्रपचनसार, 57, 58. न्यायावतारया तिक, 1.27. भारतीय दर्शन, STO सर्वपतली राधाकृष्णन्, भाग दो, एलन एंड अनाचिन, पृष 552. 32. तत्वाधसून, 1, 12, 14. 33. पही, 1.27 30 सवानिति, I.21 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35. सर्वार्थसिद्धि, 1.23 तत्वार्था तक 1.23.2 37. सत्वार्यसूत्र 1.24, 25. garveftrar, 1.1-18. तत्वार्थपार्तिक, 1.23040 36. 38. 39. Lyfte 41. 42. 43. 44444 45. 46. 47. 40. 49. 50. 51. mar, 1.29 प्रमाणन तरलोकालंकार पू० 242. प्रमाणमीमांसा 1.1-15. वही, 1.1-16. वहीं, 11-16 षट्खंडागमकृति अनुयोग तरसूत्र, संपादक हीरालाल जैन, रोज शिताबराय, लक्ष्मी बिन्दू, अमरावती, पू0 118. नियमतार, 19 159. ध्रुवचनसार, 1.42 समयतार, 10, 11, 433. aet, 169. नियमसार, 168. वहीं, 158, 171. b. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54. FITT 53. An Introduction to l'rapoyehulogy. Ak Atikya. The Internationyl standart Publications, Banaras, 1957, Chap. I. 54. Jain view of life, Prof. T.H. Xalghatki. Kamatak University, Dharwar, 1961. 56. An Introrfuction to Parapsychology, p. 143-144. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ЧААР ? xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx опит - зEurg фареття - таба аfедия охоороо xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxҳ8 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय - अध्याय Mom que aco via en me espleta H İ VƏ MON केवलज्ञान - नवीन परिप्रेक्ष्य sho सर्वज्ञता का विवेचन भारतीय दर्शन के प्रायः सभी संप्रदायों में किसी न किसी रूप में अवश्य हुआ है और सामान्यतः भारतीय विचारधारा सर्वक्षता को संभव मानती है । इसी सर्वज्ञताको मुक्ति की स्थिति माना गया है। प्रश्न है कि सर्वज्ञता का अर्थ क्या है तथा क्या होना चाहिये' यह प्रश्न इसलिए उपस्थित होता है क्योंकि सर्वज्ञता, जो विशुद्ध दार्शनिक संप्रत्यय है, की व्याख्या धार्मिक संप्रत्यय के रूप में की जाती है। इस रूप में सर्वज्ञता को धामात्कारिक शक्की उपलब्धि के साथ जोड़ दिया जाता है । दार्शनिक संप्रत्यय के रूप में सर्वेक्षता को कोई ऐसी आगंतुक शक्ति नहीं माना जा सकता जो व्यक्ति को बाहर से उपलब्ध होती है, यह व्यक्ति की अंतःस्थ, आत्मिक शक्तियों, गुण और योग्यताओं का विकास है । वास्तव में, प्रायः सभी दार्शनिक संप्रदायों में सर्वज्ञता का यही अभिप्राय है; चाहे सांख्यदर्शन हो, चाहे वेदान्त दर्शन । यह प्रयोजन है, सर्वज्ञता को, जिस जैन दर्शन में केवल - ज्ञान कहा गया है, दार्शनिक संप्रत्यय के रूप में उपस्थित करना । वास्तव में, केवलज्ञान के विश्लेषण मैं अन्तनिहित विचार दार्शनिक संप्रत्यय के रूप में ही है। जैन दर्शन में पूर्णतम ज्ञान की उपलब्धि की स्थिति को, जो जीवों का स्वभाव ही है, केवलज्ञान कहा गया है । इसका अर्थ हुआ केवलज्ञान स्वभावज्ञान है जिसे सर्वगत, सर्वव्यापक, स्वयंभू, अतिसूक्ष्म, विशुद्ध, पूर्ण, प्रत्यक्ष आदि अनेक विशेषणों से जाना गया है ।। केवलज्ञान को स्वभावज्ञान कहने का अभिप्राय यह ही है कि यहां ज्ञान को आत्मा का आगंतुक नहीं स्वाभाविक गुण माना गया है । ज्ञान के बिना आत्मा की कल्पना नहीं की जा सकती । आत्मा का यह स्वाभाविक गुण ज्ञान जीवों के अपने कर्मो के कारण आवृत्त हो जाता है । यह ही कारण है, जैसा पिछले अध्याय में स्पष्ट हो चुका है, जैनदर्शन में "अ" शब्द का अर्थ आत्मा मानते हुए केवलज्ञान को year ज्ञान माना गया है। 2 अतः स्पष्ट है कि केवलज्ञान Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीन्द्रिय ज्ञान है। ज्ञान में इन्द्रिय आदि बाह्य साधनों की आवश्यकता तो तब पड़ती है जब ज्ञान जीप के अपने कर्मों के कारण आयुत्त रहता है। अतः स्पष्ट है कि समस्त ज्ञानाचरणों के समूल नाश हो जाने पर येतन आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप का पूर्ण प्रकाशन, उनकी अतीन्द्रिय और शुद्र अनुभूति ही फेवलज्ञान है। यह सभी प्रकार के रेन्द्रिय अनुभवों से स्वतन्त्र है। अकलक ने तर्क से इस बात को सिद्ध करने का प्रयास किया है। उनके अनुसार स्वभाव आत्मा के भानावरण कर्म के सर्वथा नष्ट हो जाने पर कोई शेय घोष नहीं रह जाता जो ज्ञान का 'विष्य न हो सके। कि ज्ञान स्वभावत: प्राप्यकारी है, अतः उसे समस्त पदार्थों का बोध होना ही चाहिए । ज्ञान में जानने का स्वभाव है और शेय में ज्ञान में प्रतिभा सित होने का । यदि कोई प्रतिबंधक कारण नहीं है तो ज्ञान में केय का प्रतिभास होना ही पाहिए । सबसे बड़ी बाधा झानावरण की थी तो जब वह समूल नष्ट हो गयी तो निवारण ज्ञान स्वय को जानेगा ही।" यद्यपि जैनदर्शन में कभी-अभी ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है जहा' केवलज्ञान को समस्त पदार्थों का ज्ञाता कहा गया है, जो केवलज्ञान के आत्माभि मुखी स्वरूप से संगत प्रतीत नहीं होता किन्तु अन्तिम विश्लेषण से सिद्ध होगा कि केवलज्ञान आत्माभिमुख ही है । कुंदकुंद ने केवलज्ञान को युगपत् अनंतपदार्थों को जानने वाला बताया है। चूंकि केवलज्ञान घेतनाशक्ति के सम्पूर्ण विकास के समय प्रकट होता है, इसलिए कोई भी वस्तु या भाव ऐसा नहीं है जो इसके द्वारा न जाना जा सके ।' उमास्वाति के मत में, केवलज्ञान में सभी दव्य अपनी सम्पूर्ण पयायों के सहित एक साथ आभासित होते हैं। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 54 कुंदकुंद का केवलज्ञान के विष्य में विशिष्ट दृष्टिकोण उनके निम्न कथन में व्यक्त होता है कि जो एक को जानता है वह सबको जानता है।' इस बात को स्पष्ट करते हुए कुदकुंद आगे कहते हैं कि जो अनन्त पयायोंवाले एक दृष्य को नहीं जानता पर सबको कैसे जान सकता है और जो सबको नहीं जान सकता यह अनन्त पयाय वाले एक द्रव्य को कैसे जान सकता है। इस विचार का कारण यह प्रतीत होता है कि जैन तर्कगन्थों के अनुसार प्रत्येक पदार्थ त्वरूप से सत् है और पररूप से असत् है । अत: किसी भी पदार्थ के यथावत् पूर्णज्ञान के लिए जिस प्रकार स्वरूपास्तित्व का ज्ञान आवश्यक है उसी प्रकार उस पदार्थ के अनन्त पररूपों के नास्तित्व का ज्ञान भी आवश्यक है । कहने का तात्पर्य है कि जो व्यक्ति वस्तु को जानने की शक्ति रखने वाले ज्ञान का स्वरूप यथावत् जान लेता है वह वस्तु को जानने के साथ ही अनन्त वस्तुओं को जानने की शक्ति रखने वाले पूर्णतान रूप आत्मा को जान लेता है। और इस शक्ति के उपयोगभूत अनन्त पदार्थों को भी जान लेता है। अकलंकदेव ने केवलज्ञान की सिद्धि के लिए ज्योतिशान की एक और युक्ति भी दी है। उनके मात में यदि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान न हो सके, तो सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों के भविष्य के विषय में और उनके गृहणकाल के विषय में भविष्यवाणी कैसे सम्भव हो सकती यह भविष्यवाणिया सत्य होती हैं, जो इस बात को सिद्ध करती हैं कि अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष सम्भा हैं। उनके अनुसार, 'जिस प्रकार इन्द्रियादि की सहायता के बिना ही सत्य-स्वप्न, भावी राज्यलाभ आदि का याच स्पष्ट ज्ञान कराता है तथा विषद है उसी तरह सर्वज्ञ का शान भाषी पदार्थों में संवादक और स्पष्ट होता है। चूंकि दो और आवरण आगन्तुक है, आत्मा के स्वभाव नहीं हैं। अत: प्रतिपक्षी साधनों से उसका समूल विनाश हो जाता है और तब निवारण और निदोष आत्मा का पूर्ण रूप स्पष्ट हो जाता Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 55 पीरसेन ने भसी से मिलती जुलती युक्ति दी है। उनके अनुसार एक तो आत्मा बानस्वरुप है दूसरे उसके प्रतिबन्धक कर्म हट जाते हैं। प्रतिबन्धक कमों के नष्ट हो जाने पर ज्ञान प्राप्त हो जाना ज्ञान-स्वभाववाली आत्मा का धर्म है। जैसे अग्नि में जलाने की शक्ति हो और प्रतिबन्धक हट गये हों तो वह बाहय को क्यों नहीं जलायेगी, अतः स्पष्ट है कि जैनदर्शन के अनुसार आत्मा के वास्तविक सत्य, सक्षज और पूर्णरूप को जान लेना ही केवलज्ञान हे 110 यही कारण है कि डा0 सर्व पल्ली राधाकृष्णन जैसे "विचारक कहते हैं कि जैनदर्शन का तर्क हमें एक तत्ववाद की और ले जाता है और हाँ तक स एकतावाद को स्वीकार नहीं करते थे अपने जीत के प्रति सजग नहीं। सापेक्षता का सिद्धान्त तार्किक ढंग से बिना निरपोलता को स्वीकार किये नहीं समझा जा सकता। उपरोक्त शिलेसे पार निक निकलता है कि केवलज्ञान का अभिप्राय धार्मिक चमत्कार नहीं है, बराका सुदरताकि और बौद्धिक आधार है। मेवलज्ञान की प्रती ताकि आधार और सहज धौद्धिक संप्रत्यय के रूप में प्रतिष्ठित 'किया जाना है। बौलिक आधार के लिए कोपलझान को एक सुन्दर मानवीय आकाer के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। इस रूप में विलशान को असीम मानवीय भानगता के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। बालज्ञान का शन्तिनिहित आशय यह ही हो सकता है कि जगत मैं ऐसा कुछ भी नहीं है जो मानव-आत्मा के लिए ओपन हो सके | यह मानवीय आत्मा की शानक्षमता में आस्था है। यह वही आस्था है जो व्यक्ति को निरन्तर नवीन खोजों की और प्रेरित करती रहती है। इस रूप में केवलज्ञान स्वाभाविक मानवीय अभिवृत्ति है। जिस प्रकार काट ने मान के सुखी रहने के लिए ईश्वर की पूर्वकल्पना आवश्यक मानी थी उसी प्रकार आशावादी और निरन्तर प्रगति की ओर अग्रता जगात के लिए केवलज्ञान के रूप में आत्मा की बानात्मक शक्ति मैं आस्था की पूर्वकल्पना अनिवार्य है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '.56 यहाँ पर कुंदकुंद के एक पूर्व उल्लिखित कधन पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है, उन्होंने कहा था कि जो एक को जानता है वह सबको जानता है। उनके कथन का आशय था जो व्यक्ति वस्तु को जानने की शक्ति रखने वाले बान का स्वरूप यथावत् जान लेता है, वह वस्तु को जानने के साथ ही: अनन्त वस्तुओं को जानने की शक्ति रखने वाले पूर्ण ज्ञान स्वरूप आत्मा को जान लेता है और स शाक्ति के उपयोगभात अनना पदायों को भी जान लेता है 112 इस कथन की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि व्यक्ति द्वारा अपनी आत्मा को जान लेना अथात उस आत्मा को जान लेना जो अनन्तज्ञानमय है, केवलज्ञानी होना है। इसका अभिप्राय है आत्मा के समय की खोज ही केवलज्ञान है। पाश्चात्य जगत में सर्वप्रथम सुकरात ऐसे दार्शनिक थे जिन्होंने यह बताया कि मानव के अन्दर एक आमा है जो सामान्य जागरितापस्था की बुद्धि नैतिक चरित्र का आधार है - और यह मानव की सबसे अधिक महत्वपूर्ण वस्तु है तथा मानव को उसका afa से अधिक उपयोग करना चाहिये । अत: स्पष्ट है कि आत्म-साक्षात्कार और आत्मानुभूति ही केवलज्ञान का साधक उपयुक्त अर्थ हो सकता है। आत्मानुभति ही सधी स्मतन्त्रता है। मानव प्रकृति पर 'विजय प्राप्त कर सकता है क्योंकि उसके पास प्रकृति से महात् कुछ है। इसलिए यह श्रेष्ठ है। मानव की उपलब्धि इस तथ्य की परिचायक है कि मानव चेतना कुछ भी प्राप्त कर सकने में सक्षम है। जैनदर्शन की या कहा जाये भारतीय दर्शन की मानवीय चेतना की शक्तिय में आस्था है। भारतीय दार्शनिकों ने मानवीय व्यक्तित्व में अनन्त विकास की सम्भावनायें मानी | आत्मा की उच्चतम अवस्था इन्हीं मानवीय गुणों और शाक्तियों के विकास की उच्चतम अवस्था है। आत्मानुभूति का अर्थ है इन्हीं अन्तनिहित क्षमताओं का पूर्ण प्रकाशन | जब व्यक्ति इस अन्तदृष्टि को प्राप्त कर लेता है तो वह जान लेता है कि arrमा द्वारा स्थूल जगत पर नियंत्रण रखमा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है। इसका तात्पर्य यह ही है कि बानाकार arrभा के स्वरूप को पाने 'बिना शेयों का मान सम्भव नहीं है। नियमसार में दुदकुंद भी इसी प्रकार का 'विद्यार करते हैं। वे कहते हैं कि धनवान को किस समस्त पदापों को जानने वाला कहा गया है वह केवल व्यवहार नय से ही कहा जा सकता है क्योंकि निश्यय नय से तो केवMATन आrमाभिमुख होता है। अपने स्वस्प में निमग्न होता है। यह आत्मा की अनुभूति हायितगत चैतन आत्मा या "मैं" की अनुभूति नहीं है। यह व्यक्तित्व के संश्लेषणात्मक आध्यात्मिक केन्द्र का HTETकार है । यह अनुभूति आत्मा के उच्चार पहलुओं को बनाती है, इस उच्च स्तर पर पहुँची आमा विस्तृत अर्थ में आध्यात्मिक है, और जब सी उच्च चेतना के कुछ तत्व सामान्य चेतना के क्षेत्र में आते हैं तब वह व्यक्ति में प्रेरणा तथा रचनात्म-- कता की अनुभूति उत्पन्न करते हैं।16 कुंदकुद "समयतार' में स्पष्ट करते हैं, "यह मेरे नहीं हैं। मैं प्रकाश हूँ, जो आनारिक आत्मा और बाह्य जगत दोनों को प्रकाशित करता हूँ क्योंकि मैं सापकाक चैतन्य हूँ।17 जब प्यापित अपने स्थायित्व के इस उच्चतर rateीय केन्द्र को जान लेता है तो वह एक सामंजस्यपूर्ण, सुव्यवस्थित और एकीत व्यभित्व का निमांग करने में समर्थ हो जाता है। अतः फेवलज्ञान का अर्थ है व्यक्तिगत घेतना का उच्चार येतना में समाये । इसका तात्पर्य दो स्वतन्त्र और अलग आत्माओं की सत्ता नहीं है। वस्तुतः आत्मा एक है और वह सचेतनता की विविध मात्राओं को प्रकाशित करती है। सम्मुख लक्ष्य पर ही है कि कैसे मानव अपनी इस सामंजस्यपूर्ण एकता और पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। इसके लिए आवश्यक है सची आत्मा की अनुभूति और इसको केन्द्र मानकर इसके चारों और अपने Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ नवीन व्यक्तित्व की रचना और उसकी पुनर्गठन 118 अन्तष्टि वह सम्पूर्ण शाक्तियों के उपयोग से प्राप्त कर सकते हैं। प्रश्न केवल विचारों का नहीं है, यह तो ज्ञान को परिवर्तित करने की अस्तित्व के नवीनीकरण की प्रक्रिया है । यह एक दृष्टि है सचेतनता है और असीम स्वतन्त्रता में मुक्ति है । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 सन्दर्भ और टिप्पणी प्रयचनसार, पलोक 16. 2. वही, लोक 57,58. अनुयोगमारसूत्र, संपादक हीरालाल जैन, सेठ शिलाबराय, लक्ष्मी बिन्द, अमरावती, पू० 14. 3. ज्ञस्यावरणविनोद यं किमवशिष्यते । अपाप्यकारिणतस्मात् सनाथांवलोकनम् ।। न्यायविनिश्चय विधारण, 3.79 सक्का लियामिदरं जाणादि जुग सलमदोसव्यं । अन विचित विसमं तं वागं स्वाइंघमणिय ।। प्रवधनसार, 1.47 5. सद्रव्यपयारी केवलस्य, तत्यान, 1.30 6. कोण विजाणादि जुग अत्यो कालिकेतिवणो । बाद तस्स तक्क सज्ज्जयं दव्यमेकं च ।। प्रवचनसार, 142 মা শাসকাঠি না। वापिणाषादि बदि जुगर्व कसो सब्याणि जाणादि ।। घही, 149 धीरयन्सपरोदय न घेत्ता कुतः पुनः । ज्योतिज्ञाननिसंवाद शुताच्येत्साधनान्तरम् ।। न्यायपिनिश्चय लोग 414. १. ये कथमः स्यादसति प्रतिबंधारि । दावेऽतिदाहिको न स्यादति प्रतिबंधारि ।। आदागम कृति अनुयोगद्वार सूत्र, पू0 118. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो पस्सदि अध्याण अवापुदळ अभविसेसम् । अपदेसप्तमज् पासादि जिणसासण सव्वं ।। नियम्सार, पलोक 15. भारतीय दर्शन, भाग एक समयसार, लोक, 10, 11,433. पूर्व और पश्चिम कुछ विचार, डा0 राधाकृष्णन, पृ0 60. वही, पू0 138 समयसार, लोक 6.7. नियमसार, श्लोक, 158. Psychosynthesis, A manual of Principles and Techeniques, Chapter समयसार, लोक 3,7. Psichoanalysis, A manual of Principles and rechentorues. Chapt. 2. पूर्व और पश्चिम कुछ विधार, पृ0 23. 19. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 61 xxxxxxxxxxxx xxxxx xxxxxxxxxxxxxxxxx aeri - BET Сен на xxxxxxxxxx чете, что xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार्थ अध्याय परोभ-प्रमाण जैन दार्शनिकों का अतीन्द्रिय भान का विश्लेषा, जिसे वे प्रत्यक्ष भान' कहते हैं, का जहा तक संबंध है, पर जैन-दशी को अध्यारमबाद की ओर ले जाता हैं क्योंकि एक तरफ तो अतीन्द्रिय धान को स्वभाव-जान के रूप में मान्यता देते हैं तथा दूसरी तरफ यहा इन्द्रियों को माध्यम के रूप में अस्वीकार करते हुये भान को आत्मवेदी मानते हैं। इसका तात्पर्य है कि यह य के रूप में भौतिक वस्तु के अस्तित्व का प्रश्न गौण हो जाता है। तय है कि सामो एक मेल है, स मग के rfera के विषय में सदेव नहीं है, मेज एक भौतिक वस्तु है । स मेज का बाम हम सभी प्राप्त कर सकते हैं जब हम आखों से उसे देखें या उसे स्पर्श करें। यदि गुलाब काम देखना चाहें तो मात्र सोचने से गुलाब का फूल नहीं आ जायेगा । HOT तात्पर्य है कि भौतिक प्रस्तुओं काता से raria अस्तित्व है और उसका भान ऐन्द्रिय सदनों से होता है| इन्द्रियों द्वारा प्राप्त पत्र के जान को पाश्चात्य दान में प्रत्यक्ष ज्ञान बहा जाता है। इस सन्दर्भ में जैनों की क्या स्थिति पर प्रश्न क्षसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यद्यपि अतीन्द्रिय न की मान्यता जैसा fir देखा जा चुका है जैन दर्शन को अध्यादी सिद्ध करती है जिन्तु जैन दर्शन को धास्तपधादी और वस्तुवादी दर्शन ला जाता है। इसका तात्पर्य है कि प्रत्ययवादियों की तरह वे सिर्फ आत्मगत को यथार्थ नहीं मानते बलिक कान से पृथक स्वतंत्र सता रखने वाले बाध्य जड़ पदार्थों की लता भी यथार्थ मानते हैं, परतुओं के इन्द्रियान को भी प्रमाण मानते हैं। पही कारण है कि जैनों ने ईन को स्वतवेदी "विालेषा के साथ-साथ सदैव असंवेदी पि भी दिया है। तात्पर्य यह है कि शान पदार्थ बोध के साथ-साथ अपना सवेदन स्वयं कारता है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *. 63 अत: आत्मा की भी सत्ता है और वस्तु की भी सत्ता है। वस्तु गुण है और आस्मा गुणी । गुणी और गुण मैं भिन्नता होती है। कुंदकुंद का कथन है कि ज्ञानी ज्ञान स्वभाव होता है और परत जय स्वभाव । अतएव चिन्न ल्यभाव वाले ये दोनों स्वातंत्र हैं। उनके मत में न तो शेय से शन उत्पन्न होता है और न ज्ञान से शेय। पस्तुयें हमारे ज्ञान की विषय बने या न बने फिर भी वे अपने रूप में अवस्थित रहती है, उसी प्रकार वरतुयें हमारे ज्ञान की 'विष्य बने या न बनें, हमारा मान हमारी आमा में अधाि रखता है क्योंकि कान पदार्थ का धर्म नहीं है, कान तो arrer का है। जान अन्तरंग में शेतन रूप से तथा अर्थ बहिरंग में जहत्य से अनुभव में आता है। अर्थ शुन्य भान रवाकारया तथा भान शून्य अर्थ अपने आप में अस्तित्व रखते ही हैं। पात: मान श्री तिन की उत्पत्ति की रिर्धात नहीं होती किन्तु यह कान के प्रयोग की नियति है, क्योंकि ज्ञान की स्थिति हमारी आगा श्री स्वाभाविक स्थिति है। मामा का ही है चैतन्य । धान्य ही सारी ज्ञान की प्रवृत्तियों का स्मोत है। अत: जैन दर्शन के वास्तववादी पो जाने के पीछे यही कारण है कि वे पास्तवादी दर्शन की भाति ज्ञाता से बाह्य वस्तु जगा की स्वतंत्र सत्ता मानते हैं। अब पान यह उठता है कि मैं जिसे जैन दार्शनिक पुत्गल-द्रव्यलतले हैं, जो वर्ण, गंध, रस, स्पर्धा आदि इन्द्रियों के विजय बनते हैं उनकी क्या स्थिति है' चे भी वस्तुओं की तरह Tता निरपेक्ष हैं या नहीं' सामान्य दि बताती है कि चेतना के संबंध से स्वतंत्र भी गुलाब लाल और पत्तिया हरी होती हैं। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक अणु जो वस्तु की सूक्ष्मतम झकाई है में एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस और दो स्पो अनिवार्यता होता है। यहां पुदगल द्रव्य का लाग ही है वर्ण, गा, रस और रपयुक्त होना । ये रवम से अलग-अलग परतुयें न होकर पुदगल द्रष्य के ही अंधा है। ये इन्द्रियों के विय है। अ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 पाँच इन्द्रिया एक ही द्रव्य की भिन्न भिन्न अवस्थाओं को जानती हैं।" ये पांचों गुण अलग-अलग नहीं रहते । ये वस्तु के सभी भागों में सम्मिलित रूप से रहते हैं । इन गुणों में जो भेट प्रतीत होता है वह इन्द्रियजन्य है क्योंकि इन्द्रियों सीमित है इसलिये ये वस्तु के एक ही गुण को एक समय में देख पाती हैं । एक भौतिक द्रव्य में स्पर्श, रस आदि सभी पयायें होती है किन्तु एक ही समय सभी पर्यायें प्रत्यक्षीकरण का विषय नहीं बनती । प्रत्यक्षीकरण का विषय बनना प्रणता पर निर्भर है अर्थात् यद्यपि सभी पयार्थी वस्तु में होती है किन्तु जो पायें की का होती हैं, उसी को इन्द्रियाँ ग्रहण लेती हैं। फिर इन पांचों की काताअबलता आदि इन्द्रियों की योग्यता पर भी निर्भर होती हैं, क्योंकि इन्द्रियों की ग्रहणाक्ति में भी विविधता होती है। 7 अतः पाश्चात्य वस्तुवादियों की तरह वस्तु भी ज्ञाता निरपेक्ष है और गुण भी । यहाँ पर जैनों का विशिष्ट अनेकांतवादी, सापेक्षवादी दृष्टिकोण स्पष्ट लक्षित होता है। जैनदार्शनिक किसी भी स्था पर ऐकान्तिक रूप से न सिर्फ मेट को मानते हैं न सिर्फ अमेट को, बल्कि एक स्थिति मैं भेद को भी मान्यता देते हैं और दूसरी दृष्टि से अभेद को भी इन्द्रियों में भेद भी होता है और अभेद भी । एस आदि मैं भी भेद और अभ्ट दोनों होता है द्रव्य की दृष्टि से अभेद और पर्याय की दृष्टि में भेद 18 यदि उनमें सिर्फ अभेद हो तो दो इन्द्रियों में अनुभवों में कोई भेद नहीं होगा यदि उनमें सिर्फ मे होगा तो वे मिलकर एक साथ ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकतीं ।" मानते हैं । पाँच इसी प्रकार इन्द्रियों के विषयों प पूज्यपाद के अनुसार - स्पर्शादि परस्पर तथा द्रव्य से कदाचित् भिन्न कदाचित् अभिन्न हैं । यदि स्पर्शादि में सर्वथा एकत्व है, स्पर्धाों के होने पर रस rica हो जाना चाहिये । यदि द्रव्य से सर्वथा एकत्व हो तो या तो द्रव्य भी सरता रहेगी या फिर स्पर्शीद की । यदि द्रव्य की सत्ता रहती है तो लक्षण के अभाव में उसका भी अभाव हो जायेगा और यदि गुणों की तो निराश्रय होने से उनका अभाव ही हो जायेगा । यदि सर्वथा भेद माना जाता Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 है तो संख्या परिमाण, पृथुकाव, संयोग, विभाग आदि स्पी द्रव्य में समवास संबंध में रहने के कारण चाक्षुष होने पर भी परस्पर भिन्न है 110 *यदि दोनों स्वतंत्र हैं तो दोनों में संबंध कैसे होता है कुंदकुंद उदाहरण afer बात को स्पष्ट करते हैं, उनके मत में जैसे चक्षु अपने में रूप का प्रवेश न होने पर भी वस्तु को जानती है वैसे ही ज्ञान बाह्य वस्तुओं का प्रत्यक्ष करता है। उनका मत है कि जिस तरह दूध के बर्तन में रखा हुआ इन्द्रनीलमणि अपनी कांति से दूध के रूप का अभिभत करके उसमें रहता है वैसे ही ज्ञान वस्तु में रहता है। जैसे दूधगत मणि स्वयं सम्पूर्ण दूध में व्याप्त नहीं है फिर भी उसकी काति के कारण सम्पूर्ण दूध नीलवर्ण का दिखाई देता है । इसी प्रकार ज्ञान द्रव्यतः सम्पूर्ण वस्तु में व्याप्त न होते हुये भी अर्थ को जान लेता है । इस तरह आत्मा और वस्तु में संबंध संभव है क्योंकि आत्मा में जानने की क्षमता है और वस्तु में जाने जाने की, आत्मा का लक्ष्य है य और आत्मा का उपयोग | arata or अर्थ है जानने का उपाय || आत्मा में ही ज्ञान की क्रिया होती है, जड़ घर में नहीं, क्योंकि बोध का कारण चेतना है । जिसमें चेतनाशक्ति हो उसी में बोध क्रिया हो सकती है। चेतना शक्ति आत्मा में ही होती है, जड़ में नहीं | 12 अतः आत्मा के अनंत गुणों में उपयोग अर्थात् चित्शक्ति ही ऐसा गुण है जिसके द्वारा आत्मा को जति किया जा सकता है । यह चैतन्य शक्ति जब वा वस्तुओं के स्वरूप को जानती है तब उस साकार अवस्था में ज्ञान कहलाती यह चैतन्य शक्ति बाह्य पदार्थों में न रहकर मात्र चैतन्य स्थ, स्वस्थरहती है गिरती है। अर्थात् चैतन्यशक्ति की धाकार अवस्था उसके कान की अवस्था है और उसकी चैतन्याकार अवस्था उसके दर्शन की अवस्था है । तात्पर्य है कि चैतन्य की एक धारा है जो अनादि, Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंतकाल तक प्रवाहित होने वाली है । इस धारा में कर्मबंधन शरीर संबंध, मन, इन्द्रिय आदि बाह्य और आंतरिक कारणों के सम्पर्क से ज्ञेयाकार यानि पदार्थो का ज्ञान रूप परिणमन होता है 1 इसका ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमानुसार विकास होता है । 