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________________ त्याववाद मंजरी में तक की परिभाषा दी गयी है - "उपलम्म अर्थात् सवारदर्शन। और अनुपलम्भ अधात व्यभिचार अदर्शना से फलित साक्ष्य साधन के कालिक तंबंध आदि के ज्ञान का आधार तथा इसके होने पर ही यह होना और न होने पर न होना, इस आकार वाला जो मानसिक संवेदन है वह उस, उसका ही नाम "तर्क है ।-26 तर्क की व्याख्या में जो उपलम्भ और अनुपलम्भ शब्द का प्रयोग किया जाता है उसका अर्थ क्रमशः अन्यय सहचार, व्यतिरेक और अनुपलाि है। जैनों के "त* की Lयाख्या रसेल के आगमन के सिद्धात* की प्याच्या से काफी हद 11 साम्यता रखती है। रसेल ने इस सिात का वर्णन इस प्रकार किया है कि जब किसी एक प्रकार की वस्तु सदैव किसी एक दूसरी प्रकार की वस्तु के साथ जुड़ी पाई जाती है जैनों के शब्दों में अन्वय सहचार" और कभी भी उससे अलग नहीं' पाई जाती जैनों के शब्दों में व्यामिरेक, या अनुपलHिI, और जब यह संयोजन पर्याप्त माग में कई उदाहरणों में पाया जाता है तब वह विशेष प्रकार का संयोजन और ताहचर्ग अधिक संभाव्य हो जायेगा । इन साहय संबंध के पयाप्त मात्रा में उदाहरण गितने पर साहचर्य की सभाध्यता निश्चितता के निकट पहुंघ जायेगी ।27 __"जिस प्रकार रोल मानते हैं कि सामान्य का भान अन्तःप्रजा के माध्यम से होता है और हमारा सारा यथार्थ ज्ञान यहीं से शुरू होता है। इस आन्तः प्रधान के सत्य होने का रसेला दावा करते हैं 128 इसी प्रकार "तक" की , परिभाषा में जैन दार्शनिक अन्धय, व्यतिरेक को व्याप्ति गृहण का मात्र साधन ही मानते हैं। वस्तुतः च्याप्ति का ग्रहण मानसिक संवेदना या अन्तःपा से होता है जो अन्वय, व्यतिरेक रूप तथ्यों को सामान बनाकर व्याप्ति गृहण करता है। तर्क के आन्तः प्रा रूप का समर्थन प्रमाणमीमाता की स्योपत्ति में हेमचन्द्र ने किया है। उनका कहना है कि व्याप्ति गक्षण के समय ज्ञातायोगी समान हो जाती है 129
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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