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________________ . 54 कुंदकुंद का केवलज्ञान के विष्य में विशिष्ट दृष्टिकोण उनके निम्न कथन में व्यक्त होता है कि जो एक को जानता है वह सबको जानता है।' इस बात को स्पष्ट करते हुए कुदकुंद आगे कहते हैं कि जो अनन्त पयायोंवाले एक दृष्य को नहीं जानता पर सबको कैसे जान सकता है और जो सबको नहीं जान सकता यह अनन्त पयाय वाले एक द्रव्य को कैसे जान सकता है। इस विचार का कारण यह प्रतीत होता है कि जैन तर्कगन्थों के अनुसार प्रत्येक पदार्थ त्वरूप से सत् है और पररूप से असत् है । अत: किसी भी पदार्थ के यथावत् पूर्णज्ञान के लिए जिस प्रकार स्वरूपास्तित्व का ज्ञान आवश्यक है उसी प्रकार उस पदार्थ के अनन्त पररूपों के नास्तित्व का ज्ञान भी आवश्यक है । कहने का तात्पर्य है कि जो व्यक्ति वस्तु को जानने की शक्ति रखने वाले ज्ञान का स्वरूप यथावत् जान लेता है वह वस्तु को जानने के साथ ही अनन्त वस्तुओं को जानने की शक्ति रखने वाले पूर्णतान रूप आत्मा को जान लेता है। और इस शक्ति के उपयोगभूत अनन्त पदार्थों को भी जान लेता है। अकलंकदेव ने केवलज्ञान की सिद्धि के लिए ज्योतिशान की एक और युक्ति भी दी है। उनके मात में यदि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान न हो सके, तो सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों के भविष्य के विषय में और उनके गृहणकाल के विषय में भविष्यवाणी कैसे सम्भव हो सकती यह भविष्यवाणिया सत्य होती हैं, जो इस बात को सिद्ध करती हैं कि अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष सम्भा हैं। उनके अनुसार, 'जिस प्रकार इन्द्रियादि की सहायता के बिना ही सत्य-स्वप्न, भावी राज्यलाभ आदि का याच स्पष्ट ज्ञान कराता है तथा विषद है उसी तरह सर्वज्ञ का शान भाषी पदार्थों में संवादक और स्पष्ट होता है। चूंकि दो और आवरण आगन्तुक है, आत्मा के स्वभाव नहीं हैं। अत: प्रतिपक्षी साधनों से उसका समूल विनाश हो जाता है और तब निवारण और निदोष आत्मा का पूर्ण रूप स्पष्ट हो जाता
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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