13 66 अम्लक के मत में विजय ग्रहण ज्ञान शक्ति या क्षयोपशम के अनुसार होता है जित ज्ञान में पदार्थ को जानने की जैसी योग्यता है उस अनुसार पदार्थ को जानता है पदार्थ का निश्चय करना । । आन की साकारता का अर्थ है ज्ञान का उस वैतन्य धारा देव को जानने के समय पर होती समय में ज्ञानाकार । निराकार दर्शन इन्द्रिय और पदार्थ के सम्पर्क से पहले होता है जबकि साकार ज्ञान इन्द्रियार्थ सम्पर्क के बाद | 14 " 12 अतः उपर्युक्त विवेचन में स्पष्ट है कि जैन दर्शन वास्तविकतावाद क पोक है, क्योंकि यह ज्ञाता और बान में पूर्ण अभेद नहीं मानता। ज्ञाता ज्ञान स्वभाव है और वस्तु ज्ञेय स्वभाव । अतः विषयी और विषय के रूप में दोनों स्वतंत्र है । किन्तु वस्तु में ज्ञान के द्वारा जाने जा सकने की और ज्ञान में वस्तु को जानने की क्षमता होती है । of पाश्चात्य दर्शन के वास्तववाद और जनदर्शन के वास्तववाद में यह समानता है कि दोनों के अनुसार बर्टिजगत का अस्तित्व यथार्थ है, ज्ञाता और ज्ञान दोनों ही पर्याय है, वस्तु का अस्तित्व धाता से स्वतंत्र है किन्तु परमात्मात्सववाद का ति है कि ज्ञाता इन वस्तुओं के अस्ति को इन्द्रियों के माध्यम से जान लेता है । इसका तात्पर्य है कि वास्तववाद के अनुसार वस्तु कागन इन्द्रियों के माध्यम से ही होता है और यह ऐन्द्रिय ज्ञान साक्षात् ज्ञान की वस्तु ज्ञान को मात्र इन्द्रा कोटि में रखा गया है । किन्तु जैन दार्शनिक एक सीमित नहीं करते और रेन्द्रिय ज्ञान को Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67 साक्षात् शान न कर परीक्षा शान मानो। गह जैनों का अपना विNिEHATIत है कि ज्ञान शाति का पूर्ण विकास होने पर जानने का प्रयत्न नहीं करना पड़ता, मान सतत प्रवृत्ता रहता है। प्रयत्न से कानापरण जितना क्षीण होता है उतना ही ज्ञान शिकपिलो जाता है और सामान और गाना #ई अन्तर नहीं रह जrar किन्त भान की अपूर्ण विकास की अवस्था में यतः ज्ञान की प्रवृति नहीं होती। जापुत्त जव में हमें जानने का प्रयत्न करना पड़ता है ।15 इरा अवा में म पन्तु को माध्यम को बिना नहीं जान । ये माध्यम बनाते हैं, शनि और मन । जैन-दर्शन . तुतार पार पाता इतर कारणों से जो ज्ञान होता है यह परीक्षामान है। यहाँ उमालत बद से इन्द्रिय और भने तथा अनुपात्त शब्द से प्रकाशा आदि का अर्थ अभिप्रेत है। इनकी अपेक्षा से होने वाला ज्ञान परोदा है। इस ऐन्द्रिय ज्ञान को परोक्ष इसलिये कहा गया था कि यह "पर" की सहायता से "अ" यानि आत्मा हो होने वाला मान है।16 जैन दर्शन के अनुसार मति और शुत, ये दो ज्ञान इन्द्रिय मन सापेदा जान को जाते हैं और इसलिये ये परोयान की श्रेणी में रखे जाते हैं। 7 मतिमान शुद्ध ऐन्द्रिक प्रत्यक्षा शान है जो पूर्णतया मन और इन्द्रिय पर आश्रित है। हमें स्मृति, संज्ञा चिन्ता, अभिनियो भी कियायें आ जाती है।18 भुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। तक्षान का मतलब है सना हुआ शान |19 मतिधान की चार रावस्थायें होती हैं - गावग्रह, ईटा, आवाय और धारणा 120 इन चारों अवस्थाओं से गुजरकर ही मतिज्ञान होता है। इन चारों अवस्थाओं में भेद भी है और अभेद भी । भेद बरा अर्थ में कि ये वस्तु की विभिन्न अवस्थाओं को दिखाती है, अभेद इस अर्थ में कि ये सभी अवस्थायें एक ही प्रक्रिया के विभिन्न परिणाम हैं। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * . 68 यदि विटनायें भौतिक वस्तु से उत्पन्न होती हैं तो दोनों में तर क्यों पाया जाता है। तात्पर्य कि भौतिक और उससे उत्पन्न नेतना में काफी अन्तर होता है। इसका कारण क्या है' क्यों एक ही वस्तु के विष्य में ही ला को विभिन्न समयों में विभिन्न अनुभूतिगा लोगी ' अधया : 14 मई माताओं को एक ही में विभिन्न अनुभूतिया क्यों होती है चारतापाद के सामने यह सबसे दिल प्रपा पान और भी जमा हो जाता है यदि वास्तववादी भोतिक विधान है। विटनाओं से निकला STHIT 30एमएमाण के प में प्रस्तुत पास कि यो रोल दी गई कार | tita की द्वाविष्ट से हमारा मान निदना से निकला है लेकिन गादि भोपिन सत्य है तो भी हमारे विदनों ओर उन बाह्य कारणों में रानी समसमानता है कि यह काटना कठिन है कि सलेदनाओं हम बाहय वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। समामा सयरी और जटिल हो जाती है कि भौतिक विज्ञान संवेदनों से ही अनुमित के 121 रसेल प्रश्न करते हैं, प्रारण क्या है' जैसा कि मैं इस शब्द का प्रयोग करता हूँ, सामान्य तम, के पदों में राष्ट है, क्या होता है जब मैं चार देखता हूँ अथवा कुछ सुनता हुँ या अन्यथा मैं अपने पर विश्वास करता हूँ कि में अपनी इन्द्रियों पर कुछ चीजों अवगत होता है। हम विश्वास की है कि सूर्ग सदा है 'किन्तु मैं केवल कुमय इसे देखता हूँ, मैं इसे रात में या गच्छन्न मौसम में नहीं देखता गा दुसरा काम करता होता हूँ तब भी नहीं देता। हूँ। किन्तु उन प्रत्येक अवारों पर जब मैं सूर्य को देखता हूँ। उनमें एक निश्चित समानता होती हैं जिसने मुझे सही अपसरोंपर “सूर्य" शब्द का प्रयोग करने के योग्य बना दिया है। कुछ समानतायें विभिन्न अवसरों पर जब मैं सूर्य को देता हूँ स्पटल से मुझमें हैं, उदाहरण के लिये मुझे अपनी आ खोलनी चाहिये और सीधी तरफ मना चाहिये, इसलिये इन्हें हम सूर्य की विशेषer मान सकते हैं। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे ऊपर निर्भर नहीं होती; जब हम सूर्य को देखते हैं यह प्रायः गोल, चमकदार और गर्म है। इस प्रकार की फना जिसे "सूर्य को देखना" कहा जाता है मेरे और उस वस्तु के बीच एक संघ में निहित होती है और जब यह संबंध पाया जाता है, मैं पस्तु का प्रत्यक्षीकरण अथवा संवेदन करता हूँ 122 इस जगह भौतिक विज्ञान हस्तक्षेप करता है और बताता है कि सूर्य उस अर्थ में चमकदार नहीं है जिस अर्थ में बम प्राय: "शब्द" को समझते हैं। इसके अतिरित जब आप अबसूर्य को देखते हैं तो आपके देखने से जो भौतिक वस्तु अनुमित होगी, आ3 मिनट पहले freet | सलिये भौतिक विज्ञान के सूर्य को और हम जो देखते हैं तदात्म्य नहीं कर सकते । किन्तु इतना होने पर भी हम जो देखते है भोलिक सूर्य में किया करने के लिये हमारा मुख्य तक है । आगे रसेल कहते हैं कि हमारे विदन के उपकरणों की भौतिका पद बुध सीमा तक उपेक्षा कर सकता है गया कि इसका रियर रूप में प्रयोग किया जा सकता है जबकि ये वास्तव में स्थिर नहीं है। दृष्टिदोष से हम दो पूर्य देख सकते हैं किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हमने एक गोलशास्त्रीय गत्कार संपन किया है। सूर्य के स्वरूप में यह परिवर्तन मेरे कारण है सूर्य के कारण नहीं । सामान्य अनुभव संविदन में विभिन्नता के आत्मगत स्त्रोतों के भेद के कारण है। एक पौधोर वस्तु सदैव चौकोर ही दिखाई देगी 124 फिर रसेल का किन्तु उन शितों का अभी भी पणत अध्ययन ENT जो कि भो५ .. || T T से अनुमान उवित OTो । उदाहरण के लिये जब बहुत प्यापित सूर्य को देखी है तो यह पिवास करना था कि उनके संवेदनों से बाध्य र सूर्य है और इसलिये नहीं कि परिस्थितियों को निर्धारित करने वाले निगम है जिसमें कि हम यह अनुभव करते हैं, कहतक"सूर्य देख रहे हैं। 25 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का तात्पर्य है कि वास्तववाद की समस्या का समाधान विज्ञान के जगत में नहीं होता। जैसा कि प्रो0 आइन्स्टीन का कहना है कि प्रत्यक्ष काता विषयी से स्वतंत्र बाह्य जगत का अस्तित्व समस्यात्मक है। यद्यपि आइन्स्टीन वर्य भी एक RTE maratीकार करते हैं, जो कि निरीSHAT से काफी हद तक स्व है। उनका मत है कि एक बाध्य जगत में विशाल ओ कि प्रत्यक्षता तिथी से माहे सभी प्राकृतिक विज्ञानों की आधारशिला हे 126 वास्तुनिता की समस्या के उत्तर आइन्स्टीन का सापेक्षता का hिir बहिन महत्वपूर्ण है क्योंकि Martin है कि वस्तु नि तो ध्याच्या प्रकृति अथAT AT के बाद जगत में नहीं की जा सकती 21 'सिधांत द्वारा वस्तु के संप्रत्यय में परिवर्तन हुआ। पहले जो वस्तुओं का एक गुण घा वह अब वस्तुओं के गुण और उनके संदर्भ की व्यवस्थायें बन गया ।28। सापीता के सिमा ने किया कि मापी गयी लम्बाई और समय का अनाराल निरपेक्ष वैधता नहीं रख लि आकस्मिक तत्व होता है। किसी चूनी गयी विशिष्ट संदर्भ की गया में यह तथ्य कि गतिशील आकार में परिवर्तन होगा भाषा शिवस्या के सापेक्ष होता हे ।29 पर पान्तविकता जो सभी दृश्य पrgi का आधार है स्पष्ट रूप से की पाहु-आयामी व्यवस्था है और हमारी संवेदन-nि TT जितने मायाम जाने गये है उनसे ज्यादा आयाम उरके अपेक्षित हैं 130 स्पष्ट है कि आइन्स्टीन के 7 सादावादी सिनत का आशय यही है कि यामि धान फा लियता से स्वतंत्र है किन्तु शाता निष्क्रिय होकर मान प्राप्त नहीं करता | शान TAT और शेय के बीच एक संबंध पर निर्भर है। 'किन्तु वस्तु पादी इस तथ्य को भूल जाते हैं। जैनदर्शन का पास्तववाद इत अर्थ में आधुनिक है क्योंकि यह सापेक्षतावादी मत से काफी समानता रखता है, क्योंकि Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71 पेशान को प्रसंग सायेदा मानते हैं। तात्पर्य है कि यह वस्तु में अनंत गुणों और पायों की कल्पना की गयी है साथ ही पस्तु का लक्षण माना गया हे उत्पाद, व्यय और प्रौपयुक्त होना । वस्तु का जो संवेदन होगा डे वह देवा, काल, दया और भाव सापेक्ष होता है। वास्तु के अनंत गुणों और पयायों की थापना आइन्स्टीन की अनेक आयामों की कल्पना के समान है और प्रसंग-सापेक्षतान की बहुमायामी व्यवस्था के समान है। इस बात को AT TRE प... "किया जा सकता है कि fr पुकार आन्स्टीन मानते हैं कि "बालारामा सिला का क्रम है और अनेक संभाव्य कालक्रमों में से एक कालक्रम को धास्तविक मानना आनुभविक निरी के कारण सापेक्ष है। उसी तरह जैन दानिक भी मानते हैं कि द्रव्य जाद की बाकिा और उसके अवोदका भिन्न-भिन्न हैं। हाँ यह अवश्य कि कहीं-कहीं प्य के प्रतिमा अर्थों में किसी को प्रधान और किसी को गौण मानना पडता है, क्योंकि रेता माने बिना विभिन्न नयाँ रा विभिन्न अर्थों में आबन ऐसे कई लोकLयवहार हैं जिनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती 132 जिस वस्तु को एक भाग में देखा उसी को अन्य भाग में नहीं देखा ऐसा रपट व्यवहार लोक में देखा पाई और इस 'ध्यवाहार के कारण ही vharo में विरुद्ध प्रमों का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है। देश, काल, पुडा अपेक्षा भेद से एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी धर्म भी रह सकते हैं। जैसा कि पर्व 'विवेचन से स्पष्ट हो चुका है जैनदार्शनिका कहीं भी ऐकान्तिक व्याख्या को स्वीकार नहीं करते । अतः पार पादी होते हुरो भी वे भौतिकवादी प्याख्या पन्न कठिनाई से 7 yin | जैन दार्शनिक इन्द्रिों को पूरी तरह से मौतिक नी गानरो । इन्द्रियों की संरचना की दृष्टि से इनके दो रूप होते हैं। दव्येन्द्रिया और भाषेन्द्रिया । द्रव्येन्द्रिया' 'बिना भानियाँ की सहायता के शान नहीं उपलser कर सकती क्योंकि भापेन्द्रिया इन्द्रियों की Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शापिया, द्रव्येन्ट्रिया तो उपकरणमात्र है। इसी प्रकार ऐन्द्रिय ज्ञान में मन भी एक उपकरण है, जिसे जैन दार्शनिकों ने आंतरिक इन्द्रिय माना है किन्तु मन को भी भावभन और दृध्यमन हे भेद से दो स्पों में स्पष्ट किया है 137 आगे जैन दार्शनिकों की एक और विशिष्टता उभरकर सामने आती है जहाँ उन्होंने वस्तु और प्रकाश आदि कारणों को प्रत्यक्षीकरण का अनिवार्य कारण नहीं बल्लिा प्रत्यक्षीकरण के पि माना है। यदि शान के अनिवार्य कारण होते। तो उनकी उपस्थिति र कान में अनिवार्य होती तो फिर ऐसी स्थिति में भूतकाल और भविष्य की वस्तुओं का ज्ञान नहीं होता, इसी प्रकार यदि प्रकाश अनिवार्य होता तो अंधकार में शान न होता ।" यही कारण है fis TT दार्शनिक मानते हैं कि द्रष्य के सभी गुण और निरन्तर परिवर्तनशील पया इन्द्रियों के बारा नहीं जानी जा सकतीं पयोंकि इन्द्रियों की पापितया देश और काल की सीमाओं से सीमित होती है। अतः रपा है कि इन्द्रिया वस्तुओं के सत्य स्यत्य को नहीं जान सकती । इसीलिगे जैन दार्शनिक रैन्द्रिय ज्ञान को निर... मान नहीं मानते, समान को परीक्ष शान मानते हैं। यह ज्ञान पनि आत्मा का धर्म है अत: जो भान इन्द्रियों के माध्यम से होता है वह आता के लिये परोसा ही है। अतः स्पष्ट है Trयपि जैन दार्शनिकों का मत और पाश्चात्य धारयाद का मत है कि पारा जाता वस्तुनिष्ठ अस्तित्त, समान है in ..पापाय ETAILATERI Fagi का इन्द्रियों के माध्यम से सायात प्रत्यक्ष मान MET जैनों के अनुसार ऐसे शान को परोक्ष कहा गया है। यपि बाद में पैन ताकिकों ने मुख्य और साध्यवहारिक थे दो भेद प्रrucl airन के कारके रेन्द्रिय कान को साध्यवहारिक प्रत्यक्ष माना । मुख्य प्रत्यक्ष ज्ञान तो वही Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 माना गया जो सीधे आत्मा से होता है। रेन्द्रिय ज्ञान को तो सांव्यवहारिक प्रत्यक्षा इस अर्थ में कहा गया कि यह किसी दूसरे कान पर आधारित नहीं है, यही प्रत्यक्ष का दो अर्थों में प्रयोग किया गया है। स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष नान का इनका विश्लेषण आध्यात्मिक विश्वास से प्रभावित है। प्रत्यक्ष और परोक्ष का भेद या ज्ञानगत भेद नहीं है। आध्यात्मिक भेद है क्योंकि यह जैनों की अपनी विशिष्ट तत्वमीमाता पर आधारित है इसलिये जो व्यक्ति इस विशिष्ट तत्व मीमांसा को नहीं मानता उसके अनुसार प्रत्यक्ष और परोक्ष का यह भेद गलत अपर के विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि जैनों के ऐन्द्रिय ज्ञान का जहां तक संबंध है यह पाश्चात्य दर्शन में रसेल और मूर के वास्तववादी दर्शन के काफी निकट है । जैन वास्तववादी है। व्यवहारवादी उनका पास्तविकता का सिद्धान्त सापेक्षता के सिमान्त का एक प्रकार है। यह तथ्य जैन-दर्शन को आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अत्यन्त समीप ले जाता है। यहाँ हर प्रकार के अतिवादों का निषेध किया गया है तथा सामान्य अनुभव के सिद्धांतों | cominen saunee Theory knowledge | पर जोर दिया गया है। इस प्रयास में जैनों द्वारा सत्यता, तात्या और ज्ञान पर कुछ विशिष्ट सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये । यही कारण है कि जैन दर्शन कहीं वास्तववादी दर्शन है, कही' प्रत्ययवादी दर्शन के निकट पहुंया प्रतीत होता है और कहीं अपवहारवाद और सापेशावाद के निकट पहुंचता है। पैन-ज्ञानमीमाता वास्तववादी होते हुए भी पाश्चात्य यथार्थवादी और प्रकृतिवादी मानमीमासा नहीं है । प्रतिवाद' के अनुसार जीवन संश्लिष्ट भौतिक और रासायनिक शाक्ति का पलमान है एवं प्रकृतिवाद में ज्ञान का विकास माना गया है किन्तु ज्ञान के विकास का अर्थ, यहाँ चैतन्य का विकास नहीं है। जबकि जैनों के अनुसार विकास का अर्थ है चैतन्य का विकास | फिर यथार्थवादी संवेदन Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 Perception 1 और तर्क | Reasoning 11 को ही ज्ञान के साधन के स्प में मानते हैं तथा किसी भी प्रकार के अतीन्द्रिय ज्ञान को नहीं मानते । जैन दार्शनिक ज्ञान का विषय ज्ञान से स्वतन्त्र मानते हैं इसलिए यथार्थवादी है साथ ही ये यथार्थवाद के साथ सवेदन और तर्क को भी ज्ञान के विश्वसनीय माध्यम के रूम में स्वीकार करते हैं। किन्तु जैन-दर्शन अवधिज्ञान मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान के रूप में अतीन्द्रिय ज्ञान को भी स्वीकार करते हैं, सर्वज्ञता पर चल देते हैं और ज्ञान के स्वयुकारकत्व को मानते हैं । यह स्वीकृति जैनदर्शन को रूद्र अर्थ में यथार्थवादी दर्शन से भिन्न कर देती है, तथा प्रत्ययवादी दर्शन के निकट ले आती है । जैसा कि पूर्व विवेचन में स्पष्ट हो चुका है कि निश्चय दृष्टि से गुणी आत्मा और गुण - पदार्थ में एकरूपता है । उपर्युक्त विवेचन का अभिप्राय यह भी नहीं है कि जैन-दर्शन अतीन्द्रिय दर्शन | Super nali ralism है। जैन-दर्शन बुद्धिवाद, व्यवहारवाद और सापेक्षतावाद है । अतीन्द्रिय-ज्ञान का अभिप्राय यहाँ किसी प्रकार की यामात कारिक धार्मिक वाक्यों की उपलब्धि की स्थिति से नहीं जोड़ा जा सकता । अतीन्द्रियावाद को supernaturalism को कैसे बौद्धिक Rahional बनाया जा सकता है, यह जैन-दर्शन की उपलब्धि है। आध्यात्मिक अनुभव अगर व्यवहार में उपलब्ध ही किया जा सकता है तो उसको भी ये लोग मानते हैं । सर्वज्ञता की सापेक्षतावादी व्याख्या मानते हैं । ये उपयोग को ज्ञान का लक्षण इसका अभिप्रार मानते हैं । ज्ञानमीमांसा की एक प्रमुख समस्या विषमता की है । है ज्ञान के विषय का ज्ञाता से स्वतन्त्र बाहयजगत में अस्तित्व है या नहीं" क्या विषय की स्वतन्त्र सत्ता है अथवा वह ज्ञाता की मानसिक संरचना पर निर्भर है ' कुछ दार्शनिक जो यह मानते हैं कि विषय स्वयं एक स्वतंत्र सत्ता है उसे afar के shera में वास्तववादी विचारधारा कहा जाता है और जो विषय को मानसिक सूचना मानते हैं वे आदर्शवादी या प्रत्ययवादी दार्शनिक कहे जाते हैं । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75 जहाँ तक विषयता की स्थिति का प्रश्न है जैन दार्शनिक चूँकि विषय को ज्ञान से स्वतंत्र मानते हैं, इसलिए वास्तवादी कहे जायेंगें । art की सतत क जातक संबंध है या कि ज्ञान में उपलब्ध विषय की सत्यता का प्रश्न है वहाँ जैन दार्शनिक सापेक्षतावादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए प्रत्येकज्ञान की प्रसंग-सा मानते हुए Frent को भी प्रसंग - सापेक्ष मान लेते हैं। से वस्तु का ज्ञान प्राप्त किया गया है उस उद्देश्य की दृष्टि से वह ज्ञान साथ है। तात्पर्य है कि यहा जैन दार्शनिक विश्व के निरपेक्ष की और आग्रह न जिस प्रसंग में जिस उद्दे दिखाते हुए, विषय-वस्तु जिस रूप में उपलब्ध हो रही है उसी को परिस्ि "विशेष से उसके उपयुक्त होने के कारण सत्य मान लेते हैं । इससे निष्कर्ष निकल है कि विज्ञान के संबंध में जैन-दृष्टि सापेक्षवादी है, व्यवहारवादी है । जैन दर्शन प्रत्यक्ष ज्ञान के रूप में अतीन्द्रिय केवल ज्ञान को परम निरपेक्ष पूर्ण ज्ञान मानता है और ज्ञान के शेष प्रकारों को जिनमें रेन्द्रिय ज्ञान भी का हैन के मैट मानता है जैसा अकलंक का कहना है केवलज्ञान सामान्य ज्ञान है जिसके आवरण भेद से 5 मे होते है । इस कथन का स्वाभाविक निकर्ष होगा कि केवलज्ञान के रूप में अती 1 ज्ञान के अतिरिक्त बाकी सब ज्ञानों के पुकार जिन्हें जैन दार्शनिक मानते हैं ये deer के भेद होने के कारण सापेक्ष और सीमित ज्ञान होगें निरपेक्ष ज्ञान तो Samare है । रूप निष्कर्ज की स्वीकृति का अर्थ होगा प्रकारान्तर से प्राकराच के दर्शन की भांति सत्ता और ज्ञान के दो स्तरों में अन्तर मानना, अर्थात् व्यावहारिक दृष्टि से ऐन्द्रिय ज्ञान सत्य होते हुये भी पारमार्थिक दृष्टि से ज्ञान है जो निरपेक्ष केवलज्ञान पर निर्भर है । किन्तु यह स्थिति प्रत्यवादी की स्वीकृति है जो कि वास्तववादी, वस्तुवादी दर्शन जैनों को स्पष्ट रूप से Sariff के ऐन्द्रिय अनुभवों को भी ज्ञानप्राप्ति का स्वतंत्रता मानते हैं । इस स्थिति में सामंजस्य कैसे स्थापित किया जा सकेगा जैनों में Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नान के भेद में निहित तक की स्वाभाविक परिणति तो प्रत्ययवाद की ओर उन्मुल प्रतीत होती है किन्तु ये इस निष्कर्ष को स्वीकार न करके वास्तववादी श्रेणी में आ जाते हैं। यदि हम प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय ज्ञान को परम निरपेक्ष ज्ञान न मानें तो जैनों के परोक्ष ज्ञान के विश्लेषण के आधार पर उन्हें वास्तववादी दर्शन कहा जा सकता है और रेन्द्रिय ज्ञान की वास्तविकता मानी जा सकती है क्योंकि वे ज्ञाता के रूप में एक सार्वभौम आत्मा के अस्तित्व की कल्पना न करके अनन्ना आत्माओं की फाल्पना करते हैं, कोय के रूप में जाना स्थान बाध्य जड पदार्थों की पृथक रवतंत्र सत्ता को भी मानते हैं जिनका ज्ञान हन्द्रियों से होता है। रेखाशिनारा इस बात को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है - माता जीव । परीक्षा मान -----साधनइन्द्रियाँ। शेय । भौतिक वस्तु जगता 'किन्तु यदि हम इन्द्रियजन्य परीक्षा ज्ञान को बाध्य वस्तु जगत का स्वतंत्र ज्ञान मान लिया जाये तो प्रत्यक्षा मान की क्या स्थिति होगी' प्रत्यक्ष मान का विश्लेष्ण भी अपूर्ण है क्योंकि यहाँ प्रस्थान में भी विय, वस्त ही होती है, यपि परोक्षशान के विपरीत यहा पस्तु का ज्ञान हमें बिना। इन्द्रियों के माध्यम से होता है। क्या प्रत्यक्ष और परोक्षानों के मध्य सिफ इन्द्रियों की माध्यम के रूप में उपस्थिति और अनुपस्थिति का ही भेद होता है' प्रपन उठता है कि यदि माता बिना इन्द्रियों की सहायता के वस्तु का साक्षात धान प्राप्त करने में समर्थ है सो परीक्षा ज्ञान के रूप में इन्द्रियों की मध्यस्थता की आवश्यकता क्यों पड़ती है फिर यह तो हमारा स्पष्ट अनुभव है कि वस्तु जगत का ज्ञान हमें इन्द्रियों द्वारा ही मिलता | आमा द्वारा वन्तु का साक्षात जो मान मिलता है उसमें और इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान में था संबंध Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और बया अन्तर है' क्या वस्तु का इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्षीकरण बिना इन्द्रियों के सीधे आत्मा द्वारा प्रत्यक्षीकरण से एक भिन्न रूप उपस्थित करता है' यह समस्यायें तब अधिक स्पष्ट होगी जब हम प्रत्यक्षा और परोक्ष झानों में माता और शेय का अधिक सूक्ष्म विश्लेष्मा करें। जैन दार्शनिक प्रत्यक्ष ज्ञान उसे कहते हैं जो सीये आत्मा के द्वारा प्राप्त होता है, जहाँ य को जानने के लिये शाता को इन्द्रियों की मध्यस्थता की आवयकता नहीं होती। प्रत्यक्ष ज्ञान तीन प्रकार का माना