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शापिया, द्रव्येन्ट्रिया तो उपकरणमात्र है।
इसी प्रकार ऐन्द्रिय ज्ञान में मन भी एक उपकरण है, जिसे जैन दार्शनिकों ने आंतरिक इन्द्रिय माना है किन्तु मन को भी भावभन और दृध्यमन हे भेद से दो स्पों में स्पष्ट किया है 137
आगे जैन दार्शनिकों की एक और विशिष्टता उभरकर सामने आती है जहाँ उन्होंने वस्तु और प्रकाश आदि कारणों को प्रत्यक्षीकरण का अनिवार्य कारण नहीं बल्लिा प्रत्यक्षीकरण के पि माना है। यदि शान के अनिवार्य कारण होते। तो उनकी उपस्थिति र कान में अनिवार्य होती तो फिर ऐसी स्थिति में भूतकाल और भविष्य की वस्तुओं का ज्ञान नहीं होता, इसी प्रकार यदि प्रकाश अनिवार्य होता तो अंधकार में शान न होता ।"
यही कारण है fis TT दार्शनिक मानते हैं कि द्रष्य के सभी गुण और निरन्तर परिवर्तनशील पया इन्द्रियों के बारा नहीं जानी जा सकतीं पयोंकि इन्द्रियों की पापितया देश और काल की सीमाओं से सीमित होती है। अतः रपा है कि इन्द्रिया वस्तुओं के सत्य स्यत्य को नहीं जान सकती । इसीलिगे जैन दार्शनिक रैन्द्रिय ज्ञान को निर... मान नहीं मानते, समान को परीक्ष शान मानते हैं। यह ज्ञान पनि आत्मा का धर्म है अत: जो भान इन्द्रियों के माध्यम से होता है वह आता के लिये परोसा ही है।
अतः स्पष्ट है Trयपि जैन दार्शनिकों का मत और पाश्चात्य धारयाद का मत है कि पारा जाता वस्तुनिष्ठ अस्तित्त, समान है in ..पापाय ETAILATERI
Fagi का इन्द्रियों के माध्यम से सायात प्रत्यक्ष मान MET जैनों के अनुसार ऐसे शान को परोक्ष कहा गया है। यपि बाद में पैन ताकिकों ने मुख्य और साध्यवहारिक थे दो भेद प्रrucl airन के कारके रेन्द्रिय कान को साध्यवहारिक प्रत्यक्ष माना । मुख्य प्रत्यक्ष ज्ञान तो वही