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________________ सकता । *पर" से होने वाले ज्ञान को परोक्ष कहते हैं 129 यहाँ एक बात उल्लेखनीय है कि बाद में चलकर कुछ जैन दार्शनिकों विशेषकर अकलंक, सिद्धसेन और मानन्दिने, प्रत्यक्ष का सांव्यवहारिक और पारमार्थिक दो रूपों में विभाजन कर दिया 130 साध्यवहारिक प्रत्यक्ष का अर्थ है ऐन्द्रिय प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष का अर्थ है अतीन्द्रिय ज्ञान । प्रत्यक्ष का इन दो रूपों में विभाजन स्पष्टत: जैन दर्शन का उस प्रचलित परम्परा से सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न है जहा प्रत्यक्ष का अर्थ "ऐन्द्रिय स्था* माना गया । जैन दर्शन के मौलिक विचारों के अनुसार, प्रत्यक्ष का अर्थ अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ही है । "प्रत्यदा" शब्द का प्रयोग प्रारंभ में इन्द्रियों द्वारा साक्षात्कार के लिये होता था किन्तु शीघ्र ही उसके अन्तर्गत वह समस्त ज्ञान भी आ गया जो तुरन्त ग्रहण हो जाता है । भले ही उसमें इन्द्रियों की सहायता की आवश्यकता .31 न भी हुई हो । इसी अन्तदृष्टि को वर्गा' ने सहजबोध के रूप में माना । वर्गT के मत में सहजबोध उसका प्रत्यक्ष है जो अदृश्य है किन्तु फिर भी वास्तविक है । इसे डी कॉट ने भी अपनी दूसरी और तीसरी आलोचनाओं में संकल्पेका की अनिवार्यता में विश्वास के रूप में माना तथा इस विश्वास को अनुभूति की आवश्यकara पर आधारित किया । प्रत्यक्ष के तीन प्रकार : जैन दर्शन में अतीन्द्रिय ज्ञान के तीन प्रकार माने गये हैं- अपन मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान 132
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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