गया है - अवधि ज्ञान माता जीचा ओय मूर्तिक पदार्थ मनःपर्यायान ज्ञाता जीचमन। तैय जीवमन। কলেঙ্কাল OTAT (TOHTI आय अनन्तगुण पायुक्त द्रध्य। यदि प्रत्यक्ष ज्ञान के इत पिकलेडण को देखा जाये तो स्पष्ट होगा कि पाड प्रत्यक्ष शान चूंकि अतीन्द्रियमान है अत: एक ओर तो जैनों के वास्तववाद के दिन है फिर दूसरी तरफ यह विल पुर्णतया प्रत्ययवादी दर्शन के भी अनुरूप नहीं है जहाँ अतीन्द्रिय कान फो आमा का पूर्ण शान माना जाता है क्योंकि प्रत्ययवादी दर्शन तो माता के एप में जीव को नहीं मानता। जैनदर्शन के अनुसार एक तरफ अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष मान में ध विषय तो पता धनती है किन्तु साथ ही यह भी कहा कि प्रत्यक्ष ज्ञान में ETAT और य में कोई भिन्नता नहीं होती । अब हमारे सामने दो पुश्न उपस्थित होते हैं कि क्या अतीन्द्रिय बान में ज्ञान का विषय वस्तु हो सकती है और यदि ज्ञाता और दोय में कोई Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिन्नता नहीं है तो इसका है, वस्तु नहीं । ज्ञेय विषयवस्तु है या आत्मा' 78 है कि ज्ञाता भी आभा और ज्ञेय भी आत्मा यदि प्रत्यक्ष ज्ञान में हम ज्ञान का विषयवस्तु मानें तो इसका तात्पर्य होगा यह ज्ञान विषयी विषय भेट पर आश्रित है और चूंकि ये एक दूसरे पर आश्रित है. अतः सापेक्ष ज्ञान है, इसलिये इन्हें परम ज्ञान नहीं माना जा सकता, जबकि यह ज्ञान तो पूर्ण ज्ञान है । देवा-काल और कार्यकारण भाव पर आज यह भौतिक जगत किसी तरह असत्य नहीं माना जा सकता । यह हमारे ऐन्द्रिय अनुभवों से सिद्ध है किन्तु इस इन्द्रिय जगत को अन्तिम नहीं माना जा सकता क्योंकि अनुभूत पदार्थ सदैव परिवर्तनशील होते हैं और परिवर्तनशील होने का तात्पर्य है अपूर्ण होते हैं । फिर भी इनका निराकरण नहीं किया at सकतT | यहा तक कि शंकर भी इसका frerary नहीं करते । किन्तु यदि हम आनुभविक भौतिक जगत को अतीन्द्रिय ज्ञान में ज्ञेय माना जाये तो इसका तात्पर्य होगा कि विषयी और विषय में भेद है दूसरे शब्दों में अतीन्द्रिय ज्ञान भी विषयी और विषय के भेद से परे नहीं है और इस प्रकार सापेक्ष, सर्वोच्च नहीं । इस समस्या का हल वास्तववाद में नहीं है कि अतीन्द्रिय ज्ञान को परम are माना जाये और आनुभविक भौतिक जगत के ऐन्द्रिक ज्ञान को सापेक्ष ज्ञान न माना जाये | इसी विवोधाभास से बचने के लिये ही शंकराचार्य सत्ता के दो स्तरों में अन्तर करते हैं - पारमार्थिक सत्ता और व्यवहारिक सत्ता | व्यवहारिक दृष्टि से जगत और आनुभविक आत्मा जीवा यथार्थं तत्तायें हैं किन्तु अतीन्द्रिय अनुभव के स्तर पर ज्ञाता और ज्ञेय मिलकर एक हो जाते हैं । यहाँ ज्ञाता भी आत्मा है और द्वय भी आत्मा है किन्तु यहाँ आत्मा को शेय Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटने का तात्पर्य नहीं है कि आत्मा विजय के रूप में उपस्थित होती है या परिवर्तित हो जाती है। अतीन्द्रिय कान में आत्मा को अपने स्वयं प्रकाशी स्प का मान होता है या जैसा शंकराशर्य का कथन है शाता और य दोनों परमार्थ हम में एक हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान में जीव के समक्ष आत्मा परमनिरपेक्षा सत्ता के रूप में उपस्थित होती है। धपि प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों के मूल में आत्मा। जीव प्रमुख सत्ता है किन्तु जैनों की जीव सम्बन्धी धारणा संतोष्पद नहीं है। यहां आमा शारीर इन्द्रिय सीमित एक जीवा के प में ही मानी गयी है। यता मारमा पर शुद्ध संघलेमा साना सर्वोच्च वेतन इकाई नहीं मानी गयींहै जो शानों और अनुभवों में शुद्ध चेतना के रप में सामंजस्य स्थापित करती है । झो सार्वभौम घेतय नहीं माना जा सकता। जीव के स्म में आत्मा, आमा का व्यवहारिक प है जो कि शरीर इन्द्रिय आदि भौतिक उपायों से शुवात होता है। यह जीप अतीन्द्रिय पान का arr नहीं हो सकता। इस बीच फा प आत्मप्रकाश, स्वपरावभासकत्व नहीं हो सकता। यदि हम जीव को पास्तविक आत्मा मान लिया जाये तो आत्माओं के अनेकत्व की समस्या उठ खड़ी होगी। आनुभविक दृष्टि से यह आत्मा जीव है किन्तु यह वैयवित्तक आत्मा 'निरपेक्ष ज्ञान का आधार नहीं बन सकती क्योंकि यय ती मित जीवात्मा है। शुद्ध चैतन्य के अन्दर विजयी और विजय का भेद नहीं होता क्योंकि उसमें पारभार्थिक रूप से जाता और ज्ञान दोनों एक हो जाते हैं। यह निरपेक्ष आत्मा सभी ज्ञानों में शुद्ध चेतना के रूम में उपस्थित होती है विपी और विषय दोनों ए परम चैतन्य के अन्दर आ जाते हैं। यही कारण है कि प्रकराचार्य आनुभषिका जगत और सीमित जीप दोनों को वहारिक रूप से सत्य मानते हुये भी अन्तिम रूप में सत्य नहीं मानी तथा werfrक सत्य से अमर एक पारमार्मिक सत्य की Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ 80 कल्पना करते हैं जो व्यवहारिकताका आधार है इसी के कारण अनुभव संभव होता है। शंकर भौतिक रेन्द्रिक जगत का निराकरण नहीं करते किन्तु आतीन्द्रिय शान की समस्या का समाधान आनुभविक तथ्यों के द्वारा नहीं हो सकता । जैन दर्शन भी इस सत्य को अनुभव करता है जहा वह कहता है कि प्रत्यक्ष ज्ञान का ला भी यह मान लिया जाये, जो इन्द्रियादि बाय-साधनों की सहायता से उत्पन्न होता है तो उस स्थिति में सर्वरता की सिद्धि सम्भव ही नहीं होगी। शकराचार्य के व्यवहारिक और पारमारिक दृष्टि के मूल में निर्भर इस पिचार को कि सर्वोच्च अतीन्द्रिय ज्ञान आत्माभिमुख होता है वस्तु की ओर नहीं, क्ष प में उपस्थित किया गया कि केवलान को जो समस्त पदार्थों को जानने वाला कहा गया है वह केवल हारनप से कहा गया है क्योंकि निषण्य नय से तो केवलहान आत्माभिमुख होता है, अपने स्वस्थ मैं विमग्न होता है बेदालन म आत्मr के स्वप्रकाशक तप की अनुभूति है । भान के पूर्ण प्रकटीकरण की अवस्था में केवलज्ञान इन्द्रियादि से उत्पन्न शाय-वस्तु की अपेक्षा नहीं होती। इस कथन का तात्पर्य है कि अनुभाजन्य बायजगत अन्तिम सत्य नहीं है। जय शाता आत्मा को जानता है तो जान आत्मगत | Subjective होता है इसे हम जैनों का प्रत्यदा शान कह सकते हैं और जब ज्ञाता वस्तु को जानता है तो वह ज्ञान वस्तुगत होता है जिसे बम परोक्ष ज्ञान कह सकते हैं। परोक्ष तान ती सत्यता व्यवहारनय पर निर्भर है जबकि प्रत्यवान की सत्यता निचरानय पर निर्भर है। इन दोनों दृष्टियों को माने बिना दोनों कानों में कोई सामंजस्य स्थापित नहीं किया जा सकता। बैनाचायों का कहना है कि जब ज्ञान का स्वतः प्रकटीकरण पूर्ण होता है तब उसे किसी बाय-वस्तु की अपेक्षा नहीं होती तब पूर्णज्ञान केशलझान अपने में सभी विष्टि मानों को समावेश कर लेता है। यदि हम इस समाधान को मानसे से Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हनार करते हैं तो प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों कानों को एक साथ सत्य नहीं माना जा सकता क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान का विश्लेष्ण पृच्छन्न रूप से प्रत्ययवाद की ओर से जाता है जो कि जैनों को स्वीकार नहीं और प्रत्यक्षमान को निरपेक्ष ज्ञानभावना मस्तानवादी दर्शन से संगत नहीं है । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ एवं टिप्प तत्वार्थसूत्र, 1, 26. केशलमिदियाय असहाय तं सहाय वागन्ति । नियमतार, ।।. वही, 159. तत्वार्थसूत्र, I.14 परीक्षामुख, 1.12 प्रवचनसार, 1.28 सवायसिदि, 2.20 वही, 2.15, 19 7. सत्यार्थसूत्र, 2.21, पृ0 73-74. प्रमाणमीमांसा, पू0 17 पही, पू० 17. सवार्थसिद्धि, 2.20-5, 2.19-120 न्यायादयन्द्र, पृ0 115. तत्वात्र, पृ0 73 सवार्थसिद्धि, 2.20-8, 9, 2-21-14,5. तत्वासूम, 2.0 पू0 73. तत्वार्थवार्तिक, 1, 2-20-25, 26-28. वहीं, 1-12-2-3 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ umeft, 1.11 - 2015 Hatefria to 11 TUTTO 1.13 tet, 1.20 20. gaTMETATUIT, I. 1-20 rare , 1.15 21. Human knowledge, it's scope and limit. Durezand Russell. Allen annt Uhwin, London, 1963, p. 212. Ibid, p. 213. 14. 23. Ibid. p. 218. Ibia, p. 223. 25. Ibid. p. 223. 24. 26. EINSTEIN': conception of science p. 402. 27. Relativity tenches that the meaning of objectivity cannot be capture ? Whally in the external realm of Science, Finstein conception of perlity p. 252. Ibid. p. 252. 20. He notice the chango in the concept of objects What was formerly a property of things becomes now a propert of things and their systems of reference. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The theory of Relativity and a priori knowledge, p. 97 p. 1 Hans Reichenpact, University of Californi, press, 1965. The Theory of Relativity and A prior knowledge, Hans Reichenbach, University of California praas, 1965, p. 97. 29. The theory said that the measured lengths and time.. Intervals Dos S4.93 no absolute validity. mut certain accidental elemento, the chosen system of reference and the fact that is moving body will show contradiction relative to system ** & vest. Ibid, p. 97. 30. That Replity, which is the foundation of all appearances, 18 obviously a many..imensional arrangement of order which domand more time tons then ramt the spogal of our perceptunl capacity ... (critical realiam and Relativity) Significance for our Plature of the world .. p. 603, A Lyscoanel. Ibid. p. 603. 31. What the human mind contributes to the problems of time 19 not one tnfinite time-order, but a plurality of possible time.order ## the red one 18 left to empirical observation. Time is the order of chualahaina; that is the outstanding result of Einstein's disaoveries. The Philosophical significance of Ralat lvity p. 306, hy Hans Reichenbact. Ibid. p. 306. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनन्याय खण्डखाम्, श्लोक 68. वही,लोक 53. सवार्थसिद्धि, 2.16 प्रमाणमीमांसा, 1.1-24, 34 तत्वार्थसूत्र, 2.14 वही, 20248 प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ0 231. प्रमाणमीमांसा, 1.1-25. -- --:0 ----- Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Xxxxxxxxxxxxxxxxxxx | ঘিয়া যায়, ভূম, নয় ঃ শিis ** ******** * *********** Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम - अध्याय नय और प्रमाण प्रमाण और नय के द्वारा जीवादि पदार्थों का ज्ञान होता है। जो पदार्थ प्रमाग और नय के द्वारा सम्यक् रीति से नहीं जाना जाता, वह युक्त होते हुये भी अयुक्त की तरह प्रतीत होता है ।२ प्रमाण और नय के स्वरूप का निश्चय होने पर वस्तु का निश्चय होता है । जो नय-दृष्टि से मिहीन हैं उन्हें वस्तु के स्वरूप का ज्ञान नहीं हो सकता । जैन दार्शनिकों के उपर्युक्त कथनों से स्पष्ट है कि वस्तु के ज्ञान में नप का उतना ही महत्व है जितना प्रमाण का | वस्तु का ज्ञान नय और प्रमाण दोनों के द्वारा प्राप्त होना चाहिये । नय ज्ञान का क्या तात्पर्य है' यदि प्रमाण के धारा सत्य ज्ञान प्राप्त होता है तो नय ज्ञान का क्या औचित्य है' तथा नय का प्रमाग से क्या भेद है' अथवा क्या संबंध है। ये सभी प्रश्न विचारणी हैं। जैन दार्शनिक इस तथ्य पर विचार करते हैं कि सामान्यतः मनुष्यों के वस्तु प्रत्यक्षीकरण में भिन्नता दिखायी पड़ती है। यहाँ तक कि विरोधी प्रत्यक्षा भी होते हैं। स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि वस्तु एक होते हुये भी उसमें 'विरोधी धर्मों की प्रती ति क्यों होती है। एक तरफ तो इसका तात्पर्य है कि पस्त में परस्पर विरोधी धमों का अस्तित्व संभव है और दूसरी तरफ वस्तु - प्रत्यक्षीकरण सिर्फ वस्तु-सापेक्ष ही नहीं प्रतीत होता बल्कि - उत्त प्रत्यक्षा में ज्ञाता की स्थिति भी प्रभावी होती है। जैनाचार्य वस्तु की विरुद्ध-धर्मता का समर्थन करते हुये कहते हैं जिस वस्तु को एक भाग में देख उसी को अन्य भाग में नहीं देखा - ऐसा स्पष्ट व्यवहार लोक में देखा जाता है और इस व्यवहार के कारण भागभेद से एक ही वस्तु में दर्शन और अदर्शन इन दो विरुद्ध धर्मों का समावेश स्वीकार किया जाता है और इस प्रकार एक परतु में विस्व एवं विभिन्नस्यता भी संभव होती है। देश, काल और पुरुष के अपेक्षा-भेद से एक ही वस्तु में विद्धता एवं विभिन्न रूपता अत्यन्त Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00 युक्तिसंगत है 15 इससे स्पष्ट है कि वस्तु का ज्ञान वस्तु की विशिष्ट दैशिक कालिक स्थिति ज्ञाता की विशिष्ट स्थिति और शक्ति के सापेक्ष प्रतीत होता है । अतः ज्ञान में इन अपेक्षाओं का निरूपण आवश्यक है । यही कारण है जैन दर्शन में वस्तु का ज्ञान चार अपेक्षाओं पर निर्भर माना गया है द्रव्य, क्षेत्र, काम और भाव । इन अपेक्षा भाव से प्राप्त ज्ञान को जैन-दर्शन में "नय" कहा गया है। नय ज्ञाता द्वारा एक विशिष्ट दृष्टि से अतधक वस्तु के एक विशिष्ट धर्म का ज्ञान है ।" रसेल का विचार: यहा पर रसेल के कुछ विचारों का उल्लेख आवश्यक है । पाश्चात्य दर्शन के आधुनिक युग के प्रमुख विचारक रसेल और जैन दर्शन के विचारों में काफी अन्तर होते हुए भी रसेल आधुनिक पाश्चात्य जगत के ऐसे दार्शनिक है जिनके कुछ विचार जैन दर्शन के कुछ विचारों से काफी समानता रखते हैं । रसेल भी इस प्रश्न को उठाते हैं कि यद्यपि प्रत्येक मन प्रत्येक क्षण इस मी जगत को देखता है किन्तु किन्हीं भी दो मनों को यह एक समान नहीं दिखाई देता । इस जगत में एक मन जो प्रत्यक्षीकरण करता है उसमें दूसरे मन के प्रत्यक्षीकरण से समानता नहीं होती । अन्य शब्दों में, प्रत्येक मन का प्रत्यक्षीकरण का अपना निजी जगत होता है जो दूसरे मनों के प्रत्यक्षीकरण से भिन्न होता है किन्तु फिर भी उसका अपना अस्तित्व होता है । इस दृष्टि से जगत के अनंत पक्ष होगें जो किसी मन द्वारा प्रत्यक्षीकृत नहीं किये गये किन्तु फिर भी उसका अस्तित्व है क्योंकि वे मन द्वारा प्रत्यक्षीकरण का विषय बनाये जा सकते हैं 18 इस जगत के एक विशिष्ट मन द्वारा प्रत्यक्षीकरण को रतेन दृष्टिकोण Perspective | कहते हैं, तथा एक मन द्वारा प्रत्यक्षीकृत जगत को Private Hored 1 इसे ही जैन दार्शनिक "नय" कहते हैं । रसेल इस private World Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को "प्रत्यक्षीकृत दृष्टिकोण" | Perceived Perspective | कहते हैं । प्रत्यक्षीकृत और अप्रत्यक्षीकृत अनंत पक्षों वाले इस जगत को रसेल system of Perspechnic कहते हैं । " प्रत्यक्षीकरण कर रहे हैं वह वस्तु का एक पक्ष प्रत्येक पक्ष वास्तविक है । जैनों का नय इस समय हम जिस वस्तु का है जो पक्षों के समूह का एक अंग हैं। से यही तात्पर्य है जो रसेल का Perspective से है । किन्तु रसेल का भौतिक वस्तुजगत विषयक विचार अनिश्चित और अस्पष्ट प्रतीत होता है वहीं जैन दर्शन में भौतिक जगत के वास्तविक अस्तित्व के विषय में कोई संदेह नहीं है । रसेल का कथन है कि वस्तु के सभी पक्ष वास्तविक है किन्तु वस्तु विभिन्न इन्द्रिय प्रदत्तों द्वारा निर्मित मात्र तार्किक संरचना है जो विभिन्न दृष्टिकोणों | Perspective I में प्रस्तुत होता है । इसका तो तात्पर्य होगा वस्तु जगत आत्मनिष्ठ अथवा कल्पनात्मक होना । किन्तु रसेल इसे स्वीकार नहीं करना चाहते और कहते हैं कि भौतिक जगत का यपि अपना कोई स्वतंत्र नहीं है किन्तु उनके अस्तित्व के विलय में संदेह नहीं किया जा सकता 110 किन्तु जैन दर्शन मैं "नव" ज्ञान की जो वस्तु के एक पक्ष का ज्ञान है वास्तविक माना है वहीं अनंतधर्मात्मक वस्तु का भी वास्तविक अस्तित्व माना है जो प्रमाण ज्ञान का विषय है । 3 नय और प्रमाण का संबंध : अब एक प्रश्न उडता है कि जैन दार्शनिक वस्तु का ज्ञान नय और प्रमाण दोनों के द्वारा मानते हैं, तो नय और प्रमाण ज्ञान में क्या संबंध है जैन दार्शनिक BF face पर पर्याप्त विचार करते हैं * ## 121 प्रमाण से जानी हुई वस्तु के द्रव्य अथवा पथाय में वस्तु के निश्चय करने को "नय" कहते हैं । ॥ प्रमाण से ग्रहण किये गये पदार्थ के एक देश में वस्तु का निश्चय करने वाले Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .90 131 शान को "नय" कहते हैं 112 विधि प्रतिबंधात्मक पदार्थ प्रमाण का 'विष्य है। तथा प्रमाग के विषय में से किसी एक धर्म को मुख्य और दूसरे को गौण करके मुख्य धर्म के नियमन में जो हेतु के वक्ष नय है । भय प्रमाण के द्वारा जाने हुए पदार्थ के एक अंश रूप में ज्ञान में माता की विशिष्ट मानसिक प्रवृत्ति को कहते हैं। नय में वस्तु के शेष अंशों का निय नहीं किया जाता उनकी उपेक्षा उस समय कर दी जाती है । प्रमाण पूर्ण पस् को गहण करके सभी प्रमों के समुध्यय स्म वस्तु को जानता है और प्रमाण द्वारा गृहीत पदार्थ के एक देशा में निश्चय कराने वाले भान को नय कहते हैं 14 नय धाभिद से परतु को ग्रहण करता है किन्तु पन्तु एक धर्मस्य ही नहीं है, उसमें तो अनेकों of हैं इसलिए सभी नय सापेक्ष अवस्था में ही सत्य होते हैं। आचार्य का धन है कि अनेक स्वभावों से, परिपूर्ण वस्तु को प्रमाण के द्वारा ग्रहण करके तत्पश्चात् एकान्तवाद का नाम करने के लिए मयों की योजना करनी चाहिये ।। जीवा दि ज्ञात तत्वों का ज्ञान दो प्रकार से होता है - एक देवा से और संदिशा से । प्रमाण के सारा सदिश से मान टोता है और नयों के द्वारा एक देश से ज्ञान 16 सम्यक् प्रकार के अर्थ 'निर्णय करने को प्रमाण कहते हैं 117 प्रमाण सदनिय स्प होता है। नय वाक्यों में स्यात् लगाकर बोलने को प्रमाण कहते हैं। 151 171 उपर्युक्त मतों से एक सामान्य निकाय निकलता है कि प्रमाण पूर्ण वस्तु का कान है और उसी वस्तु के एक अंश का ज्ञान नय है । लेकिन यदि ऐसा है तो नय को प्रमाण में शामिल कर लेना चाहिये ; मय को अलग से उल्लेख करने की क्या आवश्यकता है। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य इस बात को नहीं मानते क्योंकि उनका कथन है कि नय प्रमाण का अंश तो है किन्तु अंधा होने से स्वयं प्रमाण नहीं हो जाता । अकलंक देव के मत में वस्तु का एक देश न तो वस्तु है और न अवस्तु । जैसे समुद्र के अंधा को न तो समुद्र कहा जा सकता है और न असमुद्र कहा जाता है। यदि समुद्र का एक अंश समुद्र है तो शेष अंश असमुद हो जायेगा और यदि समुद्र का प्रत्येक अंश समुद्र है तो बहुत से समुद्र हो जायेगें । ऐसी स्थिति में समुद्र का बान कहाँ हो सकता है।18 इसी प्रकार माइल्लल कहते हैं कि नय प्रमाण से भिन्न हैं क्योंकि को समुद्र का अंश न तो समुद्र ही है और न असमुद्र ही वैसे ही नथ न तो प्रमाण है न अप्रमाण ही 119 मल्लिसेन कहते हैं नय से सम्पूर्ण वस्तु का नहीं किन्तु वस्तु के एक देश का ज्ञान होता है। इसलिए जिस प्रकार समुद्र की एक बूंद को सम्पूर्ण समुद्र नहीं कहा जा सकता क्यों कि यदि समुद्र की एक बूंद को समुद्र कहा जाये तो भल समुद्र के पानी को असमुद्र करना चाहिये । अथवा समुद्र के पानी की अन्य दों को भी समुद्र न कहकर बहुत से समुद्र मानने चाहिए । समुद्र की एक बूंद को असमुद्र भी नहीं कहा जा सकता | यदि ऐसा कहा जाये तो शेष उश को समुद्र नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार वस्तु के एक अंश के ज्ञान को प्रमाण अथवा अपमाण नहीं कहा जा सकता। इसलिए नय को प्रमाग और अप्रमाण दोनों से अलग मानना चाहिये 120 अकलंक इस निष्कर्ष पर पहुंचाते हैं कि नय न तो प्रमाण है और न अप्रमाण 'किन्तु ज्ञानात्मक है अत: प्रमाण का एक देश है इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं इस आंका के उत्तर में कि मय प्रमाण और अप्रमाण दोनों ही न हो, ऐसा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __.. 92. कैसे हो सकता है' अकलंक देव कहते हैं कि प्रमाणता और अप्रमागता के अतिरिका भी एक तीसरी स्थिति है "प्रमाणैकदेशाला' अर्थात् प्रमाण का एकदेशपना प्रमाण ही है, क्योंकि वह प्रमाण से सर्वथा अभिन्न नहीं है तथा न अप्रमाण ही है क्योंकि, प्रमाण का एफदेश प्रमाण से सर्वथा भिन्न भी नहीं है ।21 तत: नय को प्रमाण और अप्रमाण दोनों की कोटि में नहीं रखा जाता है। इसका कारण है कि नप प्रमाण का अंश नहीं वरन् ज्ञान के प्रमाण की कोटि में आने के पूर्व एक विश्वात या प्रारम्भिक प्राक्कल्पना की स्थिति है। जैन दार्शनिकों का नय विक उपयुक्त विचार तार्मिक दृष्टि से बड़ा अस्पष्ट और विरोधी है। उदाहरणार्थ - 1. वस्तु सा है। 2. स्यात् पातु सात है। यदि हम स्यादवादमपरीकार के धन को मान लें कि नय पाक्यों में स्यात् लगा देने से या प्रमाण बन जाता है तो इसका तात्पर्य होगा प्रथम वाक्य नय हैं और तिीय वाक्य प्रमाण है किन्तु ऐसा ताकि दृष्टि से कैसे संभव है क्योंकि दोनों कथनों द्वारा व्यक्त अभिमाय तो एक ही है केवल त्यात शब्द का प्रयोग नप और प्रमाण के बीच भेद का उचित आधार नहीं है। इसी प्रकार, 114 x has many properties such as a, b, c, d, m...mtc. यह प्रमाण भान है क्योंकि यह वस्तु x में अनेकों गुणों को स्वीकार कर रहा है किन्तु निम्नलिखित वाक्य नय हैं क्योंकि वे एक वस्त x में एक विशेष गुण स्वीकार पा अस्वीकार कर रहे हैं - $26 Syat * has the property a. 134 Syat x has the property b. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 93 04. Syat X does not have the property a. 51 Syat x does not have the property b. यदि वस्तुओं में एक गुण है तो द्वितीय नय वाक्य स्यात् वस्तु x में b गुण है यह कथन आशिक होते हुये भी ताकि दृष्टि से सत्य है । किन्तु यदि वस्तु मैं b गुण नहीं है तो चौथा नय बाय स्यात् धस्तु मैं b गुण नहीं है तार्किक दृष्टि से सत्य होगा जबकि प्रत्येक नयामक कपल को शिशिष्ट दृष्टिकोण से क्यों कि सत्य माना जाता है लिए उपयुत्त ताकि दृष्टि से असत्य कथन को सत्य माना जायेगा। ती पुकार, नय वाक्य के कुछ और उदाहरण देखें - 068 x ham the property a. 174 Syat x has the property a. tol * doas not have the property . 19 Syat xdoms not have the property b. स्पस्ट है कि प्रमाण वावध || के सत्य होने पर ताकिक रूप से दूसरे और पौधे वाक्य सत्य होगे किन्तु जैन दृष्टि से यह कथन दुर्नय माने जायेगें क्योंकि इनके पहले स्यात् शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। जब एक वस्तु x में ति स्म से एक गुण है तो इस कथन में कि स्यात् x मैं 4 गुण है इस नय वाक्य के सत्य होते हुए भी इसकी सार्थकता क्या है: शानमीमाता मैं अलग से इसके उल्लेख की पया आवश्यकता है' तथा जब वस्तु x में a. b.c, dte आदि गुण हैं जो स्यात् ४ में है गुण नहीं है, चाहे एकान्तवादी दृष्टि से ही क्यों न सत्य माना जाये ताकि दृष्टि से सत्य नहीं माना जा सकता। