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अवधि शान समान है जो इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मासिक पदार्थों को जानता है। यह ज्ञान द्रव्य और दो की मयादा रहित है। द्रव्य-क्षेत्र काल और भाव का आश्रय लेकर मूर्तिक पदार्थों को प्रत्यक्ष जानने वाले ज्ञान विशेष को अबान कहा गया है। इस अवधिमान के भाव-गुत्थर और गुण-प्रत्यय ये दो भेद होते हैं। जो अवधिज्ञान जन्मसिद्ध होता है, जिसकी प्राप्ति के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता, वह अवधिान भय-प्रत्यय अवधिज्ञान कहा गया है। जो अवधिमान जन्म लेने के बाद विविध प्रकार है। प्रयत्नों के बाल से जैसे लप, व्रत आदि से प्रामा किया जाता है, पान गुण-प्रत्यय अवधिज्ञान कहलाता. यापि अवधिशान उत्पन्न होने के लिए शानावरणीय कामों का आयोपशम आवश्यक है किन्तु इस समानता के होने पर भी जीपों में 5 ऐसी जाति होती है, जिमों जन्म लेते ही अवधिज्ञान के अनुसार करो का क्षयोपशम हो जाता है और इस प्रकार सहज रूप में ही अवमान की उपलबिध हो जाती है, किन्तु कुछ जातियों में जन्म से ही ऐसा नहीं हो जाता प्रत्युत उन्हें योपशम के लिए प्रयत्न करने पड़ते हैं। यह अन्तर ही भव-प्रत्यय और गुग-प्रत्यय अवधिज्ञान में भेद का आधार है।
मन:पयर्यज्ञानावरण का होने पर अपने और दूसरे के मन की अपेक्षा से होने वाला ज्ञान मनापर्यय शान है। दूसरे के मनोगत अर्थ को जानना मनःपट
यहाँ पर एक का उठाई जा सकती है कि मतिज्ञान भी तो जन : संबंध से होता है, फिर भतिज्ञान को ऐन्द्रिय परोक्षज्ञान के अन्तर्गत क्यों रखा गया'
जैनाचार्यों ने इसका उल्लर देते हुए कहा कि जिस प्रकार आकाश में चन्द्रमा को देखने में आकाश की साधारण अपेक्षा होती है, उसी तरह मनः पर्यय