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________________ شع है। हेतु के मान के आधार पर साध्य का ज्ञान होना तभी संभव है जब हेतु अनिवार्य रूप से साध्य से संबंधित हो तथा हेतु और साध्य सदैव साथ-साथ उपस्थित पाये गये हों। इसका तात्पर्य है कि अनुमान तभी संभव है जब हेतु और साध्य में अनिवार्यता का संबंध मान लिया जाये। जहाँ हेतु है वहा' साध्य है ; साध्य के बिना हेतु का पाया जाना असंभव है। बौद्धिक दार्शनिकों दो समान जैन वैध हेतु के पदधत्व, सपसत्य और चिपसरच, ये तीन लण नहीं मानते हैं। बौद्रों के इन तीन लागों के अतिरिक्त नैयायिक हेतु में दो लग और जोर देते हैं - अबाधित - पियत्व और असत्-प्रतिपात्य । नैयायिकों का खंडन : जैन दार्शनिक बौद्धों और नैयायिकों का सडन करते हैं। पहाड़ पर आग है क्योंकि वहां पर झा है । इस उदाहरण में हेतु- है जो पक्षा "पहा" पर है। किन्तु इस अनुमान “आवाज अनंत है क्योंकि दृश्य है" मैं हेतु "रयता है जिसकी विनता पक्षमत्व नहीं है क्योंकि पहा "आवाज में दृश्यता नहीं होती। जैन दार्शनिक हेत की विशेषता के रूप में पहच को अनावश्यक 'सिद्ध करते हुए पानी में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब से आकाश में वास्तविक चन्द्रमा के अस्तित्व की तिति का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इस अनुमान के उदाहरण में आकाश पक्ष है जिसमें वास्तविक चन्द्रमा है किन्तु साध्य अर्थात पास्तविक चन्द्रमा का आकाशा में अस्तित्व होना यहा बेतु, प्रतिविम्बित चन्द्रमा से सिद्ध किया या रहा है जो स्प-टप से पा! आकाश में नहीं होता इसलिए हेतु मैं पक्षधर्मत्व की ' विता नहीं सि होती। आचार्य अफालक का कहना है प्रापाट का उदय होगा कृत्तिका का उदय होने से - इत्यादि, अनुमानों में कृति का का उदय पक्षधर्म नहीं है फिर भी उसते शकटोदय ति. होता है। अतः परावृतित्व अव्याप्त होने से हेतु-लक्षण नहीं है।" यह सत्य नहीं है कि पहा-चला है, वहा पहा भी है जैसे कि पहा
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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