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनि: जो समुद्र की उपमा के द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि जिस तरह समुद्र की एक बैद अथवा अंश को समद नहीं कहा जा सकता, यह कथन भी उचित नहीं है। हम चावल का उदाहरण ले। चावल माहे बारे में भरकर रखा हो या एक छोटे बर्तन में हो चावल ही कहलायेगा। अतः स्पष्ट है कि प्रमाण और नय के बीच सम्बन्ध के 'विष्य में जैन दार्शनिकों के विचार तार्किक दृष्टि से उचित नहीं हैं और इसलिए शानमीमांतीय 'सिद्धात के रूप में यह ठीक नहीं हैं। क्षानमीमाता में नप और प्रमाण को तार्किक आधार पर प्रतिfi.orr करने की आवशयकता है। उपर्युक्त नय विषयक छैन व्याख्याओं से यह प्रतीत होता है कि नय द्वारा जैन दार्शनिक जो कहना चाहते हैं उसका आशय है - सातारा पस्तु का एक 'विशेष दुष्टिकोण से प्रत्यक्षीकरण | दूसरे शब्दों में, वस्तु के विषय में या सत्ता के 'विष्य में, व्यक्ति की अपनी मान्यता हो सकती है, अपने विश्वास हो सकते है जो उसके विशिष्ट दृष्टिकोण और प्रत्यक्षीकरण की विशिष्ट स्थितियों के परिचायक हैं। अतः स्पट है कि जैन दर्शन के मन में नय व्यक्ति का सस्ता 'विषयक विशि- विश्वास I belop | है 122 साथ ही, जैन दर्शन इस संभावना को भी स्वीकार करता है कि नयारा सम्पूर्ण वस्तु का ज्ञान नहीं मिलता अथात् वस्तु जो नप :राजानी गयी उसके अतिरिक्त भी हो सकती है। फिर जैग दार्शनिक इस पात को मानते हैं कि नय अथात् ध्यापित्त का यतिगत मत या परामर्श उस व्यक्ति के लिए सत्य हो सकता किन्तु आवश्यक नहीं जिप दूसरे स्थति के लिए reTT सार्वभौमिक स्य से भी सत्य हो ।25 वह दूसरे व्यक्ति के 'लिए असत्य हो सकता है। आधुनिक पाश्चात्य दार्शनिकों की भाषा में कुछ esident. Proporrhen असाथ : fals भी हो सकते 24 बात नय प्रमाण नहीं माना जा सकता । पाश्चात्य दर्शन में जो अन्तर belion और Knowledge में है वही अन्तर जैन दर्शन में मय और प्रमाण में है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ एक व्यक्ति जो एकदम रोशनी से अंधेर कमरे में आता है तथा अँधेरे में पड़ी हुई एक रत्ती को देखकर उसे तापस लेता है । किन्तु एक दूसरा व्यकि जो पहले से ही अँधेरे कमरे में है, अधेरे का अभ्यस्त हो गया है, रस्सी को रस्सी के रूप में ही देखता है । अब नय विषयक जैन विवारों को देखें कि प्रत्येक नय अपने दृष्टिकोण से सत्य है तो स्पष्ट होगा कि पहले व्यक्ति का ज्ञान उसके दृष्टिकोण से सत्य है और दूसरे व्यक्ति का ज्ञान उसके दृष्टिकोण से सत्य है । किन्तु हम जानते हैं कि पहले व्यक्ति का ज्ञान भ्रम है और दूसरे व्यक्ति का ज्ञान सत्य है । ऐसा हम किस आधार पर कहते है कहने का तात्पर्य है कि दोनों व्यक्तियों का ज्ञान उनके दृष्टिकोणों से सत्य होने पर भी प्रमाण नहीं है । प्रमाण केवल दूसरे व्यक्ति का ज्ञान है क्योंकि वह सत्यापित हो चुका है । इनका अभिप्राय कि इसका तात्पर्य है कि कुछ वाक्य | Preposihon | जो किसी व्यक्ति के लिए are ft Gurdout हों वे असत्य । 1 False । भी हो सकते हैं 25 कुछ कथन ज्ञाता के बिना जाने सत्य भी हो सकते है। किसी ज्ञाता के लिए सत्य कथन निया का सत्यता और असत्यता से तार्किक दुषि से कोई अनिवार्य संबंध नहीं है । यह आवश्यक नहीं है कि ज्ञाता के दृष्टिकोण से सत्य सिद्ध | Erdent | कथन तार्किक दृष्टि से भी सत्य हौं । यह अप्रमाणित व असत्यापित ज्ञान है । इतका तात्पर्य हुआ कि वस्तु व्यक्ति के अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण ज्ञान से परे भी कुछ हो सकती है जो कि प्रमाण का विषय है । प्रमाण अनिवार्य में सत्यापित ज्ञान होता है और नय असत्यापित 1 हमारा नज्ञान व्यक्तिगत मत, विश्वास। जब सत्यापित होता है तब प्रमाण की कोटि मैं आता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह ही कारण है जिससे कुछ जैन crafte नय को न तो प्रमाण की और न ही अप्रमाण की कोटि में रखना चाहते 12 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहा नय, धान और प्रमाण शब्दों के प्रयोग में gs farद हैं। जैन दार्शनिक ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। यहाशान शब्द के प्रयोग में म उत्पन्न हो गया है। जब ज्ञान को वह जो सत्यापित हो चुका है इस अर्थ में लेते हैं तो ज्ञान को इस अर्थ में प्रमाण माना जा सकता है। यहाँ ज्ञान और प्रमाण एकार्थक हैं। किन्तु मान तो सत्य भी होता है, मिथ्या भी। भान शब्द से हमारा अभिप्राय वगा समझा पायेगा' प्रमाण भाषद के प्रयोग का यह ही कारण था । ज्ञान में सत्यता और असत्यता दोनों की संभावना होती है किन्तु प्रमाण सत्य शान होता है। कान उत्पन्न होते ही उसकी सत्या का निधचय भी नहीं हो जाता अन्यथा भ्रम संभव न हो। अत: प्रत्येक नय दृष्टि में सत्यता की संभावना हो सकती है, अत: चिनिष्ट दृष्टिकोण से नय सत्य है। किन्त नयों की यह सत्यता सत्यता की शानमीमासीय गारंटी नहीं हो सकती। किसी भी नय विश्वास को बिना प्रमाणित किए सत्य कहना मानमीमातीय दृष्टि से महत्वहीन है। इस बात से इंकार नहीं किया ताकि लोगों को भ्रम और मिया विचारा होते हैं 126 से यह विषयात कि सूर्ण पृथ्वी के चारों ओर पू गा पृथ्वी रापटी है आदि । जससे संबंधित आधुनिक दार्शनिकों ने प्रश्न उठाया है कि भौतिक शास्त्र या अन्य शास्त्रों से संबंधित विश्वासों में भ्रम उत्पन्न होने की संभावना हो सकती है लेकिन उनका कहना है कि तक के नियमा अनिवार्य होते है, अत: मिथ्या नहीं हो सकते । इसलिए तक के नियमों में विश्वास में कोई भी नहीं हो सकता । यहा इसके उत्तर में कहा गया कि गणित के नियम भी तो तर्कशास्त्री भाति अनिवार्य हैं किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि हमें असत्य गणितीय भिवास नहीं होते। तात्पर्य है कि तार्किक नियम अनिवार्य सत्य हो सकते हैं 'किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि शास्त्र में भिध्या frare नहीं होते 127 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97 अतः स्पष्ट है कि विश्वास चाहे भौतिक क्षेत्र से संबंधित हों अथवा शुद्ध वैचारिक क्षेत्र से विश्वासों के असत्य होने की संभावना होती है इसलिए विश्वासों को स्थापित किये बिना ज्ञान नहीं माना जा सकता 128 गाननै 1 ithheld से किती कथन पर विश्वास करना उस पर अविश्वास करने या उसको न अधिक उचित है जब तक कि उसके विजय में कोई तर्कयुक्त 'प्रमाण न हो 29 । यहाँ पर भी सत्यापन का प्रश्न उपस्थित हो जाता है । नय और प्रमाण के मूल में यही सत्यापन का प्रश्न ही है । प्रमाणज्ञान सत्यापित नयविवचाता है । संदेह न हो या उसके पद ज्ञानमाता के आधुनिकतम रूप का प्रतिनिधित्व करने वाले chfoem की भाषा में इस समस्या को इस प्रकार रखेंगे। कोई भी कथन जिस पर कोई व्यक्ति विश्वास करता है उसके लिए स्वीकृति योग्य | Acceptable होगें । नय विशिष्ट व्यक्ति के लिए स्वीकृतियोग्य : Acceptable है किन्तु ये वीकृतियोग्य | Acceptable कथन क्या ज्ञानमीगासीय दृष्टि से तार्किक सदैव के परे भी होगे तार्किक संदेह से परे । Beyond Reasonable Doulot पद का स्वीकृतियोग्य Acceptable | पर से अधिक ज्ञानमीमाशीय महत्व है 130 2 उदाहरण के लिए, यह कहना कि मंगल-गृह में जीवन है, यह कथन एक प्राक्कल्पना, एक विश्वास के रूप में स्वीकृतियोग्य | Acceptalole हो सकता है किन्तु ज्ञानमीमासीय दृष्टि से इसे ज्ञान की कोटि में तब तक नहीं रखा जा सकता जब तक कि इसे तार्किक दृष्टि से प्रमाणित न कर दिया जाये । मंगल ग्रह पर जीवन है और मंगलग्रह में जीवन नहीं है यह दोनों ही कथन स्वीकृतियोग्य eplace हैं क्योंकि दोनों के पक्ष या विपक्ष में कोई प्रमाण नहीं दिया जा सका है। जैन दृष्टि में ये अपेक्षा भेद से सत्य है ही । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 98 "मंगल ग्रह पर जीवन है" यह स्वीकृतियोग्य IAcceptedake करन आवश्यक नहीं है कि तार्किक संदेश के परे | Beyond Reserable Deulaks भी हों। यपि ऐसा हो भी सकता है किन्तु आवश्यक नहीं है कि ऐसा हो ही। अत: यथापि इस कथन को मानना या न मानना kothhekai करना इन पर विश्वास करने की अपेक्षा अधिक तार्किक नहीं है किन्तु साथ ही यह भी मत्य है कि इनको स्वीकार कर लेना भी इनको न मानने bahnstd1 से अधिक तार्किक नहीं है। अतः कोई भी कधन मात्र स्वीकृत्तियोग्य Acceplalele | टोने से प्रमाण नहीं हो सकते । अब उन कचनों की स्थिति क्या होगी जो स्वीतियोग्य । और तार्किक सैदेह से परे IBarend. Reserade Doubt | दोनों हैं क्योंकि कुछ कटान ऐसे हैं जो स्वीकृतियोग्य IAcceptable हैं और ताजिक संदेड के परे भी है तो भी क्या ऐसे कयनों को निश्चित ज्ञान की श्रेणी में रखा जा सकता है। उदाहरण के लिये, मंगलगह पर जीवन है यह कथन स्वीकृतियोग्य Acceptable भी हैं और तार्किक सदैव से परे | Beyerd- Reasonabu Denis | भी किन्तु यह निश्चित मान नहीं है। जैसा कि अभी अपर स्पस्ट हो चुका है बस कथन पर विश्वास करना इस कथन को न मानने | Chhed से अधिक उचित है क्योंकि कधन हमारे जाने बिना भी सत्य हो सकते हैं 'किन्तु बानगीमाता की दृष्टि से इसे पूर्णतया निश्चित | Alossuntally cerauul कहना इसके विषय में पर्याप्त से अधिक कथन है ।। स बात को एक और उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है। जब तक चन्द्रमा पर मनुष्य नहीं पहुंचा था तब तक यह कथन कि "चन्द्रमा पर जीवन है और इसका विरोधी कामन "चन्द्रमा पर जीवन नहीं है प्राक्कलानाओं के व्य में संभाव्य सत्य आधुनिक दर्शन की भाषा में स्वीकृतियोग्य I Acceptable ft W or f ile or Beyond Reasonable Doubt i Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी थे। किन्तु दोनों ही कप्न पूर्णतया निश्चित नहीं | AbsGulbuy certain! थे क्योंकि प्रमाणित नहीं थे। चन्द्रमा पर मनुष्य के पहुंचने के बाद "धन्द्रमा पर जीयन नहीं है" यह कथन प्रमाणित हो गया इसशिर निश्चित ज्ञान एमाण की कोटि में आ गया। यदि विरोधी कथन 'चन्द्रगा पर जीवन नहीं है प्रमाणित हो जाता तो वह प्रमाग की कोटि में आ जाता | ऐसे कथनों की वास्तविक स्थिति व्यक्त करने के लिये जो स्वीकृतियोग्य I acceplace व तार्किक संदेह से परे | Berard Rameraldo Aaucts हैं किन्त पूर्णतया निश्चित I AHasolutely contains नहीं हैं, वास्तविक स्थिति व्यक्त करने के लिए crasheeun सिद्ध | Esident : शब्द का प्रयोग करते हैं, क्योंकि कुछ कान ऐसे हैं जो सिद्ध | Esrclear होते हुए भी असत्य हों। वे एक उदाहरण से इस बात को स्पष्ट करने की पेष्टा करते हैं 132 "पह देखता है कि छत पर एक बिल्ली बैठी है" क्या इससे यह निष्कर्ष निकलता है कित पर पास्तव में एक बिल्ली बैठी है। इस कथन की व्याख्या दो अधों में की जा सकती है - एक तो ऐसा हो सकता है कि छत पर वास्तव में बिलली हो ओर दूसरे, जब वह देखता है कि वहाँ एक बिल्ली है तो हो सकता है उसे शा भी हो रहा हो, वास्तव में पहा कोई बिल्ली न हो। समस्या यह उठती है कि उस व्यक्ति के ज्ञान को जो सत्य है किस प्रकार उस व्यक्ति के ज्ञान से भेद करेंगे जो भ्रम में है। यहाँ chashelm ने Herbet Hejde ldkex ges 33 को अदत किया है। एक मनुष्य विश्वास कर रहा है कि वह किसी वस्तु को पीले रंग की देख रहा है और इसलिए यह मन कि यह वस्तु पीले रंग की है उस व्यक्ति के लिए तार्किक है। किन्तु हम कल्पना करें कि मान लीजिए निम्न तथ्य उस व्यक्ति को बात है कि उस पस्तु पर एक पीला प्रकाश धमक रहा है। वह स्मरण करता है कि एक क्षण पूर्व जब उसने प्रत्यक्षीकरण किया था वह वस्तु सपद थी और उस समय वस्तु का कोई रंगीन पुकाया नहीं बम रहा Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 100 था। मालपना कीजिर कि धन प्रमाणों के होने पर भी वह विश्वास करता है fir वस्तु पीले रंग की है यधपि अब यह कालमा तत्य नहीं है कि वस्तु पीले रंग की है। केवल इस तथ्य से कि एक मनुष्य विश्वास करता है कि यह एक वस्तु में गुण x है, प्रत्यक्षा करता है इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि यह कथन तार्किक भी है क्योंकि अन्य प्रमाण हो सकते हैं जैसा कि उपर्युक्त विवेधन से स्पष्ट हुआ है, जिन्हें उस विशिष्ट कथन के साथ जोड़े जाने पर ये उस कथन को अतार्किक बना सकते हैं 134 इसका तात्पर्य यह है कि सभी सिद्ध | Evekanak | कथन सत्य हों ता आवश्यक नहीं है क्योंकि कुछ सिट । Eidour कप्न असत्य भी होते हैं कि Sundant कथन सत्य और असत्य दोनों हो पाते हैं इसलिए उन्हें ज्ञान की कोटि में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि ज्ञान प्रमाणित होता है। ऐसे कथनों को केवलासिद्ध सत्य विश्वास | Cordour TraiBelop | कहा जा सकता है। सत्य विश्वास ITava Betaap के ऐसे उदाहरण दिये जा सकते हैं जो ज्ञान नहीं हैं 135 उदाहरण के लिए एक व्यक्ति मान लेता है कि मैदान में एक मेड़ है और इस प्रकार यह कथन उसके लिए सिद्ध । Coconut | है कि मैदान में म है। अब मान लीजिए कि भूल से उस व्यक्ति ने एक कुत्ते को भे मान लिया है और इसलिए वह जो भेड़ देख रहा है, पारतव में भेद नहीं है। किन्तु ऐसा भी संभव है कि उस व्ययित के जाने बिना ही मैदान के एक दूसरे भाग में मे है। इसलिए यह कथन कि मैदान में एक भेड़ है सत्य True | भी है और सिम Euktak भी है तथा उस व्यापित के लिए स्वीकृतियोग्य | Acceptalok | भी है किन्त पारिस्थितियां यह स्वीकार नहीं करती कि उस व्यक्ति को ज्ञान है कि मैदान में इसका तात्पर्य है कि कोई भी सत्य विश्वास I True Bene | अब किसी असत्य वाक्य | False Pospos-hin | को सिद्ध । Eurcourya Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44VL बनाये तब बान knous tadge होगा। अधात जब तक सत्यविश्वास I Tme Bellip पू र्णप से प्रमाणित narity न किया जा सके ज्ञान | Knowledge I नहीं कहा जा सकता 16 अन्त में निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता डै कि विश्वास Belap | और शान I knowledge I में सत्यापन के दृष्टिकोण से अन्तर है। प्रमाणित confirmed gitt pustified Belief i gatos है । ज्ञान शुर में नय विश्वास के रूप में ही होता है क्योंकि कोई भी मान उत्पन्न होते ही प्रमाण नहीं हो पाता किन्तु यह नय प्रमाण नहीं कहा जा सकता जब तक कि सत्यापित न हो जाये । जैन दर्शन का मौलिक तत्व सापेक्षता का सिद्धान्त है । व्यवहारवादी और सापेक्षतावादी जैन दार्शनिक वस्तु-शान, पाद, अर्थ और व्यवहार प्रत्येक स्तर पर अपेक्षानों, आदेशों और दृष्टियों के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। स्यादवाद, अनेकान्तवाद, नयबाद और निक्षेपवाद इसी श्रृंखला की काहिया है। जैनदाशनिकों ने निक्षेपतत्व को भी नयों की तरह विकसित किया है। __ निपवाद भाषा' का लाभ है। नय अनेक रवभाववाली वस्तु की शाता के अभिप्राय के अनुसार प्रतीति है। नय माता के अभिमाय से एक धर्म की मुखगता से पस्तु को ग्रहण करता है । इरा नयात्मक धान की भाषाई अभिव्यक्ति ही निम योजना है। निक्षम योजना नगारमा जान की भाषाई अभिव्यक्ति में सापेक्षता कीशोतक है। उसी सापेक्षता की जो जो जैनदर्शन के समस्त सिद्वानों में व्याप्त है। निक्षेपवाद नथवाद की अनिवार्य परिणति है। वस्तुतः प्रयोग में विभिन्न शब्द व्यवहारों के कारण जो विरोधी अर्थ उपस्थित होते हैं उन विरोधी अर्थ को समझते हुये अपने अभीट अर्ध को उपस्थित करना ही निक्षेप-योजना का आधार है । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ यह दिखाने का स्पष्ट प्रयास किया गया है कि ऐकान्तिक आग्रह अथवा विश्वास ज्ञान के स्तर पर भी हो सकता है और उसकी अभिव्यक्ति के स्तर पर भी उसी प्रकार हो सकता है। अभिव्यक्ति का संबंध शब्द से है अतः जैनता किंकों ने बताने का प्रयास किया कि शब्दों के उचित अर्थ को अथवा वक्ता के अभीष्ट अर्थ को न समझना भियात्व अथवा ऐकान्तिक आग्रह का कारण है । इसी मिधात्व के निराकरण का कार्य जो कि शब्द प्रयोग से सम्बन्धित है निर्दोष योजना का आधार है । निक्षेप का अर्थ है अर्थ निरूपण पद्धति । जैन दार्शनिकों ने शब्दों के प्रयोगों को चार प्रकार के अथों में बाँटा है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव 137 प्रत्येक शब्द का एक व्युत्पत्तिमूलक अ होता है किन्तु कुछ शब्दों का प्रयोग इस व्युत्पत्तिमूलक अर्थ में न करके नाम arataये किया जाता है । यह नाम निक्षेप है । उदाहरण के लिये इन्द्र शब्द का प्रयोग व्युत्पत्तिमूलक अर्थ में नहीं किन्तु नाममात्र का निर्देश करने के लिये हुआ है । इसी प्रकार जब इन्द्र की मूर्ति को इन्द्र कहा जाता है तो यह शब्द प्रयोग का अभिप्राय है कि वह मूर्ति इन्द्र का प्रतिनिधित्व करती है, यह स्थापना निक्षेप है । इसी प्रकार द्रव्य निक्षेप का विषय द्रव्य है अर्थात् जहाँ "किसी द्रव्य के परिवर्तनशील भविष्य, भूत और वर्तमान पचायों को ध्यान में रखते हुये जो avartta शब्द प्रयोग करते हैं वह द्रव्य निक्षेष है । इसी प्रकार किसी शब्द का उसके व्युत्पत्ति सिद्ध अर्थ में प्रयोग करना भाव निदेश है 38 अतः स्पष्ट है कि निर्दोष योजना के पीछे भी जैन दार्शनिकों का अनेकांतवादी दृष्टिकोण ही है । वस्तु और भाषा में अनिवार्य संबंध है । जैनमत में अनेक Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्मक वस्तु का एक समय में एक ही गुण का मान हो सकता है। यही कारण है कि जैन दार्शनिकों ने नयों के कई प्रकार माने | भाषा में इस सापेक्ष शान की अभिव्यापित पा निक्षेपों का उददेश्य है । शब्द के द्वारा जब किसी वस्तु का आन नहीं होता तब तक ज्ञान का नयाrमक स्वरुप प्रकट नहीं होता। इन्द्रियों से यदि घट ज्ञान हो तो तरवार्थभाष्यकार के अनुसार वह नयज्ञान नहीं है। घट पाहने पर जब ज्ञान होता है तभी यह शुतज्ञान होता है । यही कारण है कि पन्तु का ज्ञान प्रमाण और नग तेलता है । मात्र इतना ही जैन दार्शनिकों के लिये पर्याप्त नहीं है। जैन दार्शनिक वस्तु के म सम्यक शान के लिये प्रमाण और नय के साथ ही निक्षम का भी उल्लेख करते हैं नयचक्र में कहा गया है कि जो पदार्थ प्रमाण नय और निम के रासम्मक रीति से नहीं जाना जाता पार पदार्थयुक्त होते हुये भी मयुक्त की तरह प्रतीत होता है और अयुक्त होते हुये युक्त की तरह प्रतीत होता है। इसके बिना यथार्थ वस्तु की प्रतीति नहीं होती 139 किन्तु प्रश्न उछता है कि प्रमाण और नय से वस्तु में मान के बाद निक्षेप का औचित्य क्या है' इस प्रश्न पर माइल्लघायल का कहना है कि मय और प्रमाण से गृहीत वस्तु में निदेष योजना होती है जिसका उद्देश्य है अपकृत का निराकरण और प्रकृत का निरूपण 140 आगे वे कहते हैं कि वस्तु प्रमाण का विषय है, पस्तु का एक अंश नय का 'विप है और जो अनय और प्रमाण में निणीत होता है वष्ट निक्षम का विषय शाद के द्वारा जब तक किसी परतु का ज्ञान न हों तब तक ज्ञान का नयात्मक स्वरुप प्रकट नहीं होता। यही कारण है कि जो चार अर्थ नय कहे जोते हैं - मैभम नप, संग्रह नय, ध्यपहार-नय और अजुपूत्र मय पे शब्द पर आश्रित हैं Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाकी तीन नय तो मुख्य रूप से शब्द पर ही आश्रित हैं, इसलिए उनके शब्दात्मक होने में कोई का नहीं है 142 कोई भी नम हो शब्द अथवा अर्थमय, शब्द सुनने के अनन्तर अपेक्षा से उत्पन्न होना नयात्मक होने के लिए आवश्यक है। जहा नयाान है पहा अपरिहार्य अपेक्षा का होना आवश्यक है । मामाघम नय अETRA शब्द बोध के रूप में होता है। जैन दार्शनिकों के मा में अर्थ वाध्य और बादों में वायक रूप एक स्वाभाविक योग्यता मानी गयी है। इस योग्यता के कारण ही धाद सत्य अर्थ का शान कराते हैं। स प्रकार बाद में पदार्थ का बोध कराने की भाबत मावत: विधमान है, किन्तु श की अर्थशोधक शानिया नहीं है। बल्कि प्रत्येक शब्द में विश्व के समस्त पदाधों का बोध कराने की प्रापिा है किन्तु यह शामिल होने पर भी मानव समाज द्वारा निर्धारित सकेत प्रणाली के अनुष्य ही शाद अपने पाध्य का प्रतिपादक होता है। यदि ऐसा न हो तो शद के प्रयोग का उददेश्य ही नष्ट हो जायेगा। अत: है कि नयवान अपेक्षात्मकान है और ज्ञानस्वरूप नय अपेक्षामक शब्दबोध के रूप में होता है। निक्षेप-योजना जैनों की नयों की तरह ही मौलिक योजना है। आगमयुग में अनुयोग are में निक्षेप को नय के ATM स्वतंत्र स्थान मिला जबकि प्रमाण को नहीं fHIT न्याय-युग में भी प्रायः सभी तार्मिकों ने तय निरूपण में प्रमाण और नय के साथ ही निवेश का भी विचार किया | उमास्वातिका कथन है कि नाम artद निषों मे-बस्त जीव आदि तत्वों का अधिगम प्रमाण और नय से करना पाहिए 144 अत: स्पट है कि भाषा और दर्शनमेजो एक गहरा संबंध है, इसे जैनदा - निकों ने साक्षि-भाववादियों से बहुत पूर्व समय लिया था। जैसा घिरगेन्स्टाइन कहते हैं कि परम्परागत दर्शनमें जो gfarप्तया प्रयोग में लाई जाती हैं, वे भाषा की दृष्टि से अस्पष्ट होती हैं 145 उसी तरह जैन दार्शनिक मानते हैं कि Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक शब्द का एक व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ होता है किन्तु व्यवहार में सदैव इस अर्थ का प्रयोग नहीं होता । फलतः भिन्न-भिन्न शब्द व्यवहारों के कारण विरोधी अर्थ उपस्थित होते हैं । यह निदेश का उद्देश्य उन सभी अर्थों को समझना और अभिप्रेत अर्थ का छान कराना है । जैसा कि विटेगन्स्टाइन कहते हैं कि यदि हम किसी प्रतिज्ञप्ति # proposhon 1 को समझ लें तो यह किस स्थिति को प्रकट करती है । भी समझा जा सकता है 146 अतः इस विषय में जैनदार्शनिकों और तार्किक भाववादियों में समानता है कि दोनों भाषा और ज्ञान में घनिष्ठ संबंध मानते हैं 147 सामान्य भाषा को त्रुटियुक्त पाते हैं तथा स्वीकार करते हैं कि स्पष्ट भाषा ही तत्व-निल्पण कर सकती है । -----: 0: Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ और टिप्पणी तताना, 1.16 नया, माइतलाल, सं00 कैलाशचन्द्र पास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ पुकामान, गाथा 163. पट्टी, गाधा 179. वही, गाधा 18. अनन्यायमण्डखाध, प्रलोक 53. यस्य तु अर्धस्याच्यावसायानाराणि शतानि । यता न विपतिपत्थो दृष्यस्याध्यवसायस्थानानाराणि एतानि ।। सपासूत्र, 1.35 अनन्सपायात्मकस्य वस्तुना न्यामपयायाधिगमे । करतध्ये जाप्युफ्त्योपक्षी निधमयोगो नमः ।। बाबायपाइ, जयाला टीका, 81. The three dimensional world seen by one mint therefore contains no place in common with that seem by another for places can only be constitute1 hy the things in or around them. Mance we may suppose, inspite of the differences between the different worlds, that each exists entirely exactly as it perceived, ant might be exactly as 19 evn 1€ it were not perceived. We may further suppose that there are an infinite number of such worlds which are infact unperceived..... On our knowledge of the matemal world, p. 94. .......... I shall contine the expression Private world, to such views of universe which are actually perceived. Thus a private world is a perceived "perspective" but then may be any number of unperceived perspectives............. