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पीरसेन ने भसी से मिलती जुलती युक्ति दी है। उनके अनुसार एक तो आत्मा बानस्वरुप है दूसरे उसके प्रतिबन्धक कर्म हट जाते हैं। प्रतिबन्धक कमों के नष्ट हो जाने पर ज्ञान प्राप्त हो जाना ज्ञान-स्वभाववाली आत्मा का धर्म है। जैसे अग्नि में जलाने की शक्ति हो और प्रतिबन्धक हट गये हों तो वह बाहय को क्यों नहीं जलायेगी,
अतः स्पष्ट है कि जैनदर्शन के अनुसार आत्मा के वास्तविक सत्य, सक्षज और पूर्णरूप को जान लेना ही केवलज्ञान हे 110 यही कारण है कि डा0 सर्व पल्ली राधाकृष्णन जैसे "विचारक कहते हैं कि जैनदर्शन का तर्क हमें एक तत्ववाद की और ले जाता है और हाँ तक स एकतावाद को स्वीकार नहीं करते थे अपने जीत के प्रति सजग नहीं। सापेक्षता का सिद्धान्त तार्किक ढंग से बिना निरपोलता को स्वीकार किये नहीं समझा जा सकता।
उपरोक्त शिलेसे पार निक निकलता है कि केवलज्ञान का अभिप्राय धार्मिक चमत्कार नहीं है, बराका सुदरताकि और बौद्धिक आधार है। मेवलज्ञान की प्रती ताकि आधार और सहज धौद्धिक संप्रत्यय के रूप में प्रतिष्ठित 'किया जाना है। बौलिक आधार के लिए कोपलझान को एक सुन्दर मानवीय आकाer के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। इस रूप में विलशान को असीम मानवीय भानगता के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। बालज्ञान का शन्तिनिहित आशय यह ही हो सकता है कि जगत मैं ऐसा कुछ भी नहीं है जो मानव-आत्मा के लिए ओपन हो सके | यह मानवीय आत्मा की शानक्षमता में आस्था है। यह वही आस्था है जो व्यक्ति को निरन्तर नवीन खोजों की और प्रेरित करती रहती है। इस रूप में केवलज्ञान स्वाभाविक मानवीय अभिवृत्ति है। जिस प्रकार काट ने मान के सुखी रहने के लिए ईश्वर की पूर्वकल्पना आवश्यक मानी थी उसी प्रकार आशावादी और निरन्तर प्रगति की ओर अग्रता जगात के लिए केवलज्ञान के रूप में आत्मा की बानात्मक शक्ति मैं आस्था की पूर्वकल्पना अनिवार्य है।