________________
शुद्ध आत्म-अनुभानि का केन्द्र है और जिसे केवल आत्मनिरीक्षण द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
वास्तव में, चेतन आत्मा भी व्यक्तित्व की अंतिम इकाई नहीं है। जब हम सो जाते हैं या अचेतन अवस्था में होते हैं तो यह चैतन आत्मा लुप्त हो गयी प्रतीत होती है और जागृतावस्था में यह भी सक्रिय प्रतीत होती है। यह तथ्य वस बात का परिचायक है कि इस नौतन आत्मा से परे, एक स्थायी केन्द्रका अस्तित्व है। यह उच्च आत्मा सिगरा आत्मा की शारीरिक और मानसिक स्थितियों से अप्रभावित रहती है, क्तिगत चेतना को इस उच्च आमा का मात्र प्रतिबिम्ध माना जा सकता है। मानधीय व्यक्तित्व में इस उच्च आत्मा का स्थान सर्जनात्मक है, क्योंकि ध्यागतत्व की आध्यात्मिका उपलब्धियों का यह माध्यम
रेखाचित्र में जो सामूहिक अवचेतन का चित्र दिखाया गया है उसका अभिप्राय विभाजन नहीं है । सीमाहीनता के अर्थ में इनका पटार किया जाता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि दो आत्माओं का अस्तित्व किसी व्यक्तित्व में होता है जो अपने अपने क्षेत्र में स्थित है । आत्मा एक है जो सवेतनता और आत्मानुभूति की विभिन्न माओं को प्रकाशित करती है। व्यक्तिगत आत्मा का वास्तविक आत्मा से अपरिचय हीत की अनुभूति का कारण है। व्यक्तित्व की पूर्णता इसी वास्ततिक आत्मा की उपलब्धि पर निर्भर है। प्रश्न यही है कि कैसे इस आतरिक एकता की पूर्णता तथा सामंजस्यपूर्ण आत्म-अनुभूति को प्राप्त किया जाये।
भारतीय दर्शन में इसकी विधि योग, समाधि, ध्यान, धारण और आत्म 'निरीक्षण बताई गयी है। पाचात्य मनोविज्ञान मैं इस समस्या को प्रयोगात्मक तरीके से हाल किया गया | सका अभिप्राय यह ही है कि मानव के इस दाय घेतन पहलू के अतिरिक्त एक उच्चतर Irrer का अस्तित्व मानना होगा कि अती