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. 115 12. 13. 140 ܐ 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. Thus an aspect of a 'thing' is a member of the system of aspects which is the 'thing' at that moment All the aspect of a thing are real, where as the ehid pale thing is a merely logical construction. प्रमाणेन परिच्छिन्नस्य वस्तुनः द्रव्ये पाये वा वस्त्ययवसाय नय इति यावत् । - घटखडागम अनुयोगद्वारसूत्र प्रमाणमरिगृहीतार्थैकदेशे वस्त्वध्यवसाय नयः । - का पाहु जयधवली टीका, पृ० 207, श्लोक 70. प्रमाणनपतत्यलोकालंकार, 7.1 नयचकू, गाथा 168, 169. वही, गाथा 162. तत्वार्थश्लोकवतिकान्तगतनयविवरण, इलोक | स्यादवाद जरी मल्लिसेन, सं० ए०वी० ध्रुव, बम्बई, संस्कृत प्राकृत सीरीज, 1933 पू० 251, श्लोक 28. तत्वार्थवार्तिक, पू० भाग दो, पृष्ठ 132. नगचकू, गाथा 170, 171. स्यादवादमंजरी, पृ० 251. न्यायकुमुदचन्द्र 5.30 तत्पार्थसूत्र 1.35 dearersors, श्लोक 40. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. 25. 26. 27. 28. 29. 30. 31. Theory of knowledge, R.M. Chisholm, Prentice Hall, 1977, u. 99, 103. "But if it is possible for some propositions to be both evident and false, then as we shall see, it is also possible for a person to accept as true and evident proposition without there by knowing that that proposition is true - Theory of Knowledge, page 103. we are all liable to hold atleast some false heliefs." 108 Philosophy of Logic by Susan Haack, p. 232. Thit page 234. "True belief is not yet sufficient for knowledge. For if a person cannot give an account or x justification for what he hellaves truely, then Wo usally do'nt say that we really knows. -Problem in Philosophy East and West edited by R.T. Blackwood and ... Hermon. h is not more reasonable for s than accepting h." h is acceptable for a with holding Theory of Knowledge D1.2 Ihid, Page 6 certain नय Acceptable प्रमाण . Chisholm acceptable proposition a certain proposition भीतर करते हैं। ये Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32. 33. 34. 35. 36. (1) h is acceptable for a DP withholding his not more reasonable for s than accepting h. 11.3 (2) h is certain for a DP h is beyond reasonable doubt for 5, and there is no i Such that accepting i is more reasonable for s than Accepting h. Ibid D1.4 Ihid, Page 74 Ibid, Fage 75 Merely from the fact that a man believes that he perceives some thing to have a certain property F. it does not follow, accordingly that the proposition, that the something is P is reasonable one for him - he may have other evidences which when combined with the evidence that he believes that he perceives somthing to have F, may make the proposition that something is highly unreasonable." Thid, page 75. 40 Quatation of human knowledge, its scope and limit, by artrend Russell. without an account or justification, my true 1 is not knowledge. Thus true beliefs still star as a necessary but not a sufficient condition for knowledge # Problems in Philosophy, East and West. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. মধ্যপূণ, 1.5-।-15, ২৪. নশ্বালাকি , মূo 282, 39. লখল, শাখা,6-157, 10. এeী, খা16, বখামুগ,05-25. 11. নয়, শাখা 168. 42. সলুযৗগাস, মুগ ১৪, 51, 56 12, ঘী, 59. ৬. লালু, 45. tractatus logico-Philosophicus, Ludevig littgenstein. . 403 46, Thd, F, 4.021 47. fb1d. , ৪,55 পve ; 0 ===== Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx Б$$ - EXT ХХК затт ХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХХ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -अध्याय - - - - - - - - अनमान Name बैन दर्शन में अनुमान ज्ञान का साधन है किन्तु यहा अनुमान को स्वतंत्र प्रमाण नहीं माना गया है। चैन प्रत्यक्षा और परीक्षा दो ही प्रमाण मानते हैं। अनुमान को परोक्ष प्रमाणों के अन्तर्गत ही मान लिया गया है। इसका कारण यह है कि यहा' प्रमाणों में प्रत्यक्ष और परोक्ष के मध्य भेद का कारण है स्पष्टता और अस्प-टता का होना । अकालकदेव स्पष्टता की परिभाषा मैं कहते हैं कि अनुमान से, प्रत्यक्ष प्रमाण विशेष प्रतिभा सित होता है अर्थात् अनुमान को परोक्ष प्रमाण में इसलिए शा गिल किया गया है क्योंकि प्रत्यक्षा शान अनुमान से अधिक स्पष्ट है। यपि उमारवाति आगमिक परम्परा का अनुसरण करते हुए अनुमान को आभिनिबोधिक जान कहते हैं और उसे अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के अन्दर रखते हैं।' कहीं-काही अदालंक भी इसे मानस-प्रत्यक्ष कहते हैं किन्तु सामान्य स्पसे जैन दर्शन में अनुमान को परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत मानते की ही परम्परा है। जैन दार्शनिक प्रत्यक्षा-प्रमाण को अनुमान आदि परोक्ष प्रमाणों से स्पष्टज्ञान का सूचक मानते हुए भी यह मानते हैं कि अनुमान प्रमाण का एक साधन है और प्रत्यक्ष प्रमाण की भाति परोक्षा प्रमाण भी सत्य को जानने में समर्थ हैं। देवसरि का यहां तक कहना है कि यह कहना सत्य नहीं है कि प्रत्यक्षाप्रमाण सत्य मान के लिए परोक्ष-प्रमाण से अविश्वसनीय साधन है। किन्तु साथ में ये इतना अवश्य जोड़ देते हैं कि प्रत्या प्रमाण अनुमान की अपेक्षा अधिक स्पष्ट होता है। फिर ये यह भी कहते हैं कि यदि अनुमान न हो तो प्रत्यक्षाप्रमाण भी संभव नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष मान की वैधता प्रत्ययी कृत पस्तुओं की प्रकृति के साथ अनुकूलता और प्रतिकूलता पर निर्भर करती है और रा अनुपालता और प्रतिकूलता को अनुमान द्वारा ही खोजा जाता है । अनमान का लक्षण: जैन दार्शनिकों ने खेत से साध्य का ज्ञान होना अनुमान का लक्षण माना Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 है। हेतु के ज्ञान के आधार पर साध्य का ज्ञान होना तभी संभव है जब हेतु अनिवार्य रूप से साध्य से संबंधित हो तथा बेतु और साध्य सदैव साथ-साथ उपस्थित पाये गये हों। इसका तात्पर्य है कि अनुमान तभी संभा है जब हेतु और साध्य में अनिवार्यता का संबंध मान लिया जाये । जहाँ हेतु है वहा' साध्य है ; साध्य के बिना हेतु का पाया जाना संभव है।" बौद्धिक दार्शनिकों दो समान जैन बैधा हेतु के पत्थ, सपदसत्व और पिसाव, ये तीन लाण नहीं मानते हैं। बौद्रों के इन तीन लागों के अतिरिक्त नैयायिक हेतु में दो माग और जोड़ देते हैं - अबाधित - पियत्व और असत-प्रतिपक्षात्य । नैयायिकों का खंडन : जैन दार्शनिक बौद्धों और नैयायिकों का साइन करते हैं। पहाड़ पर आग है क्योंकि वहा पर धुआं है | इस उदाहरण मैं हेतु-आ है जो पक्ष "पहाड़ पर है। किन्तु इस अनुमान “आवाज अनंत है क्योंकि दृश्य है* मैं हेतु "दृश्यता है जिसकी विनता पक्षधर्मत्व नहीं है क्योंकि पहा "आवाज* में दृश्यता नहीं होती। जैन दार्शनिक हेतु की विशेषता के रूप में पक्षधर्मत्व को अनावश्यक सिद्ध करते हुए पानी में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब से आकाश में वास्तविक चन्द्रमा के अस्तित्व की सिति का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इस अनुमान के उदाहरण में आकामा पक्ष है जिसमें पास्ताविक चन्द्रमा है किन्तु साध्य अर्थात् वास्तविक चन्द्रमा का आकाक्षा में अस्तित्व होना यहा हेतु, प्रतिविम्बित चन्द्रमा से सिद्ध किया जा रहा है जो स्पट रूप से पा आकाश मैं नहीं होता इसलिए हेतु मैं पक्षधर्मत्य की विशेषता नहीं ति होती । आचार्य अफाक का कहना है “पापाट का उदय होगा कृत्तिका का उदय होने - इत्यादि, अनुमानों में कृति का का उदय पक्षधर्म नहीं है फिर भी उससे शाकाटोदय सि. होता है। अत: पातित्व अव्याप्त होने से हेतु-लक्षण नहीं है।' यह सत्य नहीं है कि जहां-जहा है, वहा पहाड़ भी है जैसे कि बहा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ شع है। हेतु के मान के आधार पर साध्य का ज्ञान होना तभी संभव है जब हेतु अनिवार्य रूप से साध्य से संबंधित हो तथा हेतु और साध्य सदैव साथ-साथ उपस्थित पाये गये हों। इसका तात्पर्य है कि अनुमान तभी संभव है जब हेतु और साध्य में अनिवार्यता का संबंध मान लिया जाये। जहाँ हेतु है वहा' साध्य है ; साध्य के बिना हेतु का पाया जाना असंभव है। बौद्धिक दार्शनिकों दो समान जैन वैध हेतु के पदधत्व, सपसत्य और चिपसरच, ये तीन लण नहीं मानते हैं। बौद्रों के इन तीन लागों के अतिरिक्त नैयायिक हेतु में दो लग और जोर देते हैं - अबाधित - पियत्व और असत्-प्रतिपात्य । नैयायिकों का खंडन : जैन दार्शनिक बौद्धों और नैयायिकों का सडन करते हैं। पहाड़ पर आग है क्योंकि वहां पर झा है । इस उदाहरण में हेतु- है जो पक्षा "पहा" पर है। किन्तु इस अनुमान “आवाज अनंत है क्योंकि दृश्य है" मैं हेतु "रयता है जिसकी विनता पक्षमत्व नहीं है क्योंकि पहा "आवाज में दृश्यता नहीं होती। जैन दार्शनिक हेत की विशेषता के रूप में पहच को अनावश्यक 'सिद्ध करते हुए पानी में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब से आकाश में वास्तविक चन्द्रमा के अस्तित्व की तिति का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इस अनुमान के उदाहरण में आकाश पक्ष है जिसमें वास्तविक चन्द्रमा है किन्तु साध्य अर्थात पास्तविक चन्द्रमा का आकाशा में अस्तित्व होना यहा बेतु, प्रतिविम्बित चन्द्रमा से सिद्ध किया या रहा है जो स्प-टप से पा! आकाश में नहीं होता इसलिए हेतु मैं पक्षधर्मत्व की ' विता नहीं सि होती। आचार्य अफालक का कहना है प्रापाट का उदय होगा कृत्तिका का उदय होने से - इत्यादि, अनुमानों में कृति का का उदय पक्षधर्म नहीं है फिर भी उसते शकटोदय ति. होता है। अतः परावृतित्व अव्याप्त होने से हेतु-लक्षण नहीं है।" यह सत्य नहीं है कि पहा-चला है, वहा पहा भी है जैसे कि पहा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 our है वहा आग है 110 सपक्षसत्व भी हेतु की विशेषता नहीं हो सकती। "आवाज शाश्वत है पोंकि प्रवणीय है", इस अनुमान में हेतु प्रवणीयता पक्षा आवाज का तो गुण हो सती है किन्तु सपा अधात् अन्य तत्वों का जो अनंत है जैसे काला का गुण नहीं हो सकती। विपक्षमत्व भी वैध हेतु की विशेषता नहीं हो सकता । और दार्शनिक जब ' वित्व को वैध हेतु का लक्षण कहते हैं तब उससे उनका तात्पर्य होता है कि वैध हेतु विपक्ष में नहीं पाया जा सकता | पहाड़ पर आग है - इस अनुमान में पानी आग का विरोधी है, अतः पानी में gort नहीं पाया जा सकता । जैन दार्शनिक बौनों के मत की आलोचना करते हैं। उदाहरण के लिये "आवाज अनंत है क्योंकि य है। इस अनुमान में हेतु जेयता है जो कि न केवल अनन्त वस्तुओं में है बल्कि सान्त वस्तुओं का भी गुण है । नैयायिकों के मत में वैध हेतु का लक्षण है कि उसे एक ऐसे निष्कर्ष का प्रतिपादन करना चाहिये गो दिये गये प्रधिकरण का विरोध न करता हो। पैनों का कथन है कि हेतु उपर्युक्त बौद्रों और नेयायिकों पारा कथित मिता के रहते हुए भी आभासयुक्त और अवैध हो सकता है। उदाहरण के लिए एक पाय है "वह हरा है क्योंकि वह उसका एक व्यकिा विरोध का दूसरे और पुत्रों के समान पुत्र है। इस वाक्य में हेतु की पूर्वोक्त पाचों विशेषतायें विधमान हैं, किन्तु फिर भी यह अवैध है । बौद्धों का इस उदाहरण के "विष्य में कथन होगा कि इस हैतु में विपक्ष-तत्व की विशेषता नहीं है क्योंकि यह नहीं कहा जा सकता कि जो हरा नहीं है यह अनिवार्यता उसका पुत्र नहीं हो सकता और चूंकि उस " विता का इसमें अभाव है इसलिए हैत अवैध है । जैनों का कथन है कि बौद्रों का उपर्युक्त आक्षम हेतु विषयक इस मत का Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का समर्थन करता है कि हेतु साध्य से संबंध के अतिरिक्त किसी तरह नहीं जाना जा सकता। इसी प्रकार नैयायिकों का हेतु-विश्यक मत भी अपरोक्ष रूप से जैनों के सत का समर्थन करता है। क्योंकि यदि हेतु और साध्य के बीच नैयायिकों के मत में अनौपााधिक सम्बन्ध अनिवार्य है तो फिर हेतु की और किसी विशेषता की आवश्यकता ही नहीं रह जाती| हेतु का अधिनाभाव लक्षण ही पर्याप्त है। इस संबंध को इस प्रकार दिखाया जा सकता है - जहाँ-जहाँ हेतु है वहाँ साध्य है और जहा साध्य नहीं है वहाँ हेतु भी नहीं है ।12 हेतु का साध्य के साथ पाया जाना सिद्ध करता है कि हेतु तभी होता है जब साध्य होता है अन्यथा नहीं होता । उदाहरण के लिए, रसोईघर मैं वहा आग है यहाँ देखा पा सकता है और यदि पहा अग्नि नहीं है तो यहाँ yा नहीं देखा जा सकता । हेतु और साध्य के अपृथक् संबंध को उपर्युक्त धुएं और अग्नि वाले उदाहरण के सन्दर्भ में ही आधुनिक प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र के प्रतीकों में निन्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है - हेतु 5 साध्य ~ साध्य •~ हेतु यदि T तो अग्नि अग्नि नहीं और gा नहीं। - सत्य - सत्य इससे सिद्ध होता है कि जिन मों में यह विशEAT नहीं है उसे साध्य नहीं पक्ष कहा जायेगा। साध्य की परिभाषा ही यहाँ दी गयी है कि जो हेत से अविरत है और जिसकी हेतु के साधा का की जाती है, वही साध्य है 115 यह सत्य है कि अनुमान हेतु और साध्य के अनिवार्य संबंध पर आधारित है किन्तु यहा प्रश्न है कि हेतु और साध्य के बीच यह अनिवार्यता का संबंध स्थापित कैसे होता है यह ठीक है जहाँ - जहा हम gurr देखते हैं वह-वहा हमें अग्नि अवश्य दिखायी पड़ती है किन्तु ऐसी सभी घटना या उदाहरण तो हम Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 देख नहीं पाते तो इस बात की प्रमाणिकता क्या है कि जहां-जहा धुँआ है वा-वहाँ अग्नि है । 400 इसका तात्पर्य है कि प्रत्यक्ष के द्वारा अविनाभाव संबंध सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस बात को एक उदाहरण से और स्पष्ट किया जा सकता है. किस आधार पर यह कहा जाता है कि कौवे काले होते हैं। सभी काँपों को देखा जाना तो संभव नहीं है किन्तु जितने काँपे आज तक दिखाई दिये हैं, वे सभी काते थे । एक भी ऐसा कौना नहीं दिखाई पड़ा जो काला न हो; इससे इस बात की संभावना होती है कि कौवे काते होते हैं । किन्तु कुछ काले कौवों को देखकर सामान्य और प्रामाणिक से सभी विषय में कोई कथन कैसे किया जा सकता है' ऐसा कथन मात्र ऐन्द्रिय प्रत्यक्ष के आधार पर तो किया नहीं जा सकता क्योंकि ऐन्द्रिय प्रत्यक्ष तो विशेलों का होता है । विशेषों के कितने ही उदाहरण हो किन्तु उनमे सामान्य का ज्ञान संभव नहीं है । प्रत्यक्ष वर्तमान का होता है जबकि ऐसा संबंध सार्वभौमिक और सार्वकालिक होता है 1 बोई भी अनुभाविक पद्धति ऐसे अनिवार्य और सामान्य संबंध की समस्या को हल नहीं कर सकती 116 इस अनिवार्य और सामान्य संबंध की समस्या को, पाश्चात्यदर्शन में, जा इसे "आगमन की समस्या कहा गया है प्रो० रसेल के शब्दों में इस प्रकार रखा या सकता है, रसेल यह संदेह करते हैं कि क्या किसी घटना के घटने के कई उदाहरण इस बात का प्रमाण है कि वह भविष्य में भी घटेगी और रहोल स्वयं ही कहते हैं कि ऐसी सभी आशायें संभावना मात्र है । इसीलिये उनका कथन है कि ये आशायें अवश्य पूरी होगी, कहने के बजाय यह कहना चाहिये कि वे पूरी होनी चाहिये | 7 रसेल की मूल समस्या यह ही है कि इस बात का क्या प्रमाण है कि किसी घटना के संदर्भ में भविष्य में भी वैसी ही घटेगी जैसी भूतकाल में हुई सूर्य भूतकाल में सदैव पूर्व से निकलता देखा गया किन्तु भविष्य में भी सूर्य पूर्व से ही निकलेगा इसका क्या प्रमाण है' रतेल का कहना है कि यह अनुभव के आधार पर सिद्ध नहीं Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जा सकता | साथ ही रसेल यह भी कहते हैं कि काल सूर्य निकलेगा हम बात का, अनुभव से डन भी नहीं किया जा सकता । जैन दर्शन हो या रसेल का दर्शन दोनों के ही मत में इस संबंध को न त अनुभव के आधार पर सिद्ध किया जा सकता है और न असिद्धही। यह ही पारण है कि पाश्चात्य दर्शन में इस सामान्य संबंध की स्थापना के लिए मिल ारा प्रस्तावित अन्वय, व्याविरेक आदि आगमनिक विधिया' असफल सिन हुई योकि ये विधिमा प्रत्यक्ष पर आधारित हैं तथा प्रत्यक्ष कु. उदाहरणों का हो सकता है। गभी का नहीं। डेविड ह्यूम ने यह ही कहा था कि इन्द्रियानुभव राहा किसी अनिवार्य और सार्वभौम सिद्धांत पर नहीं पहुँच सकते । अनुभव से केवल संभावनायें प्राप्त हो सकती है किसी प्रकार की अनिवार्यता नहीं । यद्यपि इयूम का यह कहना सत्य है कि इन्द्रियानुभव के आधार पर किसी अनिवार्य सार्वभौम नियम को सिद्ध नहीं किया जा सकता किन्तु इयुम की गलती यह है कि उन्होंने मात्र इन्द्रियानुभव को ही ज्ञान माना। कान मात्र इन्द्रियानुभा तक ही सीमित नहीं है परन् उससे परे भी है। जैसा कि हयुम के बाद आगे चलकर का ने इयुम की इसी आधार पर आलोचना की । इसका तात्पर्य है कि इस सार्वभौम और अनिवार्य सिद्धांत की बोष के लिए अनुभव के परे जाकर किसी नियम या आधार की खोज करनी होगी। पैसा कि रसेल का विश्वास है कि प्रकृति की एका पता में विश्वास का आधार कोई सामान्य नियम है, जिसका कोई अपवाद नहीं है। यह शिनात रसेल के मत में आगमन का सिलात है। रसेल का कहना है कि यह मात्र आगमन का सिद्धांत ही है। जो अनुमान को प्रमाणिक बना सकता है 18 इस शिलात को अनुभव के आधार पर न तो सिद्ध किया जा सकता है न अशिद्ध ही। आगे रसेल का कहना है कि इस आगमन के सिद्धांत को आन्तः प्रा प्रमाणिकता के आधार पर स्वीकार करना चाहिये अन्यथा भविष्य के विषय में हमारा कोई भी कथन या आशा प्रमाणित नहीं हो सकती। यदि हम आगमन के सिमात को नहीं मानते Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो हमारे पास यह कहने का कोई कारण नहीं रह जाता कि सूर्य फल भी निकलेगा। उनका कहना है कि हमारा सभी व्यवहार भूतकाल में घटित साहचर्य पर आधारित है और उसके हम भविष्य में भी होने की आशा करते हैं। भूतकाल के आधार पर भविष्य के विषय में उसकी आशा करना आगमन के सिद्धांत पर आधारित है 120 यदि जैन दर्शन के संदर्भ में यह जानने का प्रयत्न किया जाये कि यहा' अनुगान Tन ए आवश्यक हेतु और साध्य के अनिवार्य और सार्वभौम संबंध, ' गिध्याप्ति संस भी कहा जाता है, कि नाशिाता नित प्रकार स्थापित की गयी है तो पास होगा कि जैनों ने व्याप्ति संबंध की सिद्धि "तक-प्रमाण के द्वारा की है। प्रमाण मीमाता से कहा गया है कि सहभावियों का सहभाव 'नियग और कमभावियों का क्रमभाव नियम ही अविनाभाव है और उसका निर्णय तई से होता है 121 जिसे रसेल आगमन का 'तिमात Principle of-nbucheil कहते हैं उसे ही जैन दार्शनिक तर्क-प्रमाण के ..ारा व्यक्त करते हैं 122 तक जातिविपक सामान्य ज्ञान है और इसका पाश्चात्य दल के कार्य कारण संबंध, आपादन संबंध | mplicatheri | और अधिनाभाव संबंध से किसी सीमा तक तादात्म्य स्थापित किया जा सकता है। जैन दार्शनिक अनुमान को स्वतंत्र प्रमाण मानते हैं किन्तु अनुमान की प्रमाणिकता व्याप्तिान पर निर्भर हे तया व्याप्ति ज्ञान तर्क पर निर्भर है। इसलिए जैन दार्शनिक तक को स्वतंत्र प्रमाण मानते हैं।25 साध्य और साधन के अधिनाभाव संबंध को न तो "निर्विकल्प प्रत्याः जान सकता है और न साधिकल्प । अतः इसके जानने के लिए तापनाम का प्रमाणातर मानना चाइन्द्रियमाना और यो गिप्रत्यक्ष व्याप्ति को गहण करने में असमर्थ है 124 तर्क की परिभाषा प्रमाणमीमांसा में इस प्रकार दी गयी है - उपलम्भ और अनुपलम्भ के निमित्त से जो 'व्याप्ति जान होता है वह ही तर्क है 125 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याववाद मंजरी में तक की परिभाषा दी गयी है - "उपलम्म अर्थात् सवारदर्शन। और अनुपलम्भ अधात व्यभिचार अदर्शना से फलित साक्ष्य साधन के कालिक तंबंध आदि के ज्ञान का आधार तथा इसके होने पर ही यह होना और न होने पर न होना, इस आकार वाला जो मानसिक संवेदन है वह उस, उसका ही नाम "तर्क है ।-26 तर्क की व्याख्या में जो उपलम्भ और अनुपलम्भ शब्द का प्रयोग किया जाता है उसका अर्थ क्रमशः अन्यय सहचार, व्यतिरेक और अनुपलाि है। जैनों के "त* की Lयाख्या रसेल के आगमन के सिद्धात* की प्याच्या से काफी हद 11 साम्यता रखती है। रसेल ने इस सिात का वर्णन इस प्रकार किया है कि जब किसी एक प्रकार की वस्तु सदैव किसी एक दूसरी प्रकार की वस्तु के साथ जुड़ी पाई जाती है जैनों के शब्दों में अन्वय सहचार" और कभी भी उससे अलग नहीं' पाई जाती जैनों के शब्दों में व्यामिरेक, या अनुपलHिI, और जब यह संयोजन पर्याप्त माग में कई उदाहरणों में पाया जाता है तब वह विशेष प्रकार का संयोजन और ताहचर्ग अधिक संभाव्य हो जायेगा । इन साहय संबंध के पयाप्त मात्रा में उदाहरण गितने पर साहचर्य की सभाध्यता निश्चितता के निकट पहुंघ जायेगी ।