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यहाँ पर कुंदकुंद के एक पूर्व उल्लिखित कधन पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है, उन्होंने कहा था कि जो एक को जानता है वह सबको जानता है। उनके कथन का आशय था जो व्यक्ति वस्तु को जानने की शक्ति रखने वाले बान का स्वरूप यथावत् जान लेता है, वह वस्तु को जानने के साथ ही: अनन्त वस्तुओं को जानने की शक्ति रखने वाले पूर्ण ज्ञान स्वरूप आत्मा को जान लेता है और स शाक्ति के उपयोगभात अनना पदायों को भी जान लेता है 112
इस कथन की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि व्यक्ति द्वारा अपनी आत्मा को जान लेना अथात उस आत्मा को जान लेना जो अनन्तज्ञानमय है, केवलज्ञानी होना है। इसका अभिप्राय है आत्मा के समय की खोज ही केवलज्ञान है। पाश्चात्य जगत में सर्वप्रथम सुकरात ऐसे दार्शनिक थे जिन्होंने यह बताया कि मानव के अन्दर एक आमा है जो सामान्य जागरितापस्था की बुद्धि नैतिक चरित्र का आधार है - और यह मानव की सबसे अधिक महत्वपूर्ण वस्तु है तथा मानव को उसका afa से अधिक उपयोग करना चाहिये । अत: स्पष्ट है कि आत्म-साक्षात्कार और आत्मानुभूति ही केवलज्ञान का साधक उपयुक्त अर्थ हो सकता है। आत्मानुभति ही सधी स्मतन्त्रता है। मानव प्रकृति पर 'विजय प्राप्त कर सकता है क्योंकि उसके पास प्रकृति से महात् कुछ है। इसलिए यह श्रेष्ठ है। मानव की उपलब्धि इस तथ्य की परिचायक है कि मानव चेतना कुछ भी प्राप्त कर सकने में सक्षम है।
जैनदर्शन की या कहा जाये भारतीय दर्शन की मानवीय चेतना की शक्तिय में आस्था है। भारतीय दार्शनिकों ने मानवीय व्यक्तित्व में अनन्त विकास की सम्भावनायें मानी | आत्मा की उच्चतम अवस्था इन्हीं मानवीय गुणों और शाक्तियों के विकास की उच्चतम अवस्था है। आत्मानुभूति का अर्थ है इन्हीं अन्तनिहित क्षमताओं का पूर्ण प्रकाशन | जब व्यक्ति इस अन्तदृष्टि को प्राप्त कर लेता है तो वह जान लेता है कि arrमा द्वारा स्थूल जगत पर नियंत्रण रखमा