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________________ अतीन्द्रिय ज्ञान है। ज्ञान में इन्द्रिय आदि बाह्य साधनों की आवश्यकता तो तब पड़ती है जब ज्ञान जीप के अपने कर्मों के कारण आयुत्त रहता है। अतः स्पष्ट है कि समस्त ज्ञानाचरणों के समूल नाश हो जाने पर येतन आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप का पूर्ण प्रकाशन, उनकी अतीन्द्रिय और शुद्र अनुभूति ही फेवलज्ञान है। यह सभी प्रकार के रेन्द्रिय अनुभवों से स्वतन्त्र है। अकलक ने तर्क से इस बात को सिद्ध करने का प्रयास किया है। उनके अनुसार स्वभाव आत्मा के भानावरण कर्म के सर्वथा नष्ट हो जाने पर कोई शेय घोष नहीं रह जाता जो ज्ञान का 'विष्य न हो सके। कि ज्ञान स्वभावत: प्राप्यकारी है, अतः उसे समस्त पदार्थों का बोध होना ही चाहिए । ज्ञान में जानने का स्वभाव है और शेय में ज्ञान में प्रतिभा सित होने का । यदि कोई प्रतिबंधक कारण नहीं है तो ज्ञान में केय का प्रतिभास होना ही पाहिए । सबसे बड़ी बाधा झानावरण की थी तो जब वह समूल नष्ट हो गयी तो निवारण ज्ञान स्वय को जानेगा ही।" यद्यपि जैनदर्शन में कभी-अभी ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है जहा' केवलज्ञान को समस्त पदार्थों का ज्ञाता कहा गया है, जो केवलज्ञान के आत्माभि मुखी स्वरूप से संगत प्रतीत नहीं होता किन्तु अन्तिम विश्लेषण से सिद्ध होगा कि केवलज्ञान आत्माभिमुख ही है । कुंदकुंद ने केवलज्ञान को युगपत् अनंतपदार्थों को जानने वाला बताया है। चूंकि केवलज्ञान घेतनाशक्ति के सम्पूर्ण विकास के समय प्रकट होता है, इसलिए कोई भी वस्तु या भाव ऐसा नहीं है जो इसके द्वारा न जाना जा सके ।' उमास्वाति के मत में, केवलज्ञान में सभी दव्य अपनी सम्पूर्ण पयायों के सहित एक साथ आभासित होते हैं।
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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