27 __"जिस प्रकार रोल मानते हैं कि सामान्य का भान अन्तःप्रजा के माध्यम से होता है और हमारा सारा यथार्थ ज्ञान यहीं से शुरू होता है। इस आन्तः प्रधान के सत्य होने का रसेला दावा करते हैं 128 इसी प्रकार "तक" की , परिभाषा में जैन दार्शनिक अन्धय, व्यतिरेक को व्याप्ति गृहण का मात्र साधन ही मानते हैं। वस्तुतः च्याप्ति का ग्रहण मानसिक संवेदना या अन्तःपा से होता है जो अन्वय, व्यतिरेक रूप तथ्यों को सामान बनाकर व्याप्ति गृहण करता है। तर्क के आन्तः प्रा रूप का समर्थन प्रमाणमीमाता की स्योपत्ति में हेमचन्द्र ने किया है। उनका कहना है कि व्याप्ति गक्षण के समय ज्ञातायोगी समान हो जाती है 129 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिकों के अनुसार सामान्य और विशेष में अभेद है। तर्क अन्तःपूत्र शक्ति के द्वारा विशेष के प्रत्यक्षीकरण के समय ही सामान्य को भी जान लेता है । "तर्क" की जैन दार्शनिकों द्वारा जो परिभाषायें दी गयी है और व्याप्ति निर्धारण की जो प्रक्रिया बताई गई है उसके आधार पर "तर्क" के प्रतीकात्मक स्वरूप का इस प्रकार निर्धारण किया जा सकता है 130 J1M.P 12pm M 138n(GP),w (GP, M) 141 (MSP) [15] (MSP) VS (MSP) 161P.M) 17ाय IBIMOP जबकि Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ II इस प्रतीकात्मक स्वरुप का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जा सकता है और अग्नि भी है, अग्नि नहीं है और नहीं है, ऐसा कोई उदाहरण नहीं है कि ा अग्नि नहीं है और अग्नि नहीं । कितु ा है, बसालिये यह संकेत मिलता है कि जहाँ है तो अग्नि भी है, 151 किन्तु फिर संगय हो सकता है कि और अग्नि से व्यापित संबंध हो सकता है अथवा नहीं, 161 किन्तु ऐसा कभी भी सत्य नहीं है कि अग्नि नहीं है किन्तु या है, 17. अत: अग्नि मही है तो जा नहीं है, It इस प्रकार निका निकलता है यदि आ है तो अग्नि भी है। यापि जैन दर्शन ने "त" की अध्वा रसेल ने "आगमन के सिद्धांत की सिद्धि अन्तःप्रज्ञा के आधार पर मानी तो किन्तु क्या आत: पुमान के सार्वभौम रूप से सत्य होने का दावा किया जा सकता है' यपि जैन दार्शनिकों और रसेल दोनों ने ऐसा दावा किया है। यह पान इसलिए उठता है क्योंकि आत:पक्ष सत्यों में रसेल के अनुसार वैयक्तिमतता होती है, यह सबके लिये सत्य नहीं हो सकता । किन्तु सामान्य तो सबके लिए सत्य होता है तब सामान्यता को अंत:पक्षा के आधार पर सिद्ध करने का क्या तात्पर्य अध्या औचित्य रह जाता है' संभवतः यही कारण है कि रसेल आगमनात्मक साहचर्य अथवा संयोजन को 'निश्चित ही न कहकर निचय के निकट या संभाव्य जैसे शब्दों से व्यक्त करते हैं Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Алиби और संयोजन से संभाव्यता की मात्रायें मानते हैं । क्या यह विचार स्व-विरोधी नहीं है कि एक तरफ तो अन्तःप्रज्ञा द्वारा प्राप्त सामान्य ज्ञान की सत्यता का दावा किया जाये और दूसरी तरफ संभाव्यता की मात्रायें मानी जायें । रसेल । इसका उत्तर देते हैं कि अन्तःप्रज्ञा द्वारा ज्ञान प्राप्त कर जब्द हम उस पर विचार करके उसे अभिव्यक्त करते हैं तब उसमें भूल की संभावना हो सकती है। इसलिए उसमें सत्यता की आशिक गारंटी हो सकती है। ऐसे ज्ञान को रसेल वर्णनात्मक ज्ञान कहते है । इस बात को इस प्रकार समझाया जा सकता है कि हम जब प्रातःकाल सूर्य को पूर्व से निकलता हुआ देखें और कहें कि "सूर्य पूर्व से निकलता है" तो यह अतः पुत्रा ज्ञान है और इसकी सत्यता में कोई संदेह नहीं है किन्तु जब ये जानते हैं कि सूर्य पूर्व से निकलता है और इस आधार पर कहें कि सूर्य पूर्व से निकलता है तो रसेल के मत में यह वर्णनात्मक ज्ञान है और इसमें पूर्ण निश्चितता का दावा नहीं किया जा सकता क्योंकि यहाँ पर हम तथ्यों में संबंध बैठाते हैं । अतः आन्तः पूज्ञ सत्य के आधार पर प्राप्त ज्ञान में संभाव्यता की मात्रा होती है । इसलिए रसेल का विचार है कि हमारे ज्ञान का अधिकांश हिस्सा संभावित ज्ञान है । रसेल का यह विचार आलोचनाओं से परे नहीं है । । तो क्या इसका तात्पर्य है कि सामान्य का ज्ञान संभाव्य है, निश्चित "नहीं" रसेल के उपर्युक्त विचारों की आलोचना करते हुए प्रो. सालमन कहते हैं, यदि हम आगमन संप्रत्यय के स्पष्टीकरण के प्रयास में संभाव्यता के विचार की स्वीकार करते हैं और वाक्यों को आवृत्ति के अर्थ में लेते हैं तो हम एक परेशानी मैं फँस जाते हैं, तब यह कहना कहा तक ठीक होगा कि असंभाव्य निष्कर्षो की are संभाव्य निष्कर्षो को स्वीकार करना चाहिए । हम ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि यदि हम संभाव्यता को आवृत्ति अर्थ में लेते हैं तो यह दिखाना तरल होगा कि जो हमारे स्वीकृत आगमनों को निश्चित करते हैं अपने निष्कों को : ----- Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 संभाव्य स्प में स्थापित करते हैं। दुभाग्य से हम से किसी भी निष्कर्ष को प्राथमिकता नहीं दे सकते जो इस अर्थ में असंभाव्य निकषों से संभाव्य है 132 आगे तालमन का कथन है कि आगमनात्मक दर्शन का कार्य आगमन का प्रमाणीकरण करना नहीं है वरन् हमारी आगमानात्मक अंत:प्रज्ञा का क्रमबद्ध रूप में सुधार करना है। यह सरल कार्य नहीं है, क्योंकि हमारी अंत:प्रक्षा गहराई में धुपी हुई और एक दूसरे से संस कर सकती है। किसी भी स्थिति में जीगमनात्मक नियम के प्रमाणीकरण के लिये अतिम अपील आगममात्मा प्रमाण के संप्रत्यय के प्रति आतःपक्ष विदन है।" सालमन के मत में समस्या है क्या हम अपने आन्त:पक्ष अभ्यास को प्राथमिकता देने के लिये और विकल्पों के प्रति व्यवहार के लिए तर्क दे सकते है' यदि हम ऐसा कर सकते हैं तो वहीं आगमन का प्रमाणीकरण होगा। यद्यपि हम एक आगमानात्मक नियम से दूसरे आगमनात्मक नियम को प्रमाणित नहीं कर सकते फिर भी यह दिखाने का प्रयत्न कर सकते हैं कि एक आगमनात्मक नियम को दूसरे आगमानात्मा नियम से परीयता देने का क्या कारण है' किन्तु आगमनात्मक नियम के विषय में प्रो0 बारकर अपने विचार प्रकट करते हुए प्रो० सालमन से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है "मैं सालमन से इस बात में पूर्णतया सहमत हूँ कि यह सोया जा सकता है कि आगमन, राक के किसी दूसरे प्रकार से कम सफल हो सकता है, यह माना जा सकता है और यह एक तार्षिक संभावना | Possibility | है, किन्तु यह संभाव्यता I Prodabaty मही' है। क्योंकि हम यह निश्चित रूप से जानते हैं कि यह संभाव्य नहीं है कि आगमनात्मक अभ्यास का विरोधी कोई भी अभ्यास आगे जाकर उसी तरह सफल होगा पैसा आगमनात्मक अभ्यास होगा 135 समस्या यह ही है कि हम संभाव्य निष्कर्षों को असंभाव्य निष्कर्षों की अपेक्षा क्यों वरीयता देते हैं 36 प्रो0 बारकर का काम है कि यह प्रश्न उस प्रश्न जैसा ही है कि एक वस्तु की Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुन्दरता उसकी प्रश्मा का कारण क्यों है संभाव्य निष्कणों को वरीयता देने कान करना असंगत है 137 किन्तु प्रो० मैक्स का कहना है कि भूतकाल में सफलता से भविष्य में सफलता की संभाव्यता स्वयं एक आगमनात्मक नियम का प्रयोग करती है और ET प्रकार चक्क प्रतीत होती है 138 अतः प्रो० मैक्स ब्लैक आगनात्मक अनुमान के लिए नियम प्रस्तावित करते हैं जिले में sely supportnig Arguueut कहते है । In most instances of the use of 'R' in arguments with true premises examined is a wide variety of conditions, 'R' has been successful. Hence (Probable). In the next instance to be a countered of the use of 'R' is an a@ggument with true premises, 'R' will be successful. आगमनात्मक अनुमान का नियम जिसका आधार वाक्यों और निष्कर्ष मैं संकेत किया गया है वह यह है To argue from the most Instances of A's examined in a wide variety of conditions have been B to (Probably) the next A to be encountered will be B. प्रो० मैक्स ब्लैक के अनुसार उपर्युक्त नियम आगमनात्मक अनुमान के लिये पूर्णतया उपयुक्त है। 59 किन्तु प्रो० सालमन self supportig Argument की आलोचना करते हुए उसे चक्क बताते हैं, इस अर्थ में कि इस युक्ति को अंतिम Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I रूप में निष्कर्ष को सत्य स्वीकार किए बिना स्थापित नही किया जा सकता। इस स्थिति में यह होता है कि प्रयोग किए गर अनुमान के नियम की सत्यता को स्थापित करने के लिए बजाय आधार वालों की सत्यता के निष्कर्ष की सत्यता की स्वीकृति की आवश्यकता होती है किन्तु यह युक्ति को कम चक्क नहीं बनाता है। धक दोष तब होता है जबकि आधार वाक्यों में दिए गए तथ्यों का निष्क के लिए प्रमाण के स्प में प्रयोग किया जाता है 'विपरीत इसके कि निष्कर्ष को अस्वीकृत कर दिया जाता है तो आधार वाक्यों में व्यक्त तथ्य निष्कर्षा के लिए प्रमाण नहीं हो सकते 140 Prof. Salman's Counter-example is as to11cms *In most instances of the use of 'R' in arguments with true premises in a wide variety of conditions, *R* has been unsuccessful. Hance (Probable), in the naxt instance to be encounterer of the usa of 'R' will be successful. Rule is - ro argue trom most instances of 's examined na wide variety of conditions have not been 'B& to (probably) the next 'A' to be encountered w111 ba 8.41 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 126 संदर्भ और टिप्पणी प्रमाणनयतत्वलोकालंकार, 3.1,2 तथा प्रमाणमीमाता, 1.1.2 अनुमानाधिक्येन विशेषकाशन स्पष्टत्वं ।। तत्वार्थवार्तिक, 2-3. तत्याशून, 1.13 प्रमाणनयतत्वलोकालंकार, 3.7 प्रमाणमीमासा, 1.2-7. प्रमाणनयतत्वलोकालंकार, 3-11. 7. नतु भिलाकादिः ।। वही,3.12 यही, पृ0 198. तत्यालोकवार्तिक, पू0 199,200. नाहि यत्र-यत्र मस्ता-रान चित्रमानौति परित्रीपास्याप्यनुवृत्तिरत्ति ।। प्रमाणनयतत्वलो फालंकार, 3.19 घही, पू0 196-198. तथा परीक्षामुसा, 3.15,16 12. हेतु प्रयोगस्तथोप पत्तययेन्यथानुपन्तिम्पादिप्रकारः ।। प्रमाणनयतत्वलोकालंकार, 3.29 सत्येव साध्ये हेतोपपत्ति: तयोपपप्तिः । असति साध्ये हेतोरनुपपाप्तिरे पान्यथानुपपप्तिः वही, 3.30 ।। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ C यथा कृशानुमानयंपारप्रदेशः सत्येन कृशानुमत्ये arytur:, *Hur äft 11 met. 3.31 15. set, 3. 14, 15, 16. 16. Thus 11 kuowledge which, on a basis of experience talls us some thing about what is not experienced, is based upon baliof which experience can neither CORfim nor retute ...... (On Induction, B. Russell) The justification of Induction, edited by Richard Swinebune, Oxford University press, 1974, p. 24. Ibid, p. 19, 21. 18. The problem we have to discuss 19 whether there is any reason for believing in what called the unitomity of mature, 18 the belief that every thing that has happen or will happes 13 an instance of some general law, to which there are so exception., Ibid, p. 21. 19. Inductive principle however is equally incapable o£ baing proved by an appeal to Axperience. Ibid. p. 24. 20. Thus we must aither accept the inductive principle or on the ground of its intrinsic evidmace or forgo ml1 Justification of our expectations about the future. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ It the principle is unsound. We have no rex'OR to accept to rise tomorrow. All our conduct is based upon 4880ciation which have worked in the past and which we therefore regard as likely to work infuture, and thus likelihood independent or its Validity upon the Inductive principle. roid. p. 24. 21. महामभापिनो: सहमभाव नियमो अपिनाभावः, सान्निध्ययः ।। प्रमाणमीमांसा, 2.11,12,5. 22. पही, 1.35, 38. स्मरगप्रत्याभिज्ञानकतानुमानागत भेदान्तप्पंचपकारम् प्रमाणनयतत्वलोकालकार, 3.2 24. न्यायसुदचन्द्र, 3.1 25. उपलम्भानुपलम्भनिमित्त व्याप्तिज्ञानम् अEः ।। प्रमाणमीमांसा, 2.5 26. লাল গিফালীলা গান লক্ষাসিমিন सत्येव भवतीत्यााकार संवेदनमूहस्तकपिरपयाय यथा चावान् कश्चिताद धूमः स सावधनी सत्येव भवतीति तस्मिन्नराति अहान भवत्यैवेतिवा स्यादवाद मंजरी, पृ0 2-8. On Induction P. 7.3, 24. 28. Froblem of Philosophy, p. 162. 29. व्याप्तिकासे योगीव प्रमाता ।। प्रमाणमीमाता, 2.5 ति जैन दर्शन के तर्क प्रमाण* का आधनिक सन्दभों में गुल्याकन-डा0 सागरमल जैन, दार्शनिक त्रैमासिक, पर्ष 24, अंक 4, अक्टूबर 1978. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31. Problem of Philosophy, Chin. 6 The justification of Induction. The concept of Inductive evidence by Wesley, c. Salmon, Ox Induction, Chap. 3. p. 4. 33. The tank o€ Inductive Philosophy is not the Just 14h. cation of Induction but the reformulation of our Iwuctive Intentions ....... In any case ultimate appel for the justification Inductive rules is our intutive sense for the concept of Inductive evidence. Ihia, p. 52. 34, The problem is can be give reasons for preferring our unage intutions and behaviour to the alternatives ? It we can that will be the justification of Induction. Ibid. p. 56. 35. .... I fully agree with him that it it to conceivable that Induction might be less successful than some other way of reasoning, this is conceivable, and it is a logicni possibility, but it 1.not proble that any Inductive practice will be as muccessful in the long run as Induction will be. Ibia, (Is there a problem Induction, second part of SyRiposiwn on Inductive evidence), Chap. 3. 36, Problem is why is the fact that Induction is probably relimblo any real mason for relying upon Induction. Why should we prefer probable conclusion to improbable ones, Ibid. p. 59. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37. This question is too much like the qu*tion why 12 the beauty of a thing a reason for admiring it ? ...... Thus it is inconsistent to deny that probable conclusion are to be preferred. Ibid. p. 60. 38. Yet an argument from success in the past to probable success in the future itself uses an Inductive rule, and therefore seems circular. Nothing would be accomplished by any argument that needed to 48uro the reliability of an Inductive mule inorder to establish the rula', malleability. Self suprorting argument, VIII part of the symposium on Inductive evidence, on Inductions, Chap. III Ibid, p. 126. The so called self-supporting arguments are circular in the following precise sense. The conclusiveness of the argument cannot be established without assuring the truth of conclusion. It happens, in the case, that the assumption of the truth at the conclusion 19 required to establish the correctness of the rules of Inference used rather than the truth of the premises, but that makes the argument no less viciously circular. Quid P131 41. Ibid. p. 131. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ п , ізі 3 xxxxxxxxxxxxxxx xҳxxxxxxxxxxxxxxxxx सप्तम - अध्याय АҳроҳХХХХ মুল জী মিয়া Xxxxxxxxxxxxxxққxxxxxxxxxxxxxxxxxxx Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সদয় ছােয় दर्शन की समगता - - - - जैनमात मैं “दान का स्वरूप : जैन दर्शन में दर्शन शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट अर्थ में किया गया है। पाखा दान मोह-कर्म के उपनाम, क्षाय या योपशम रूप अन्तरंग कारण से होने वाले तत्वों के अर्थ में श्रद्धा करने को सम्यग्दर्शन करते हैं।' अकलंक देव और पूज्यपाद दोनों के मतों से तत्वायं में श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है । यो विषय दर्शन पद के स्थान पर "सम्यक्त्व पद का प्रयोग करते हैं। उनके मत से सम्यक्त्व प्रदा, दर्शन और तत्वधि, सभी समानार्थक शब्द है। किन्तु "म" की इन परिभाषाओं से यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि "दर्शन' का शानमीमातीय महत्व क्या है' या भान-प्रकिया मैं *दर्शन* की स्थिति क्या है' यद्यपि जैनों के अभिप्राय के अनुसार *दर्शन*ज्ञान-प्रक्रिया का एक अनिवार्य अंग है। यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि "दर्शन पद का प्रयोग जैन आचायों ने सदैव सम्यक पद के साथ ही किया है। परन्ता यह विघ्य है कि दर्शन के साथ सम्यक पद के प्रयोग की क्या सार्थकता है' सम्या पद के प्रयोग का जो औचित्य जैन दानिकों ने दिया है वह "दर्शन को ज्ञानमीमातीय महत्व प्रदान करता है, क्योंकि पदार्थों में यथाक्षानमूलक प्रदा बताने के लिये ही दर्शन के पूर्व "सम्यक पद का प्रयोग किया गया है। इसते "दर्शन के अर्थ में स्पष्टता आती है क्योंकि इससे दर्शन का अर्थ अन्यादा न होकर तत्व के वास्तविक स्वरूप के ताकि विश्लेषण का प्रश्न उपस्थित होता है। अकलंक के मत में सम्पक पद का प्रयोग "इष्टा में होता है। सम्पद को "तत्व" अर्थ में भी लिया जा सकता है। यहाँ "तत्व" का अर्थ है जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही चानना । आचार्य इस बात को स्पष्ट करने का प्रयत्न करते हैं कि यदि "तत्व- पद का प्रयोग न किया जाये तो यह समस्या उत्पन्न हो सकती है कि किस प्रकार की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहा जायेगा' क्योंकि Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके मत में मिथ्यावादि प्रणीत अर्थ भी तो लोगों द्वारा जाने जाते हैं परन्तु दे तत्व नहीं हैं। अत: "तत्व" पद का प्रयोग न करने से मिध्यावादि प्रणीत अर्थ पर प्रदा भी सम्यग्दर्शन कही जायेगी। यदि मात्र "अर्थ' शब्द का ही। प्रयोग किया जाये तो यूंकि "अर्ध" शब्द के अनेक अर्थ हैं इसलिए संदेह होगा कि 'किस अर्थ की श्रद्धा को सम्पादन कहा जायेगा । अतः इन ऐकान्तिक अथों के 'निराकरण के लिये तत्व पद का प्रयोग किया ही जाना चाहिए । सम्यग्दर्शन के निरूपण में "तत्व' शब्द के प्रयोग के औचित्य को सिद्ध करने के बाद आचार्य "अर्थ पद के औचित्य को भी बताते हैं। "अर्थ प्राब्द का अर्थ है "जो 'निश्चय किया जाता है ।' यदि "अर्थ शब्द का प्रयोग न किया जाये और मात्र तत्व ग्रहण को ही सम्यग्दर्शन कहा जाये तो यह समस्या उठती है कि कि एकातवादियों को भी तत्वदा होती है जिससे उनकी एकाणी प्रदा को भी सम्यग्रदान करना पड़ेगा। किंतु इच्छापूर्वक प्रदा को सम्यग्दर्शन नहीं कहा जा सकता। अत: निष्कर्ष निकलता है कि तत्व रुप से मान्य अधों की श्रद्धा ही सम्परदर्शन है। इसलिए दर्शन पद के पूर्व "सम्यक् पद का प्रयोग “दर्शन के आत्मगत अर्थ का निराकरण करके दर्शन को एक ताकि पद के रूप में प्रतिष्ठित करता है। ज्ञान और दर्शन का संबंध : "दर्शन" पद के और स्पष्टीकरण का प्रयत्न किया गया है। जैन दार्शनिकों ने आत्मा की चैतन्यायित को आत्मा का विशिष्ट गुण माना है। यह चैतन्यवाति जिसे जैन दर्शन में "उपयोग" भी कहा गया है दो प्रकार की है एक तो ज्ञानोपयोग और दूसरा दर्शनोपयोग । अथात् वैतन्यशयित ही ज्ञान और दर्शन रूप से कार्य करती है। आत्मा की इस शक्ति का नाम ज्ञान है जिससे पदार्थ जाने जाते हैं तथा उस शक्ति का नाम दर्शन है जिससे तत्व की श्रद्धा होती Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । आत्मा की चैतन्य शक्ति जब बाड्य वस्तु के स्वरूप को जानती है तब आत्मा की निराकार चैतन्या इस निराकार अवस्था में दर्शन कहलाती है । वस्था उसके दर्शन की अवस्था है ।" wad यह स्पष्ट होता है कि ज्ञान साकार है और दर्शन निराकार | जयला टीका में आकार का अर्थ घातलाया गया है कि सकल पदार्थों के समुदाय से अलग होकर बुद्धि के विषय भाव को प्राप्त हुआ कर्मकारक आकार पाया जाता है as arre उपयोग कहलाता है । 10 निराकार दर्शन इन्द्रिय और पदार्थ के सम्पर्क से पूर्व होता है । स्वावभाति चैतन्य को अनाकार दर्शन तथा बायवभाति चैतन्य की साकार ज्ञान कहते हैं । चैतन्य का स्व से भिन्न पदार्थों को जानना ही साकार होना है जबकि दर्शन का विषय अनारंग पदार्थ है। यदि दर्शन का विषय अन्तरंग पदार्थ न माना जाये तो वह अनाकार नहीं बन सकता अतः विषय और विषय के सम्पर्क के पूर्व अन्तरंग पदार्थ को ग्रहण करने वाला दर्शन होता है | 12 sa सन्दर्भ में अनाकार और अन्तरंग पदार्थ इन शब्दों का स्पष्टीकरण आवश्यक है क्योंकि पदार्थ तो साकार और मूर्तभौतिक ही होते हैं । "दर्शन का विषय अन्तरंग पदार्थ है" इससे क्या अभिप्राय है' यदि हम ज्ञान का तो देखेंगे कि ज्ञान में चैतन्य ही एकमात्र हेतु नहीं होता क्योंकि वस्तु का वास्तविक रूप चैतन्य को निरूपित करता है । यहाँ चेतन्य के अनुरूप वस्तु नहीं होती बल्कि वस्तु के वास्तविक रूप के अनुरूप चैतन्य धारा होती है। इसके विपरीत दर्शन में वस्तु की वास्तविक स्थिति क्या है यह प्रश्न नहीं उपस्थित होता क्योंकि यहां चैतन्य के अनुरूप वस्तु की अवधारण की जाती है। यहां पर चैतन्य प्रधान है । इस अर्थ में पदार्थ के arathe agree को अन्तरंग पदार्थ कहा जा सकता है क्योंकि यह चैतन्य द्वारा आत्मगत अनुभूति है जिसका भौतिक पदार्थ से संबंध नहीं हुआ है । यह एक Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AJ प्रकार से चेतना का वस्तुविषयक व्यक्तिगत भाव है जिसका वस्तु के वास्तविक म से कोई अनिवार्य संबंध नहीं है क्योंकि अभी तक चेतना का वस्तु से सम्पर्क स्थापित नहीं हुआ है । अतः ज्ञान में जब चेतना का वस्तु ते सम्पर्क स्थापित होता है तो इस बात की संभावना रह जाती है कि दर्शन ज्ञान के अनुरूप न हीँ । यह ही कारण है कि जैनाचार्यों ने माना है कि ज्ञान के द्वारा दर्शन का शोधन होता है । ज्ञान के बिना श्रद्धा की परिपुष्टि नहीं होती । इस दर्शन के विषय में एक मत यह भी है कि दर्शन का अर्थ है विषय और विषयों के सम्पर्क के बाद ज्ञान के पूर्व वस्तु का एक सामान्य अवभास या संवेदन | 13 मत के अनुसार विषय और विषयों के सम्पर्क के तत्काल बाद ही ज्ञान उत्पन्न नहीं हो जाता बल्कि इस सम्पर्क के बाद वस्तु का एक अव्यक्त ग्रहण होता है । वस्तु के इस प्राथमिक प्रत्यक्षीकरण या अन्नतः सवेदन को ही दर्शन है। किसी भी वस्तु के विस्तारपूर्वक जानने के पूर्व एक स्थिति होती है जब हम उस वस्तु को सामान्य रूप से देखते हैं और उस वस्तु के अस्तित्व से सचेतन होते हैं । दर्शन सत्ता की यही सामान्य अतः पुक्ष अनुभूति है । इस अनुभव के बाद ही प्रत्यक्षीकरण की क्रिया प्रारम्भ होती है । आत्मा का पदार्थ को जानने के लिये प्रयत्न करना ही दर्शन है क्योंकि यदि चेतना से सम्पर्क होते ही ज्ञान मान लिया जाये तो यह बहुधा हमारे अनुभव में आता है कि प्रतिदिन चलते हुये सोचते हुये विभिन्न कार्य करते हुये अनेकों वस्तुओं के सम्पर्क में हम आते हैं किन्तु वे सभी वस्तुयें ज्ञान की श्रेणी में नहीं आती क्योंकि उन सभी वस्तुओं को जानने का प्रयत्न हम नहीं करते । ज्ञान उन्हीं वस्तुओं का होता है जिनको जानने के लिए चेतना प्रयत्न करती है | दर्शन वस्तु का सामान्य संवेदन है जबकि ज्ञान स्पष्ट और विशेष | यह ही कारण है कि अकलंक और पूज्यपाद ने कहा कि दर्शन को ही प्रथम ग्रहण करना चाहिये तथा साथ में यह भी कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि जिसे दर्शन है उसे ज्ञान भी होगा, लेकिन हा, जिसे ज्ञान है उसे दर्शन अवश्य होगा 114 इस बात को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है कि मुझे सामने Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चुक्ष पैसा कम दिखाई पड़ता है किन्तु मैं यह जानने का प्रयत्न नहीं करती कि यह क्या है। यदि कोई मासे यह जानने का प्रयत्न करे कि मैंने सामने क्या देखा तो मैं नहीं बता सगी कि मैंने वक्ष देखा क्योंकि मुझे वृक्ष का एक सामान्य संवेदन आ था पिसे ज्ञान नहीं कहा जा सकता। इससे निष्कर्ष निकालाता है 'कि हमारे बहुत से संवेदन दर्शन के स्तर तक ही रह जाते हैं ज्ञान नहीं बन पाते; अर्थात् जिसे दर्शन हो तो यह आवश्यक नहीं है कि उसे ज्ञान भी हो। जिसे भान होगा उसे दर्शन अवश्य ही होगा क्योंकि वस्तु के विशेष साकार मान के पूर्व उसका सामान्य निराकार रविंदन अवश्य होता है। अतः दर्शन ज्ञान की प्रक्रिया का अनिवार्य प्रथम चरण है । इस मत के समर्थन का आधार यह है कि जैन दर्शन में ज्ञान का लक्षण दिया गया है स्वपरावभाति । अतः ज्ञान के इस लक्ष्मण को मानने पर दर्शन को अंतरंग पदार्थ का विवेचक नहीं माना जा सकता | मान विकल्प स्प होता है दर्शन सामान्य होता है जो कि विषय और वियों के सम्पर्क के बाद होता है। अतः स्पष्ट होता है कि ज्ञान और दर्शन में अनिवार्य संबंध है । अकलंकदेव के मत में से मेघ्पटल के हरते ही सूर्य का प्रकाश एक साथ ही फैल जाता है उसी तरह आत्मा में ज्ञान और दर्शन की युगपत् प्रवृति होती है।