________________
तृतीय - अध्याय
Mom que aco via en me espleta H İ VƏ MON
केवलज्ञान - नवीन परिप्रेक्ष्य
sho
सर्वज्ञता का विवेचन भारतीय दर्शन के प्रायः सभी संप्रदायों में किसी न किसी रूप में अवश्य हुआ है और सामान्यतः भारतीय विचारधारा सर्वक्षता को संभव मानती है । इसी सर्वज्ञताको मुक्ति की स्थिति माना गया है। प्रश्न है कि सर्वज्ञता का अर्थ क्या है तथा क्या होना चाहिये' यह प्रश्न इसलिए उपस्थित होता है क्योंकि सर्वज्ञता, जो विशुद्ध दार्शनिक संप्रत्यय है, की व्याख्या धार्मिक संप्रत्यय के रूप में की जाती है। इस रूप में सर्वज्ञता को धामात्कारिक शक्की उपलब्धि के साथ जोड़ दिया जाता है । दार्शनिक संप्रत्यय के रूप में सर्वेक्षता को कोई ऐसी आगंतुक शक्ति नहीं माना जा सकता जो व्यक्ति को बाहर से उपलब्ध होती है, यह व्यक्ति की अंतःस्थ, आत्मिक शक्तियों, गुण और योग्यताओं का विकास है । वास्तव में, प्रायः सभी दार्शनिक संप्रदायों में सर्वज्ञता का यही अभिप्राय है; चाहे सांख्यदर्शन हो, चाहे वेदान्त दर्शन ।
यह प्रयोजन है, सर्वज्ञता को, जिस जैन दर्शन में केवल - ज्ञान कहा गया है, दार्शनिक संप्रत्यय के रूप में उपस्थित करना । वास्तव में, केवलज्ञान के विश्लेषण मैं अन्तनिहित विचार दार्शनिक संप्रत्यय के रूप में ही है। जैन दर्शन में पूर्णतम ज्ञान की उपलब्धि की स्थिति को, जो जीवों का स्वभाव ही है, केवलज्ञान कहा गया है । इसका अर्थ हुआ केवलज्ञान स्वभावज्ञान है जिसे सर्वगत, सर्वव्यापक, स्वयंभू, अतिसूक्ष्म, विशुद्ध, पूर्ण, प्रत्यक्ष आदि अनेक विशेषणों से जाना गया है ।। केवलज्ञान को स्वभावज्ञान कहने का अभिप्राय यह ही है कि यहां ज्ञान को आत्मा का आगंतुक नहीं स्वाभाविक गुण माना गया है । ज्ञान के बिना आत्मा की कल्पना नहीं की जा सकती । आत्मा का यह स्वाभाविक गुण ज्ञान जीवों के अपने कर्मो के कारण आवृत्त हो जाता है । यह ही कारण है, जैसा पिछले अध्याय में स्पष्ट हो चुका है, जैनदर्शन में "अ" शब्द का अर्थ आत्मा मानते हुए केवलज्ञान को year ज्ञान माना गया है। 2 अतः स्पष्ट है कि केवलज्ञान