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सकता है। इसका तात्पर्य यह ही है कि बानाकार arrभा के स्वरूप को पाने 'बिना शेयों का मान सम्भव नहीं है। नियमसार में दुदकुंद भी इसी प्रकार का 'विद्यार करते हैं। वे कहते हैं कि धनवान को किस समस्त पदापों को जानने वाला कहा गया है वह केवल व्यवहार नय से ही कहा जा सकता है क्योंकि निश्यय नय से तो केवMATन आrमाभिमुख होता है। अपने स्वस्प में निमग्न होता है।
यह आत्मा की अनुभूति हायितगत चैतन आत्मा या "मैं" की अनुभूति नहीं है। यह व्यक्तित्व के संश्लेषणात्मक आध्यात्मिक केन्द्र का HTETकार है । यह अनुभूति आत्मा के उच्चार पहलुओं को बनाती है, इस उच्च स्तर पर पहुँची आमा विस्तृत अर्थ में आध्यात्मिक है, और जब सी उच्च चेतना के कुछ तत्व सामान्य चेतना के क्षेत्र में आते हैं तब वह व्यक्ति में प्रेरणा तथा रचनात्म-- कता की अनुभूति उत्पन्न करते हैं।16
कुंदकुद "समयतार' में स्पष्ट करते हैं, "यह मेरे नहीं हैं। मैं प्रकाश हूँ, जो आनारिक आत्मा और बाह्य जगत दोनों को प्रकाशित करता हूँ क्योंकि मैं सापकाक चैतन्य हूँ।17
जब प्यापित अपने स्थायित्व के इस उच्चतर rateीय केन्द्र को जान लेता है तो वह एक सामंजस्यपूर्ण, सुव्यवस्थित और एकीत व्यभित्व का निमांग करने में समर्थ हो जाता है। अतः फेवलज्ञान का अर्थ है व्यक्तिगत घेतना का उच्चार येतना में समाये । इसका तात्पर्य दो स्वतन्त्र और अलग आत्माओं की सत्ता नहीं है। वस्तुतः आत्मा एक है और वह सचेतनता की विविध मात्राओं को प्रकाशित करती है। सम्मुख लक्ष्य पर ही है कि कैसे मानव अपनी इस सामंजस्यपूर्ण एकता और पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। इसके लिए आवश्यक है सची आत्मा की अनुभूति और इसको केन्द्र मानकर इसके चारों और अपने