15 दर्शन के इस अर्थ से एक प्रश्न यह उठता है कि चूंकि अवग्रह का भी जैन दार्शनिक यही अर्थ करते हैं जो दर्शन का अर्थ, तो दोनों में क्या भेद है' अकलंकदेव इस बात का स्पष्टीकरण करने का प्रयत्न करते हैं। उनका कथन है कि विजय और विषयी के सम्पर्क के बाद पुथम समय में जो "यह कुछ है* इस प्रकार का विशेष्ान्य निराकार प्रतिभास होता है वह दर्शन कहलाता है उसके बाद दूसरे तीसरे आदि समयों में यह रूप है" "यह पुरुष है आदि स्य से 'विशेषाश का निश्चय अपग्रह कहलाता है। आचार्य एक सय: जात बालक के उदाहरण से इस बात को स्पष्ट करते हैं। यदि बालक के प्रथम समय में होने Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाले सामान्य अनुभव को अवगृह ज्ञान माना जाये तो वह कौन सा ज्ञान होगा' बालक के इस प्रथम समय के अनुभव को समाय और विपर्यय भी नहीं कर सकते। क्योंकि ये दोनों सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही होते हैं जिसने उस विषय का पक्षले सम्यरज्ञान प्राप्त किया हो उसे ही उस विषय में संशय आदि हो सकते हैं। इस प्राथमिक ज्ञान को संशय और विपर्यय नहीं कहा जा सकता। इसे सम्यग्ज्ञान भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि किसी अर्थ विशेष के आकार का निश्चय नहीं हुआ है। अबगृह से पहले वस्तु मात्र का सामान्य सवेदन स्य दर्शन होता है फिर रूप है" यह अवग्रह "फिर "यद शुक्ल लै या कृष्ण यह समाय, फिर "शुक्ल होना चाहिये यह ईटा फिर "शुक्ल ही है यह आयाय, उसके बाद आवाय की दृढतम अवस्था धारणा होती है। 6 ज्ञान-दर्शन-परित्र मोक्षमार्ग : जैन दर्शन में दर्शन शान और चरित्र को सम्मिलित रूप से मोक्षमार्ग FET गया है।17 यहा या पुरन उठाया जा सकता है कि पान को या चरित्र को एकाफिक रूप से मोक्ष का मार्ग क्यों नहीं कहा गया' दर्शन में क्या कमी है। जिसे शान पूरा करता है और मान में क्या की है जिसे चारिन पुरा करता है' दर्शन, ज्ञान और चरित्र में आपस में क्या संबंध है और यह सभी किस प्रकार मोक्षमार्ग में सहायक होते हैं" सर्वप्रथा हमें दर्शन होता है। जैन दर्शन में "दर्शन शाहद के दो अर्थ "मिलते हैं। एक तो दर्शन का अर्थ श्रद्धा से लिया जाता है और दूसरे, सत्ता की एक सामान्य आत:प्रत अनुभति के स्प में; अर्थात वस्तु के धानको दर्शन कहा गया है। यह आत्मा की एक प्रकार की आत्मगत अनुभति है। इसी आत्मगत अनुभूति के बाद प्रत्यक्षीकरण की प्रिया प्रारम्भ होती है । "दर्शन" पद का अर्थ कुछ भी लिया जाय किंतु उल्लेखनीय यह है कि दर्शन पद का प्रयोग सदैव "सम्यक् पद के साथ ही किया गया है, एकान्ततः नहीं, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 138 अथात जैनदर्शन में मोक्ष का अभिमाय केवल दर्शन से नहीं वरन् सम्यक् दर्शन से होता है । अत: दर्शन का अर्थ या प्रदा हो, चाटे Yemaleण के पूर्व की बात अनुभूति, वह मोक्ष के लिये उपयोगी तभी होगी | उसमें "सम्यकत्य* का गुण आ जाये। दर्शन को सम्यक्त्व का यह गुण ज्ञान ही प्रदान करता है। यथो विषय का मत है कि प्रदा की परिपुष्टि ज्ञान के बिना नहीं होती | अबानी की प्रद्धा बड़ी दुर्बल होती है जो सहज ही विपरीत सक से प्रभावित हो जाती है । उनके मत में ज्ञान से श्रद्धा का शोधन ठीक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार अंजन से नेत्र का 18 तात्पर्य यह है कि इसापूर्वक प्रT को सम्यक् दर्शन नहीं माना जा सकता । शान चूंकि दर्शन का परिकार वारता है असलिये भी है। यपि कहीं-कहीं जैन आचायों में मात्र प्रक्षा को मोक्ष का मार्ग कहते हुये दर्शन को जान से बताया है 120 वस्तुतः यह प्रश्न ही गलत है कि दर्शन 05 है या ज्ञान । ज्ञान और दर्शन पृथक नहीं है। प्रत्युत धान और दर्शन प्रत्यक्षीकरण की क्रिया की दो अवस्थायें या अंग हैं। ज्ञान और दर्शन Trमा की दो शक्तियां हैं। अथात आत्मा की चैतन्य शक्ति ही शान और दर्शन असे परिणमन करती है। आत्मा की निराकार चैतन्यता इसके दर्शन की अवस्था है और आत्मा की साकार चैतन्य अवस्था उसके ज्ञान की अवस्था हे 121 जान प्राप्ति की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के अनुसार भी ज्ञान के पूर्व वस्तु का एक सामान्य ग्रहण या आत्मा को उस तु की एक आन्तरिक या आत्मगत । अनुभति अवश्य ही होती है। इस प्राथमिक अनुभूत्ति के बाद ही व्यक्ति उसका ज्ञान प्राप्त करता है। बिना त आन्तरिक अनुभूति के जिसे "दर्शन" कहा गया, मान ही उत्पन्न नहीं हो सकता । अतः ज्ञान के पूर्व दर्शन अवश्य ही होता है। जैन दार्शनिकों का यह स्पष्ट मत है कि जिसे मान होता है उसे दर्शन अवश्य होता है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि दर्शन हो उसे आवश्यक नहीं है कि ज्ञान भी हो ही 122 हमारे बहुत से संवेदन या अनुभव इसी प्राथमिक अनुभूति के स्तर के ही बाद नष्ट हो जाते हैं। मान का स्प Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ふ तो वही संवेदन ले पाते हैं जो अधिक तीव्र होते हैं । दर्शन तभी सभ्य कहलाता है जबकि वह यथार्थ ज्ञानमूलक होता है 133 सम्यग्दर्शन ही ज्ञान के लिये उपयोगी होता है । अतः स्पष्ट है कि चूंकि ज्ञान और दर्शन प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया के ही दो अंग हैं इसलिए दोनों में अत्यन्त घनिष्ठ संबंध है । जैसा कि माइल कहते हैं - प्रमाण और नय ज्ञान के स्वरूप का निश्चय होने पर वस्तु का निश्चय होता है और वस्तु का निश्चय होने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है 124 अब ज्ञान और चरित्र के संबंध का जटिल प्रश्न आता है । जैन दर्शन में आत्मा का शुद्ध ज्ञानभाव ही उसका स्वभाव है तथा इसी स्वभाव की प्राप्ति मोक्ष है 1 25 जीव में जो स्वभाव सिद्ध गुण होता है उसे यहां स्वभाव कहा गया है। तात्पर्य यह है कि हापि ज्ञान को आत्मा का स्वाभाविक गुण मानने पर भी संसार अवस्था में यह गुण अनादि काल से कर्मबन्य आवाज से ढका हुआ है। कर्म का क्षयोपशम होने पर ही ज्ञान संसारी जीवों में प्रकट होता है । इसलिये ज्ञान जीव का स्वाभाविक गुण होते हुये भी arateefay और क्षायिक भाव में गिनाया गया है । धवला टीका में कहा गया है कि इस ज्ञान की वृद्धि और हानि के द्वारा जो तरतम भाव होता है वह निष्करण तो हो नहीं सकता क्योंकि वृद्धि और हानि न होने से ज्ञान के एक रूपस्थित रहने का प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु एकम्प से अवस्थित ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती है । अतः ज्ञान प्रमाण में होने वाली वृद्धि और हानि के सकारण ति हो जाने पर उसमें जो हानि के तरतम भाव का कारण है, वह आवरण कर्म है, यह सित हो जाता है 126 ater टीका में कहा गया है कि यदि कर्म को जीव से संबद्ध न माना जाये तो कर्म के कार्य मूर्त शरीर से जीव का संबंध नहीं बन सकता है। जैसा कि arsar ने कहा था वैसे ही जयला टीका में भी कहा गया कि यदि जीव Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का कर्मों के साथ अनादिकालीन संबंध स्वीकार न किया जाये तो वर्तमान काल मैं जीव और कर्मों का at it उपलब्ध होता है वह नहीं बन सकता 127 जीव की यह कर्मजन्य अवस्था क्षायोपशमिक ज्ञान रूप ही है । इस अवस्था को जीव का स्वलक्ष्य नहीं कहा जा सकता । आत्मा की शुद्ध नायकभाव अवस्था उसका स्वभाव है । अतः शुद्ध जीव के लक्षणों के द्वारा ही उसे ग्रहण करना चाहिये । षडागम में कहा गया है कि जीव के पूर्णस्वभाव की प्राप्ति होनी चाहिये क्योंकि स्वभाव वृद्धि का तारतम्य पाया जाता है जैसे शुक्ल पक्ष के चन्द्र मंडल का 128 जो कर्मजीव से संबंद्ध हैं ये सहेतुक होते हैं । यदि ऐसा न माना जाये तो जो जीव निव्यापार हैं उनको भी कर्मबंधन होगा | कर्म का कारण मिध्यात्व असंचय और कनाय है क्योंकि सम्यकत्व, संचय और विरागता का जीवद्रव्य के अविनाभावी ज्ञान की वृद्धि के साथ कोई विरोध नहीं है इसलिये वे जीव के गुण रूप से अवगत हैं 129 कथायें ज्ञान की विरोधी हैं क्योंकि कपायों की वृद्धि और हानि से क्रमशः ज्ञान की वृद्धि और हानि पाई जाती है । प्रमाद व असंचय भी जीवगुण नहीं है क्योंकि वे कायों के कार्य है । इस कारण ज्ञान, दर्शन, संचय, सम्यकत्व, क्षमा, मृदुता, अजिव, सन्तोष, विराग आदि स्वभाव गुण हैं, यह सिद्ध होता है 130 माइल का कहना है कि में ग्रोथ आदि से भिन्न एक परमतत्व हूँ, मैं केवल ज्ञाता हूँ । इस प्रकार की vara भावना होने पर आत्मा परमानन्दमय होता है 131 कहने का तात्पर्य है कि जब शुद्ध ज्ञाता रूप लक्षण पाली आत्मा को ग्रहण कर लिया तो उसके ध्यान के लिये इस प्रकार की भेदभावना की आवश्यकता होती है कि न मैं कोरूप हूँ न मानल्प हूँ, न मायारूप हूँ, न लोभप हूँ और न रागादिरूप हूँ, ये सब तो पुदगल के विकार हैं, जब तक इस प्रकार की भेदभावना नहीं होती तब तक ज्ञानादि की तरह क्रोधादि को भी अपना स्वभाव Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 मानकर रागद्वेष करता है । इस अज्ञान का नाश होने पर ही आत्मा परमानंद भय होता है। आगे मादल्लवल कहते हैं रामादि भावकम मेरे स्वभाव नहीं पया कि वै तो कर्मजन्य हैं मैं तो शाता आत्मा हूँ जो स्वसवेदन के द्वारा जाना जाता है; अधात् इस प्रकार भावना में निरन्तर लीन मुनियों में ही चरित्र पाया जाता है । आत्मा को जान लेने के बाद जो उसमें तल्लीनता बढ़ती है उसी का नाम पस्तुतः परित्र है । यशोविजय जी का कहना है कि ज्ञान में जो सम्यकत्व का गुण है यह धारण के बिना सम्पन्न नहीं होता। सच्चरित्र के पालन से ही ज्ञान में सम्यक्रम का उदय होता है । ज्ञान किया निरपेक्षा होकर पल का साफ नहीं हो सकता। चारित्र बल से व्यक्ति अपनी साधना में निरन्तर आगे बढ़ता जायेगा।" तात्पर्य यह है कि "स्वभाव* के गृहण और "परभाव को त्याग से ही कमों का क्षय होता है। अकाक के मत में आत्मा को दो चीजें बांधन में डालती हैं एक तो पासना युक्त मिथ्यावान और दूसरे अनेक जन्मों के संगृहीत कमपुण्य । बनमें से पृथ्म अर्थात् वासनायुक्त मिथ्याज्ञान का नाश तो ज्ञान से हो जाता है किन्तु पूर्व जन्मों के अवशिष्ट कर्म तब भी रह जाते हैं जो कि आमा की मुवित में बायक होते हैं। अतः उन कमाँ के क्षय के लिये चरित्र का पालन आवश्यक है 134 नया में कहा गया है कि तप से पूर्वसंचित फमाँ का क्षय होता है। ज्ञान प्रकाशक है, तप शोधक है और संचय मुक्ति करने वाला है । साय ही, ज्ञान, तप और संचय इन तीनों के मिलने पर मोक्ष होता है ऐसा जिन शासन में रहा गया है।35 सी में आगे कहा गया है कि शायोपशमिका ज्ञान के नष्ट हो जाने पर और अनंत मान के उत्पन्न होने पर देवेन्द्र और दानपेन्द्र जिन पर की पूषा करते हैं 16 नयचक में कहा गया है कि परित्र से युक्त्त जीव में परम तारण्य रूप मोक्ष पाया जाता है और यह परिन निरन्तर भावना में लीन मुनि तमदाय में Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाया जाता है 137 अंत में, 'निष्कर्ष के रूप में अकालवदेव का यह मत उपयुक्त ही है कि यपि तीनों शान-दर्शन-परित्र। मैं लक्षण भेद हैं फिर भी तीनों मिलकर एक ऐसी आत्मज्योति उत्पन्न करते हैं जो अखंड भाव से एक मार्ग बन जाती है । 38 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ और टिप्पणी 1. सत्यार्थदानं सम्यग्दर्शनम्, तत्वार्थाति भाग । पृ० 276. 2. सर्वार्थसिद्धि पू0 5. 3. जैनन्याण्डवाच गाया 73. 4. सर्वार्थसिद्धि, पू0 5. 5. सम्यगिष्टार्थतत्वयोः, तत्यार्थवात्तिक, पृ० 276. 6. वही, पृ० 296, 21. 7. वही, पू० 22-25. 8. वहीं, पू० 2660 9. जयश्वनाटीका, पू० 380. 10. वही, पृ० 338. 11. GET, 90 337. 12. arardarf, 9.29, 31. 13. जयधवलाटीका पू० 339. 14. तत्यातिकि, गाथ भाग एक, पू० 26-29. 15. वहीं, पू० 26-29. 16. राधा वार्तिक, भाग 1, पू० 307सम्यग्दर्शन ज्ञreafरत्राणि मोक्षमार्गः 17. तत्वार्थधिगम सूत्र 1.1 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. सम्यक्त्वमत्यनवगाढमृते किलैश दम्यासतस्तु समयस्य सुधावगाढम् । art fe शोधकमु यथाजनं स्यादक्ष्णो यथा य पचसः कतकस्यपूर्णम् ।। जैनन्यायखण्डखा गाथा 83. 19. सर्वार्थसिद्धि, पृ0 5. 20. जैन न्यायखण्डखाद्य, श्लोक 85. 21. तत्वाधलोकवात्तिक, भाग 1, पू0 26-29. 22. वही, पृ0 67-68. 23. तत्वार्यप्रदानसम्यग्दर्शनम्, वहीं 1.2 24. नययक, गाथा 178, 25. वहीं, गाथा 407, 408. 26. जययवलटीका, पृ0 56 57 58. 27. वही, पृ0 59. 28. षट्डागम, पू० 1 18. 29. जयधवलाटीका, पू0 60. 30. घडागम, पृ० 117. 31. नयचकू, गाथा 396, 397. 32. रागादि भावकम्मा मन्द सहायाण कुम्मणा जटमा । जो सर्वे गाडी सोयं वादा हवे आदा ।। नयचकु, गाथा 406. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 145 33. रतादगात्ममनन चिनिहन्ति मिथ्या भानं सवासनुमतो न तदुत्थबन्धः । कमान्तरक्षयकार तु पर चरित्र 'निर्बन्धमात्थ जिन | साधु नियोगम् ।। जैनन्याय खाव, गाथा 78. 34 तत्वावासिक, भाग । शलोक 65, 66. 35. वाणं पचास तयो तोरओ संजमों प गुप्तिधरी। तिपि समाजोर मोक्खो जिण्सासणे दिनी ।। नवपक, गाथा 120 36. उप्पणम्भि अति गम्मि य छादुत्थिये गाणे । देविदाणपिंदा करोति पूर्ण निरस्स It वही, गाथा 15. 37. मोक्यात परमतो जीवे चरित्र सजदे दि । भद जाइबग्गे अन्य भवणालीणे ।। वही, गाथा 405. 38. तत्वार्थवास्तिक, भाग 1, 65-66. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 148 xxxx xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx अष्टम अध्याय салтанаттым. xxxxxx Таг:T --fТАТІ xxxxxxxxxxxxx xxxxxxxxxxxxxxxxx Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय मिथ्यात्व-सिद्धान्त 1. अयथार्थ ज्ञान प्रमाण के साथ अप्रमाण का प्रश्न संलग्न रहता है। प्रमाण किसी वस्तु के वास्तविक स्वरूप का निश्चय करता है और मिथ्यात्व से भिन्न होता है । प्रमाण ज्ञान है क्योंकि यह हमें एक वस्तु को स्वीकार या अस्वीकार करने में समर्थ बनाता है ।। ज्ञान की वैधता नेय को स्वीकार करने पर है 12 ज्ञान का अपमाण्य इसके विपरीत है अथवा क्षेय को अस्वीकार करने में है ।' प्रमाण ज्ञान अनिवार्य से वैध अथवा निश्चित है क्योंकि यह समारोप का विरोधी है । इसका अभिप्राय यह है कि अपामाण्य वस्तुतथ्य का विरोधी है अथवा अप्रामाण्य समारोप है । समारोप का अभिप्राय है वस्तु जो नहीं है उसे उस रूप में जानना । अप्रामाण्य या मिथ्या त्व के तीन रूप हैं - संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय । संशय वहा होता है जहाँ उन कई पहलुओं को जानने का प्रयास किया जाता है जिनके विषय में अभी तक कोई निश्चय नहीं हो सका है, क्योंकि वहाँ अर्थात् उन पहलुओं के सन्दर्भ में न तो विरोधी तत्व मिल सके हैं और न ही समर्थक तत्व ही मिन सके हैं। जब दो या अधिक संभावनायें उठती हैं और हम इस स्थिति में नहीं होते 'कि इस पक्ष में निश्चय करें अथवा उस पक्षण में । यही स्थिति संशय की स्थिति है ।। उदाहरणार्थ यह निश्चय न कर पाना कि वह एक मूर्ति है अथवा मनुष्य 18 भम एक वस्तु का उस रूप में ज्ञान है जो वास्तव में वह नहीं है । भम विपरीत प्रत्यक्ष है । इसके उदाहरण हैं - सीप में रजत का बोध होना । 10 एक मीठी वस्तु का एक कड़वी वस्तु के रूप में ज्ञान, चाम-विकृति के कारण एक चन्द्रमा दो चन्द्रमाओं के रूप में दिखाई पड़ना और नाव की गति के कारण स्थिर वृक्ष का गतिशील वृक्ष के रूप में ज्ञान आदि । भ्रम या विपर्यय वस्तु का एक पहलू से 'निश्चय करना है जो कि वस्तु की सम्पूर्णता के ज्ञान से भिन्न है। किसी वस्तु के अनेकों पहलुओं में से यदि वस्तु का निर्णय दूसरे पहलुओं को नकारकर मात्र एक पहलू से किया जाता है तो वह ज्ञान विपर्यय कहा जायेगा । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक संशयावस्था और भी है - अनध्यवसाय - अनध्यवसाय की स्थिति स्मृति के अभाव में उत्पन्न होती है। किसी परिचित वस्तु पर अनमयस्कता के कारण ध्यान न देने की स्थिति को अनध्यवसाय कहते हैं ।।। यह वस्तु का एक प्रकार का निर्विकल्प प्रत्यक्षा है जिसमें वस्तु के विषय में विशिष्ट ज्ञान का अभाव रहता है । उदाहरण के लिए प्यास के मैदान पर चलते हुए मनुष्य की वह मानसिक स्थिति जिसमें उसे यह अनुभूति तो है कि पैरों के नीचे कुछ है किन्तु अनमयस्कता के कारण यह ध्यान नहीं देता कि यह क्या वस्तु है और उसका नाम क्या है । 12 एक तथ्य वास्तव में जो वह नहीं है उस रूप में निश्चित करने में समारोप होता है। मिथ्याज्ञान वस्तु के स्वरूप को गलत समझना है। मिध्याज्ञान में एक वस्तु वहाँ देखी जाती है जहां वह नहीं होती। भारतीय दर्शन में मिथ्यात्व की समस्या पर अत्यन्त विस्तारपूर्वक विचार किया गया । प्रत्येक भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों में भ्रम के विषय में विशिष्ट 'सिद्धान्त हैं। इसका कारण यह है कि भारतीय दाशीनिक मानते हैं कि दर्शन का आरम्भ बिन्दु मिध्यात्व का बोधा है। वे किसी वस्तु को उसकी सम्पूर्णता में जानने का प्रयास करते हैं और मिथ्यात्व के निराकरण के माध्यम से सत्य की खोज करते हैं। सत्य की खोज के प्रयास में मानव ज्ञान में असत्य का कुछ अंधा भी अनुभव द्वारा अवश्य प्रविष्ट होता है। वैज्ञानिक विधि में भी भ्रम की संभावनायें रहती हैं। वैज्ञानिक खाजें सत्य का अन्वेषण करते हुये निरन्तर संभावित मुक्तियों की खोज करती रहती हैं। यही कारण है कि वैज्ञानिक अनुसंधान का कोई भी निष्कर्ष अमेक्षिक ही होता है। आगे की खोजों द्वारा उसमें परिवर्तन की निरन्तर संभावनायें बनी रहती हैं। पर्स ने उन दार्शनिक सिद्धान्तों की कही आलोचना की जो यह सोचते थे कि मानव को सत्य का यथार्थता का पूर्ण ज्ञान है । पर्स का यह सुझाव है कि ज्ञान का अनुसंधान करते समय किसी विश्वास को जकड़े नहीं रहना चाहिये । पर्स के अनुसार असत्य संभाव्यतावाद वैज्ञानिक विधि से संबंधित भाति की संभावनायें। का Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्य लक्ष्य यह स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करना है कि वे किस प्रकार की बाधायें अथवा भ्रांतियाँ हैं जो वैज्ञानिक निर्णय में रुकावट डालती हैं । भ्रांतियों का पता लगने से चिंतन-पद्धति परिशोधित होती है । 13 यदि सत्य को जानने में अपनी इन्द्रियों और तार्किक शक्तियों पर पूर्णतया विश्वास किया जा सके, 'यदि इस बात को निश्चित किया जा सके कि ज्ञान को प्राप्त करने के साथ ही सत्यता का निश्चय भी हो जाता है तो वस्तु की वास्तविक प्रकृति को निश्चित करने वाले साधन रूप में न तो तर्कशास्त्र और न दर्शनशास्त्र ही संभव होता । अतः सुसम्बद्ध ज्ञान - सिद्धान्तों के आधार के रूप में भ्रांति का महत्वपूर्ण स्थान है । 14 जैनदर्शन के मत में अयथार्थ ज्ञान की उत्पत्ति में मुख्य हेतु प्रमाता या ज्ञाता ही हैं। सभी कुछ मिलकर ज्ञाता को भ्रांत कर देते हैं । यहा माना गया है कि साधनों और विषयों में दोष हो सकते हैं किन्तु यह दोष आत्मा की मोहावस्था के कारण ही कार्य करते हैं । अतः आत्मा जब निराकरण या सर्वता की अवस्था में होती है तो उस समय किसी प्रकार के भ्रम की संभावना नहीं रहती । अतः केवल ज्ञान ही अभ्रांत ज्ञान है। शेष ज्ञान प्रकारों में ज्ञान का वास्तविक, पूर्ण, सामान्य स्वभाव प्रकट नहीं हो पाता । अतः भ्रांति प्रमाता की आवरण दशा में ही संभव है । यद्यपि सभी आत्माओं में इस आवरणविलय की योग्यता समान होती है, किन्तु इस योग्यता का समान उपयोग परिलक्षित नहीं होता । यह उपयोग की विविधता बाह्य और आन्तरिक साधनों पर निर्भर है। विविधता के बाह्य कारण हैं विषयभेद, इन्द्रिय आदि साधन भेद और देशकाल का अंतर । आंतरिक कारण है ज्ञानों को ढक लेने वाले आवरणों की न्यूनाधिकता का तारतम्य | अभिप्राय है कि वाड्य और आन्तरिक इन साधनों की विविधता के कारण ही ज्ञान में अंतर आता है । जब आवरण- विलय नहीं होता अथवा अल्पमात्रा में होता है और बाह्य-सामग्री दोषपूर्ण होती है तो अयथार्थ ज्ञान होता है । 15 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAJU बाह्य सामग्री की दोषपूर्णता ज्ञानावरणों की उत्पत्ति का निमित्त मात्र ही होती है । वस्तुतः अयथार्थ या भ्रात ज्ञान की उत्पत्ति तो प्रमाता के ज्ञानावरणजन्य मोह या मढ़ता के कारण हति होती है। सभी दोष प्रमाता को मोहाच्छन्न कर देते हैं अथवा कहा जाये आत्मा की मोहावस्था के कारण ही सक्रिय हो सकते हैं । अत: जैनदर्शन के मत में भ्राति में मुख्य कारण आत्मा की मोह ही है, बाकी दोष निमित्तमात्र होते हैं। वस्तु यथार्थ है, इन्द्रिया दोषरति हैं फिर जो भ्रम होता है वह प्रमाता का ही दोष है। यदि साधन और विषय में दोष है तो भी वह आत्मा की मोहावस्था के कारण ही भ्रम उत्पन्न कर सकते हैं। अत: जैनदृष्टि से सभी दोष आत्मदोष की सहायता से ही भ्रम उत्पन्न कर सकते हैं ।16 जैनदार्शनिक मिथ्याज्ञान को विभाव ज्ञान की संज्ञा भी देते हैं। मति, वत और अवधि इन तीन ज्ञानों का अज्ञान भी माना गया है ।17 अज्ञान की अवस्था में ये कुमति, कुश्त और विभंग ज्ञान कहे जाते हैं |18 अभिप्राय है कि मति, श्रुत्त और अवधि ज्ञान सम्यक् भी होते हैं और मिथ्या भी। 