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________________ 13 माना गया जो सीधे आत्मा से होता है। रेन्द्रिय ज्ञान को तो सांव्यवहारिक प्रत्यक्षा इस अर्थ में कहा गया कि यह किसी दूसरे कान पर आधारित नहीं है, यही प्रत्यक्ष का दो अर्थों में प्रयोग किया गया है। स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष नान का इनका विश्लेषण आध्यात्मिक विश्वास से प्रभावित है। प्रत्यक्ष और परोक्ष का भेद या ज्ञानगत भेद नहीं है। आध्यात्मिक भेद है क्योंकि यह जैनों की अपनी विशिष्ट तत्वमीमाता पर आधारित है इसलिये जो व्यक्ति इस विशिष्ट तत्व मीमांसा को नहीं मानता उसके अनुसार प्रत्यक्ष और परोक्ष का यह भेद गलत अपर के विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि जैनों के ऐन्द्रिय ज्ञान का जहां तक संबंध है यह पाश्चात्य दर्शन में रसेल और मूर के वास्तववादी दर्शन के काफी निकट है । जैन वास्तववादी है। व्यवहारवादी उनका पास्तविकता का सिद्धान्त सापेक्षता के सिमान्त का एक प्रकार है। यह तथ्य जैन-दर्शन को आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अत्यन्त समीप ले जाता है। यहाँ हर प्रकार के अतिवादों का निषेध किया गया है तथा सामान्य अनुभव के सिद्धांतों | cominen saunee Theory knowledge | पर जोर दिया गया है। इस प्रयास में जैनों द्वारा सत्यता, तात्या और ज्ञान पर कुछ विशिष्ट सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये । यही कारण है कि जैन दर्शन कहीं वास्तववादी दर्शन है, कही' प्रत्ययवादी दर्शन के निकट पहुंया प्रतीत होता है और कहीं अपवहारवाद और सापेशावाद के निकट पहुंचता है। पैन-ज्ञानमीमाता वास्तववादी होते हुए भी पाश्चात्य यथार्थवादी और प्रकृतिवादी मानमीमासा नहीं है । प्रतिवाद' के अनुसार जीवन संश्लिष्ट भौतिक और रासायनिक शाक्ति का पलमान है एवं प्रकृतिवाद में ज्ञान का विकास माना गया है किन्तु ज्ञान के विकास का अर्थ, यहाँ चैतन्य का विकास नहीं है। जबकि जैनों के अनुसार विकास का अर्थ है चैतन्य का विकास | फिर यथार्थवादी संवेदन
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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