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________________ कहा जाता है। यह सभी ऐन्द्रिय अनुभूतियों से स्वतंत्र और सब वस्तुओं को जानने वाला है 127 जैन दर्शन में, अतीन्द्रियान की विस्त रूप से चर्चा की गयी है। आत्मा के स्वरूप और स्वभाव के अपर किये विश्लेग के आधार पर यह स्पट हो चुका है कि बान आत्मा का स्वरूप दी है, आत्मा और सत्ता में एकरपता है। अत: ITrा और य में भी एकरूपता है अर्थात आत्मा ता भी है और य भी । दूसरे शब्दों में, आत्मा और ज्ञान में अभिन्नता है । वस्तुतः जब ऐन्द्रिय साधनों द्वारा आन प्राप्त किया जाता है तो इस प्रकार जात पदार्थ में केय पदार्थ से भिन्नता होनी सभा है, क्योंकि यह ात पदार्थ शन्द्रिय, मन आदि बाहा उपकरणों के अधीन होगा । धाप में, शेय पदार्थ जानने की प्रनिया के दौरान इन्द्रिय और मन के सम्बन्ध के कारण उनसे प्रभावित हो जाता है, किन्तु अतीन्द्रिय माध्यमों बारा प्राप्त ज्ञान में जहा इन्द्रिय और मन की मध्यस्थता नहीं होती, eal trar और य के बीच कोई व्यवधान न होने के कारणETET और नेय में सीधा संबंध स्थापित होता है, अन्य शब्दों में, वहाँ जाता और देय में कोई भिन्नत नहीं होती 129 अतीन्द्रिय धान मैं वस्तु अपने यथार्थ रूप में शान में उपस्थित होती है क्योंकि वह पतु और मान मैं अपरोक्षinr का संबंध है। इन्द्रिय और मन की सीमितता ही पास्तविक और मात वस्तु में भेट का कारण है। जैन दार्शनिकों का मत है कि यदि अन्य दर्शनों की तरह प्रत्यक्ष का लक्षण मान लिया जाये, जो इन्द्रियादि बाह्य साधनों की सहायता से उत्पन्न होता है, तो उस frufir में Hanा की सित सम्म ही नहीं होगी, क्योंकि सर्व का अतीन्यि ज्ञान इन्द्रियों से उत्पन्न नहीं होता। सर्वक्षता प्रत्यक्षबान के बिना संभव ही नहीं। कुदकुद का कथन है कि दूसरे दाशीनिक जोइन्द्रियजन्य कानों को प्रत्यक्ष मानते हैं किन्तु थे प्रत्यक्षा से क हो सकते हैं क्योंकि शन्द्रियों तो अनामरूप होने से परदस्य है। अत: वन्द्रियों द्वारा वस्तु का प्रत्यक्षा नहीं हो
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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