19 यहा प्रश्न उठता है कि जिस भाति सम्यग्दृष्टि मति, भुत और अवधि से सपादि को जानता है उसी तरह से मिथ्या दृष्टि भी। अतः ज्ञानों में मिथ्यादर्शन से क्या भ्राति हुई १ 2. अज्ञान के दो प्रकार यहाँ ज्ञान और अज्ञान के विषय में जैनों का अपना विशिष्ट दृष्टिकोण सामने आता है। ज्ञान और अज्ञान का यहाँ दो दृष्टियों से 'विवेचन किया गया है - आध्यात्मिक दृष्टि और लौकिक दृष्टि । आध्यात्मिक दृष्टि के अनुसार सम्यग्दृष्टि मनुष्य के सभी ज्ञान, ज्ञान ही हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि व्यक्ति का सभी ज्ञान अज्ञान ही है। उमास्वाति के मत में वास्तविक और अवास्तविक का अंतर न जानने से यदृच्छोपलब्धि अथवा विचारशून्य Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलब्धि के कारण उन्मत्त की तरह का ज्ञान भी अज्ञान ही है किन्तु सम्यग्दृष्टि का सभी ज्ञान तो ज्ञान ही है 120 उमास्वाति का यही मत है कि सत् अर्थात् प्रशस्ततत्वज्ञान, असत् अर्थात् अज्ञान इनमें 'मिथ्या दृष्टि को कोई विशेषता का मान नहीं होता। वह कभी सत् को अतत् और असत् को सत् कहता है। यदृच्छा से सत् को सत् और असत् को असत् कहने पर भी उसका यह मिथ्याज्ञान ही है 127 आगे वह कहते हैं कि 'मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यादर्शन के साथ रहने के कारण इन ज्ञानों में मिथ्यात्व आ जाता है जैसे कड़वी तूमरी में रखा हुआ दूध कड़वा हो जाता है। उनके अनुसार यह शंका उचित नहीं है कि जिस तरह मणि, सुवर्णं गन्दे स्थान में गिरवार भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते' उप्सी प्रकार ज्ञान को भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ना चाहिये ! कड़वी तूमरी के समान मिथ्यादर्शन में ज्ञान दूध को 'बिगाइने की शचित्त है । यद्यपि गन्दे स्थान से मणि आदि में विकृति नहीं होती पर अन्य धातु आदि के सम्पर्क से सुवर्ण आदि भी परिवर्तित हो ही सकते हैं ।22 उमास्वाति का मत है कि जीव दो प्रकार के होते हैं - मोक्षाभिमुख और सासाराभिमुख । मोक्षाभिमुख जीव में समभाव की मात्रा और आत्मविवेक होता है । इसलिये वे अपने सभी ज्ञानों का उपयोग समभाव की पुष्टि में ही करते हैं । अत: उनका ज्ञान सांसारिक दृष्टि से अल्प होने पर भी ज्ञान ही होगा। इसके विपरीत संसाराभिमुख जीव का ज्ञान समभाव का पोषक न होने के कारण लौकिक दृष्टि से कितना ही अधिक हो अज्ञान ही कहा जायेगा क्योंकि वह सत्य और असत्य ज्ञान का अंतर जानने में असमर्थ होता है। अतः उत्तका सभी ज्ञान अज्ञान ही होगा । संसारी जीव की श्रद्धा विपरीत और समीचीन के भेद से दो प्रकार की होती है । 'विपरीत श्रद्धावाले व्यक्ति को विश्व का यथार्थ ज्ञान नहीं होता। यही कारण है जीव की श्रद्धा के अनुसार ज्ञान की समीचीन ज्ञान और मिथ्याज्ञान में विभक्त हो जाता है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारांश यह है कि जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि वाला व्यक्ति चक्षु के द्वारा वस्तुओं को ग्रहण करता है, शुत के द्वारा पदार्थों को जानता है और अवधि के द्वारा पदार्थों को ग्रहण करता है उसी प्रकार 'मिथ्यादृष्टि भी ग्रहण करता है किन्तु उन्माद के कारण वास्तविक और अवास्तविक का अंतर नहीं समदा पाता | रागद्वेष की तीव्रता और आत्मा की कारपूर्ण अज्ञानावस्था के कारण वह अपने ज्ञान का . उपयोग सिर्फ सांसारिक पासना की पूर्ति के लिये करता है, इसलिये उसका सारा लौकिक ज्ञान आध्यात्मिक दृष्टि से अज्ञान ही है 125 यह तो जैनों की अज्ञान विषयक अपनी विशिष्ट आध्यात्मिक आगमिक दृष्टि थी किन्तु यहा मुख्य प्रयोजन तार्किक या व्यवहारिक दृष्टि से है। ताकि या व्यवहारिक दृष्टि से भ्रम का उदाहरण है एसी में सर्प का ज्ञान, सीप में चांदी का भ्रम, मृगमरी चिका आदि । इस भाग के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। विवाद का विषय है भम क्या है १ भम की उत्पत्ति कैसे और क्यों होती है १ आदि-आदि । 3. 'विपरीत ख्यातिवाद भ्रम यथार्थ ज्ञान के विपरीत है और क्या है तथा क्या नहीं है इसके बीच भेद करने में असफलता है। जैन आचार्य वादिदेवसूरि के मत मैं म तब होता है जब वस्तु का एक पक्ष से 'निश्चय या निरूपण करते हैं। किसी वस्तु के कई अंग या पक्ष होते हैं। यदि इनमें से किसी एक ही पक्ष या पहलू से वस्तु का निर्णय करते हैं और अन्यों को छोड़ देते हैं तब वस्तु का ज्ञान भ्रम होगा ।24 उदाहरणार्थ देखने पर यह निश्चित करना कि सीप में चादी है जबकि सीप चादी नहीं है। सीप को यादी को रूप में समझाने की गलती करना ही भ्रम है 125 जैनों का भ्रम विषयक उपरोक्त सिद्धान्त भारतीय दर्शन में विपरीत ख्याति Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम से प्रसिद्ध है। कुमारिल और नैयायिक भी भमविषयक विपरीत ख्याति सिद्धान्त के समर्थक हैं। नैयायिकों का भी कथन है कि भ्रम विषय का यथार्थ रूप प्रकाशित नहीं करता। ऐसा होता है कि अधोरे में रस्सी को सर्प समझ लिया जाता है, सीप को चांदी समझ लिया जाता है। किन्तु यह ज्ञान भ्रम है। यह कैसे पता चलता है। यहाँ नैयायिक उपयोगितावादी दृष्टिकोण अपनाते हुये कहते हैं कि भ्रांतियां हमारे उददेश्य की पूर्ति करने में असफल होती हैं। अभिप्राय यह है कि यदि किसी वस्तु के ज्ञान के आधार पर उस वस्तु के संबंध में कोई कार्य किया जाये और वे कार्य सफ्ल निकले तो उस ज्ञान को यथार्थ समझना चाहिये और यदि विपलता मिले तो उसे भंम समझना चाहिये। जैसे सीप को चादी समझकर उठाते हैं किन्तु उठाने पर ज्ञात होता है कि वह तो मात्र सीप थी। जैनों और नैयायिकों के भ्रम विषयक इस विपरीत ख्याति सिद्धान्त की मीमांसकों और अद्वैतियों ने आलोचनायें की। मीमासकों का भ्रम विषयक सिद्धान्त 'विवेकाख्याति नाम से प्रसिद्ध है । __जैनों का मत है कि भ्रम विपरीत ख्याति में होता है, अर्थात् भ्रम प्रत्यक्षीकरण की विषयवस्तु से 'विपरीत वस्तु का भावात्मक प्रत्यक्षीकरण है। भ्रम में किसी वस्तु का ज्ञान उस रूप में प्रकट नहीं होता जिस रूप में वह है बल्कि उस रूप में प्रकट होता है जैसे कि वह वस्तु नहीं है । प्राभा कर मीमांसक जैनों के इस मत की आलोचना करते हुये कहते हैं कि भ्रम एक विपरीत वास्तविक से। वस्तु का भावात्मक प्रत्यक्षीकरण नहीं है बल्कि 'विवेकाख्याति अथात भेद के ज्ञान का अभाव है। यह ज्ञान का अभावमात्र है। मीमांसकों के अनुसार प्रत्येक ज्ञान सत्य होता है। जिसे भ्रम कहा जाता है वह स्मृति दोष है । भतकाल में देखी गयी वस्तु जो वर्तमानकाल में स्मृति का विषय होती है उसे वर्तमान में भी प्रत्यक्ष मान लिया जाता है । अर्थात् स्मृति और प्रत्यक्षा में भेद का अनुभव नहीं कर पाते । भ्रम भावात्मक मिथ्याज्ञान के कारण नहीं बल्कि अभावात्मक अज्ञान Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कारण होता है। प्रत्यक्ष देखे गये तत्व और स्मरण किये गये तत्व दोनों ही सत्य होते हैं किन्तु दोनों में जो भेद हैं भ्रम उसकी आख्याति या भेद है ।26 __जैन जो भ्रमात्मक प्रत्यक्षा में वैपरी त्य की बात करते हैं तो मीमांसक पूछते हैं कि भ्रमात्मक प्रत्यक्ष में क्या वैपरीत्य होता है १ मीमांसकों के मत में स्वयं भंम के विषय को वास्तविक विषय से 'विपरीत नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसमें अर्थ "कियाकारित्व नहीं होता अर्थक्रियाकारित्व-नैयायिकों के मत में सत्यता की कसौटी है। । इसके साथ ही मीमासक वस्तु की वास्तविकता को सदैव उसकी क्रियात्मक क्षमता पर निर्भर नहीं मानते । पानी के एक बुलबुले का दृष्टान्त दिया जा सकता है । वह बुलबुला जैसे ही इस पर हवा बहती है नष्ट हो जाता है । जिस क्षण बुलबुले का प्रत्यक्ष किया जाता है उस समय उसमें कोई व्यवहारिक क्षमता नहीं होती। हवा उसको नष्ट कर देती है और उसके प्रत्यक्षीकरण के कुछ समय बाद भी उसमें कोई कियात्मक क्षमता का अनुभव नहीं होता। बुलबुले में कोई क्रियात्मक क्षमता नहीं दिखाई पड़ती फिर भी बुलबुला वास्तविक है । अत: क्रियात्मक क्षमता की अनुभूति और अनानुभूति के आधार पर सत्ता के विषय में तर्क नहीं किया जा सकता 127 __जैनों का यह कथन कि भ्रमात्मक वस्तु वास्तविक वस्तु के विपरीत है इसकी भी मीमासक आलोचना करते हैं। मीमांसकों का कहना है कि भूम के विषय को 'विपरीत नहीं कहा जा सकता क्योंकि हमारा प्रत्यक्षीकरण उसे ऐसा ही प्रस्तुत करता है। यह पूछा जा सकता है कि कैसे किस प्रत्यक्षीकरण में भ्रम का विषय वास्तविक विषय से विपरीत प्रतीत होता है। निश्चित ही स्वयं भ्रमात्मक प्रत्यक्षीकरण में नहीं। भ्रम का जहाँ तक संबंध है प्रत्येक प्रत्यक्षीकरण अपने विषय को वास्तविक सा प्रस्तुत करता है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि भ्रम पूर्ववती ज्ञान द्वारा असत्य सिद्ध किया जाता है। पूर्वज्ञान भम के पूर्ववर्ती ज्ञान के रूप में उत्तरवती को गलत सिद्ध नहीं कर सकता क्योंकि जबकि पहले वाला ज्ञान मस्तिष्क में होता है तो बाद वाला उत्पन्न नहीं हो सकता । न ही यह कहा जा सकता है कि पूर्वज्ञान भ्रम के सहवती के रूप में इसे असत्य सिद्ध करता है क्योंकि ज्ञान के दो प्रकारों में सह अस्तित्व होना Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध किया जाता है। वह उत्तरवती ज्ञान जो अपने विषय के लिये विपरीत तथ्य रखता है पूर्वभम को गलत सिद्ध करता है तो यह कहा जा सकता है कि सब उत्तरवर्ती ज्ञान सभी पूर्ववर्ती ज्ञान की भ्रमात्मक विशेषताओं को सिद्ध करते हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि सब उत्तरवती ज्ञान पूर्ववती ज्ञान की असत्थता सिद्ध करते हैं, किन्तु एक उत्तरवती प्रत्यक्षीकरण जो पूर्ववती प्रत्यक्षीकरण का बाधक है पूर्ववती ज्ञान के भ्रमात्मक स्वरूप को सिद्ध करता है। प्रश्न है कि यह बाधाक क्या है ? यदि बाधाक से तात्पर्य मात्र अन्यत्व या भिन्नता है तो एक उत्तरवती असत्य ज्ञान को पूर्ववर्ती भ्रम के भ्रमात्मक स्वरूप को अवश्य सिद्ध करना पड़ेगा क्योंकि उत्तरवर्ती असत्य ज्ञान पूर्वभ्रम अनिवार्यतः भिन्न है। एक उत्तरवती भ्रम बाधक और पूर्वभ्रम को असत्य सिद्ध करने वाला नहीं कहा जा सकता । पुनः यदि बाधक से तात्पर्य हैं 'निराकरण स्थानान्तरण या पृथक्करण तो घड़ा का उत्तरवती प्रत्यक्षीकरण कपड़े के पूर्ववर्ती प्रत्यक्षीकरण के विरुद्ध कहा जाना चाहिये 128 प्रामाकरों के उपर्युक्त विचारों का जैन इस भाति उत्तर देते हैं। प्रश्न उठता है - एक भ्रमात्मक प्रत्यक्षा में क्या वैपरीत्य होता है 2 जैन कहते हैं कि वैपरीत्य वस्तु जैसी है उसके प्रत्यक्षीकरण से भिन्न एक प्रत्यक्षीकरण में होता है। एक सीप चादी की तरह कुछ चीज है पुनः कुछ ऐसी वस्तु है जो इससे भिन्न है। भ्रम में सीप एक सीप के रूप में प्रत्यक्ष नहीं होती वरन् एक भिन्न तरीके में प्रत्यक्षी होती है - रजत के रूप में प्रत्यक्ष होती है 129 प्रश्न उठता है पैसे, 'किस प्रत्यक्षीकरण में भ्रम का विषय वास्तविक विषय से विपरीत प्रतीत होता है १ जैन इसका उत्तर इस प्रकार देते हैं एक उत्तरवती ज्ञान जो भ्रमात्मक प्रत्यक्ष को इसके निराकरण द्वारा बाधित करता है स्पष्ट करता है कि पूर्ववती प्रत्यक्षीकरण भम था । 'निराकरण का यहा अभिप्राय पृथ्वंस नहीं है सुधार है। यह जानना है कि जिसे हमने पहले रजत के रूप में प्रत्यक्षीकृत किया वह वस्तुत: रजत नहीं था। इस प्रकार निराकरण भ्रम के विषय की असत्यता के ज्ञान में होता है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दिखाते हैं कि भ्रम में प्रत्यक्षीकरण की विषयवस्तु वास्तव में सीप है, जिसका कि वास्तविक रूप छिपा हुआ है तथा वह एक दूसरे रूप को ग्रहण किये होती है । भ्रमात्मक प्रत्यक्ष में जहाँ एक ओर सीम में विशिष्टता नहीं दिखायी पड़ती वहाँ दूसरी और सीप और चांदी में जो सामान्य विशेषतायें हैं जैसे चमक आदि, वह ही दिखाई पड़ती है, जो चांदी की धारणा को जागृत कर देती है, तथा प्रत्यक्षीकरण के विषय पर चांदी के रूप को आरोपित कर देती है 130 प्राभाकर कहते हैं कि भ्रम प्रत्यक्ष के विषय और स्मृति में भेद के अभाव का अनुभव है । इसकी आलोचना करते हुये जैन कहते हैं कि भेद का क्या अर्थ है ? क्या यह अननुभूति निषेधात्मक प्रत्यक्षीकरण है या अभेद । प्रत्यक्ष और स्मृति के आधारा का भावात्मक प्रत्यक्षीकरण है । प्राभाकरों के मत के संदर्भ में पहली स्थिति संभव नहीं है क्योंकि उनके मत में अभावात्मक का कोई प्रत्यक्षीकरण नहीं हो सकता । प्राभाकर दूसरी स्थिति को भी स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि यह स्थिति उन्हें विपरीत ख्याति मत के निकट पहुंचा देगी । उनके विचार में भेद की अननुभूति न होने का मात्र तात्पर्य है चांदी और सीप की सामान्य विशेषताओं का प्रत्यक्षीकरण 131 जैन कहते हैं कि प्राभाकरों का उपर्युक्त विचार उनकी सहायता नहीं कर सकता क्योंकि हमारे सत्य प्रत्यक्षीकरण में भी सामान्य विशेषताओं का प्रत्यक्षीकरण शामिल है । उदाहरणार्थ सीम को सीप के रूप में प्रत्यक्ष होता है जो सीप और चाँदी दोनों में सामान्य है | 32 प्राभाकर इसके उत्तर में कहते हैं कि सीप के एक वास्तविक या सत्य प्रत्यक्षीकरण में इसकी सामान्य बातों के अतिरिक्त इसकी विशिष्टताओं को भी देखते हैं । जैन इसका भी खंडन करते हुये कहते हैं कि प्राभाकरों का यह मत दिखाता है कि सामान्य विशेषताओं का एकाकी प्रत्यक्षीकरण कभी नहीं होता और प्रत्येक प्रत्यक्षीकरण में सामान्य बातों के अतिरिक्त वस्तु की विशिष्टतायें भी होती हैं । तब भ्रम कैसे हो सकता है जो कि प्राभाकरों के अनुसार किसी भी सामान्य विशेषताओं के प्रत्यक्षीकरण मात्र से होता है । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे जैनों का यह भी कहना है कि प्रामाकरों का यह मत भी सही नहीं है। प्रत्यक्षीकरण और स्मरण की दोनों प्रक्रियायें स्वयं चेतन प्रक्रियायें हैं। जैनों का कहना है कि यदि अपरोक्ष प्रत्यक्षा अपरोक्ष प्रत्यक्ष के रूप में अनुभूत हुआ और स्मरण स्मरण के रूप में तो वहा भ्रम कैसे हो सकता है। यदि यह कहा गया कि । भ्रम तब उत्पन्न होता है जब प्रत्यक्ष का तत्व स्मृति के तत्व के रूप में उत्पन्न होता है अथवा जब स्मृति का तत्व प्रत्यक्ष के तत्व के रूप में उत्पन्न हुआ, क्यों कि तब तो जैनों के मत में भ्रम का यह सिद्धान्त व्यवहारिक रूप से विपरीत ख्याति है। इसी भाति विपरीत ख्याति और अद्वैतवादियों में भी भ्रम के विषय में तर्क-वित हुआ । विपरीत ख्याति की आलोचना करते हुये अद्वैतवेदान्ती कहते हैं 'कि किसी अन्य स्थान-काल में उपस्थित चांदी इस समय इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो सकती क्योंकि यह इस समय इन्द्रियों के समक्ष प्रस्तुत नहीं है। अभिप्राय है कि वर्तमान समय और स्थान में भतकाल के विषय का प्रत्यक्ष संभव नहीं है। इनके मत में यदि शीप चादी से बिल्कुल भिन्न है तो उसके साथ तादात्म्य कैसे हो सकता है । विपरीतख्याति में बाह्य वस्तुओं का लौकिक और अलौकिक रूपों में विभाजन नहीं है। यहाँ बाह्य वस्तुओं का ज्ञान संभव है। अतः अनिवचनीयख्यातिवाद संभव नहीं है। साथ ही विपरीतख्यातिवाद के अनुसार बाह्य वस्तुयें पूर्णरूप से ज्ञानरूप' या शून्यरूप या पूर्णरूप से सत् नहीं है। अतः यहा आत्मख्याति, सख्याति और असत्या ति भी संभव नहीं है। विपर्यय का अभिप्राय है अन्य आधार में अन्य प्रत्यय का होना । सीप में सीप का ही प्रत्यय अविपरीत प्रत्यय है जबकि रजत का प्रत्यय विपरीत प्रत्यय । मन में विद्यमान या उत्पन्न चादी को बाह्य वस्तु में देखना ही यहा भ्रम है । 35 अकलंक की युक्तियों के आधार पर विद्यानन्दि ने भ्रमज्ञान का भी प्रामाण्य सिद्ध किया है। इन्द्रिय दोष के कारण दो चन्द्रमा दिखायी देने में संख्याश के Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय में विसंवाद होने के कारण संख्याज्ञान अप्रमाण है किन्तु चन्द्र के स्वरूपाश में तत्वज्ञान सम्यग्ज्ञान अविसंवा दि होने से उस अंश में ज्ञान प्रमाण ही है । अतः ऐकान्तिक रूप से कोई भ्रम भ्रम नहीं कहा जा सकता 134 यदि किसी ज्ञान में प्रामाण्य और अप्रामाण्य नियत नहीं है तब एक ज्ञान को प्रमाण और दूसरे ज्ञान को अपमाण कैसे कहा जा सकता है। इस प्रश्न के उत्तर में अकलंक ने कहा कि संवाद या विसंवाद की मात्रा से प्रामाण्य और अप्रामाण्य का निश्चय होता है । जिस ज्ञान में संवाद की अपेक्षा विसंवाद की मात्रा अधिक होगी उसे अप्रमाण कहा जाता है जैसे कस्तूरी दृव्य में स्पशादि गुणों की अपेक्षा गधा गुण की मात्रा अधिक होने से वह गंधद्रव्य कहा जाता है वैसे ही भ्रमज्ञानों में संवाद की अपेक्षा विसंवाद की मात्रा अधिक होने से व्यवहार में उन्हें अप्रमाण कहा जाता है 135 एक अन्य दृष्टि से भी भ्रम में प्रामाण्य अप्रामाण्य का विचार हो सकता है। स्वप्रकाशावादी जैनदृष्टि से सभी ज्ञान स्वपरसवे दि है । अतः वे स्वाश में प्रमाण और पराशा में अप्रमाण हैं। ज्ञान की बाह्य और आंतरिक वैधाता स्वीकार कर के जैनों ने मीमांसा दार्शनिकों के सिद्धान्त का विरोध किया है 136 यह ज्ञान के वास्तववादी सिद्धान्त की ओर संकेत करता है और यह सिद्ध करता है कि सभी प्रमाण ज्ञान है किन्तु सभी ज्ञान प्रमाण नहीं है। एक इन्द्रियानुभति तब तक प्रामाणिक है जब तक वह तत्संबंधी व्यवहार में उपादेय बनी रहती है। सामने जल है। यह जलसंबंधी इन्द्रियानुभति तब तक सत्य है जब तक उससे प्यास बुझ सकती है अथवा उसकी अन्य प्रकार से पुष्टि होती रहती है 137 इस प्रकार प्रत्येक तत्व की वैधता व्यवहारगत उपादेयता की विषय है। हा जैन इस परत: प्रामाण्य निर्णय को सर्वथा सत्य स्वीकार नहीं करते। जैसे-जैसे ज्ञान की सार्वभौमिकता में विकास होता जाहा है परत: प्रामाण्य स्वतः प्रामाण्य में बदलता जाता है। इस प्रकार जैनों को परतः और स्वत: दोनों ही प्रामाण्य मान्य है । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 159 4. जैनमत और पाश्चात्य मिथ्या सिद्धान्त जैनों का मिथ्या त्वसिद्धान्त पाश्चात्य दर्शन में तथा वास्तववादी भांतिसिद्धान्त के काफी समीप प्रतीत होता है । माटेग्यू भमान की व्याख्या भौतिक और पारीरिक स्थितियों की सहायता से किसी आत्मगत हस्तक्षेप के बिना करते हैं। ज्ञान की स्थिति की कल्पना माटेग्यू में एक ज्ञानमीमासीय त्रिकोण के रूप में की है। जिसके तीन कोण हैं - वास्तविक वस्तु, उत्पन्न की गयी मानसिक स्थिति, प्रत्यक्षीकृत वस्तु । दूसरी स्थिति तीसरी स्थिति से अवगत कराती है। सामान्य स्थिति में यदि वास्तविक बाह्य वस्तु द्वारा वही प्रभाव उत्पन्न किया गया है तब उस प्रभाव से आपादन द्वारा यथार्थ रूप से उसके कारण को जाना जा सकता है। यहा प्रत्यक्षीकृत वस्तु और वास्तविक वस्तु एक सी होगी। किन्तु ऐसा हो सकता है कि विभिन्न 'स्थितियों में वही प्रभाव विभिन्न कारणों से हो । वैसी स्थिति में दोनों अनिवार्य रूप से एक नही हैं और भ्रम उत्पन्न हो सकता है। इस प्रकार माटेग्यू के अनुसार भम की उत्पत्ति प्रभावों की विपरीतता से होती है । अतः माटेग्यू के अनुसार भ्रम मस्तिष्क के गलत संकेत देने में निहित होता है, जो विभिन्न भौतिक वस्तुओं द्वारा विभिन्न भौतिक और शारीरिक स्थितियों में उत्पन्न होता है या हो सकता है। एक मुड़ी हुई छड़ी को जो जमीन पर पड़ी है सामान्य शारीरिक परिस्थितियों में एक मानसिक स्थिति उत्पन्न करती है जो वही शारीरिक परिस्थितियों में एक आशिक रूप से पानी के अंदर डूबी छड़ी के द्वारा भी उत्पन्न की जाती है। दोनों ही स्थितियों में हमारा मस्तिष्क बाह्य कारण के रूप में एक मुड़ी हुई छड़ी की मानसिक स्थिति से संचालित होता है। पहली स्थिति ज्ञान की स्थिति होगी और दूसरी स्थिति भ्रम की स्थिति होगी। 39 होल्ट के अनुसार भम इस वस्तुगत जगत में विद्यमान विरोधी तथ्यों और नियमों के कारण है। उनके अनुसार एक नियम कहता है ऊपर दूसरा कहता है नीचे Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LUU और यहाँ तक कि एक नियम दूसरे के प्रभाव को शून्य कर देता है । विरोध जिसे आत्मवादी ज्ञान अथवा ज्ञाता का गुण मानते हैं वस्तुजगत का एक तथ्य है । साधारण व्यक्ति को एक भ्रमात्मक वस्तु वस्तु-जगत में विद्यमान है यह सोचने में जो कठिनाई होती है उसे होल्ट इस प्रकार समझाते हैं - उदाहरण के लिये, एक वस्तु में कुछ स्थायी अपरिवर्तनशील गुण है जो सभी स्थितियों में उसमें रहते हैं, यहा" प्रश्न उठाया जायेगा, कैसे वही छड़ी सीधी और मुड़ी हुई दोनों हो सकती है क्योंकि सामान्य व्यक्ति यही सोचता है कि छड़ी में केवल एक विशेषता होनी चाहिये जो एक सामान्य प्रत्यक्षीकरण में प्रकट हुयी । होल्ट चेतना के सिद्धांत से समझाते हैं कि भौतिक जगत में दोनों विरोधी गुण होते हैं तथा विशिष्ट परिस्-ि थतियों में ज्ञाता उनमें से केवल एक चुनता है । वस्तु और अस्तित्व के विषय में विचार करते हुये होल्ट इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि कैसे दो विरोधी वस्तुयें वास्तविक हो सकती हैं यदि वे वस्तुगत हैं १ होल्ट कहते हैं कि दोनों वस्तुयें वास्तविक नहीं है यद्यपि दोनों वस्तुगत हैं । वास्तविक और वस्तुगत होना एक नहीं है । उदाहरणार्थं दर्पण में दिखायी देने वाला प्रतिबिम्ब वस्तुगत है किन्तु वास्तविक नहीं । इसी प्रकार मिथ्या होने का अभिप्राय आत्मगत होना नहीं है । सभी वस्तुयें जो ज्ञान की विषय हैं अस्तित्वयुक्त हैं । मात्र अस्तित्वयुक्त वस्तु के विषय में वास्तविकता का कोई प्रश्न नहीं उठता । जब उनके विषय में कोई कथन स्वीकार करते हैं तब सत्यता और असत्यता का प्रश्न उठता है । विभिन्न प्रकार के भ्रमों का विस्तार पूर्वक विश्लेषण करते हुये होल्ट दिखअनुभवों की व्याख्या अतः यह सोचना । लाते हैं कि भ्रम आत्मगत नहीं है । सभी प्रकार के भ्रमात्मक भौतिक और शारीरिक परिस्थितियों द्वारा की जा सकती है गलत है कि भ्रम ज्ञाता मस्तिष्क द्वारा उत्पन्न किये जाते हैं । दूसरे विचार का निषेध करता है न कम न अधिक महत्वपूर्ण है एक विचार जो । होल्ट यहाँ तक Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं कि भ्रम की समस्या ज्ञान की समस्या में किसी भी प्रकार शामिल नहीं है । आगे इस कथन की व्याख्या करते हुये होल्ट कहते हैं कि एक भ्रम का अनुभव करना महत्वपूर्ण नहीं है तथा परिभाषा से सब भ्रम ज्ञान हैं क्योंकि विरोध भ्रम कहा जाता है जब यह किसी व्यक्ति की चेतना के क्षेत्र में प्राप्त होता है । वास्तविक समस्या विरोध है 1 40 -----:: 0 ::----- Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ और टिप्पणी 1. अभिमतानभिमत वस्तुस्वीकार तिरस्कारक्षयं हि प्रमाणम्, अतो ज्ञानमेवेदम् प्रमाणनयतत्वलो कालंकार, वादिदेवसूरि अंग्रेजी अनुवादटीकासहित डा० हरिसत्य भट्टाचार्या, जैन साहित्य विकासमंडल, बम्बई, 1967, 1.3 2. ज्ञानस्य प्रमेयाण्यभिचारित्वं प्रामाण्यम् । वही, 1.18 3. सदितरत्वाप्रामाव्यम् । वही, 1.19 4. तद्व्यवसायस्वभावं समारोपपरिपन्थित्वात् प्रयाणत्वाद वा । वही, 1.6 5. अतस्मिंस्तदध्यवसायः समारोपः । वही, 1.7 6. स विपर्ययसंशयानध्यवसायभेदात् श्रेधा वही, 1.8 7. साधकबाधकप्रमाणामावादनवस्थितानेकको टिसंस्प विज्ञानं संशयः । वही, 1.11 8. यथायं स्थागुवा पुरुषा वेति । वही, 1.12 9. विपरीतैकको टिनिष्टंकनं विपर्ययः । वही, 1.9 10. यथाशुक्तिकायामिदं रजतमिति । वही, 1.10 11. किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः । वहीं, 1. 13 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12. यथा गच्छतस्तृणस्पर्शज्ञानम् । वही, 1.14 13. 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