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न्द्रिय बोध क्षमता प्राप्त है ।
प्राचीन धियों और मुनियों ने मानव आत्मा के महत् रूप की खोज की। उन्होंने स्पष्ट किया कि मानव अपरिमेय शक्ति का पुंज है किन्तु उसे अपने इस महल रूप का ज्ञान आत्मनिरीक्षण से ही मिल सकता है । अदृष्टि ही उसे यह ज्ञान करा सकती है । एक तरह से आत्मज्ञान को भारतीय दर्शन में सामान्य रूप से मुक्ति का साधन माना गया क्योंकि इनके मत में आत्मा इस विश्व का दर्पण है और जगत सूक्ष्म रूप में आत्मा में विमान है। वेदों में सृष्टि को मनोमय कहने का यही अभिप्राय प्रतीत होता है । आत्मा यथार्थ रूप में विश्वात्मा है, इसी सत्य और क्षमता का ज्ञान प्राप्त कर लेना ही मुक्ति और पूर्णता है । महापुरुषों द्वारा आमा केबल दिव्य रूप के साक्षात्कार की झलक यत्र-तत्र वेदों और उपनिषदों में मिलती है ।
nature में वर्णन आया है कि नचिकेता यम से पर माँगता है उसे आत्मतत्व का पूर्ण ज्ञान हो 123 पर उपनिषद में कथा आती है जहाँ यावलक्य अपनी पत्नी मैत्रेयी को उपदेश देते हुए कहते हैं कि यह आत्मा ही देखने, सुनने, मनन करने और संकल्पपूर्वक ध्यान करने के योग्य है । आत्मा के ही दर्शन, श्रवण, मनन से सारा रहस्य कात हो जाता है 1 24 इसी प्रकार मुण्डकोपनिषद में eer गया है कि दोघहीन संघमी लोग जिसे देखते हैं वह ज्योर्तिमय निर्मल आत्मा इसी शरीर के भीतर विमान है । इसका अभिप्राय है कि हम अपने अन्दर विशुद्र स्वस्य को देख सकते हैं। 25 इसी कारण प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने मानव आत्मा की सम्पूर्ण अन्तर्निहित क्षमताओं के पूर्ण उपयोग के लिए साधन खोजने के प्रयास किये | इसलिए भारतीय दर्शन की विधि भी आत्मनिरीक्षण, अन्नदृष्टि, ध्यान, aarfe और योग है ।
जैन दर्शन के अनुसार, चेतन आत्मा के सहज रवरूप का पूर्ण प्रकाशन जो
सम्पूर्ण विलय से होता है अतीन्द्रिय और शुद्ध अनुभूति कहलाता है। 26 आत्मा के स्वप्रकाशित रूप का डी प्रकाशान अशी न्द्रिय-अनुभूति है। इसे ही केवलज्ञान