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शान दूसरे मन में अभास्थित अर्थ को जानता है, इतनी मात्र यहा मन की अपेक्षा होती है, जबकि मतिज्ञान में तो मन कारक होता हे 136
मनःपर्यशान के जुमति और विपुलमाति ये दो भेद हैं। माति स्थल ज्ञान है और पिपुलमाक्ति सूक्ष्म ज्ञान ! अतर विपुलमति मनःपर्यय बान "जुमति की अपेक्षा अfu विशुध है। दोनों में एक अन्तर और भी है, धनुमति हान उत्पन्न होने के बाद चला भी जाता है किन्तु विपुलमति ज्ञान बना रहा है।
अब एक पान यह Torr fक अवधिनान और मनःपय ज्ञान में मेत का आधार क्या है, क्योंकि दोनों ही ऐन्द्रियमन निरपैदा है। का उत्तर यही हो सकता है कि अवशान सीधे मूर्तिक पदार्थ को जानता है किन्तु मनःपर्यय शान मन की पयायों मारा ही मुकि पदाथों को जानता है, सीधे तौर से थी। प्राणी चिन्तन मन से करता है और इस चिन्तन के दौरान चिन्तनीय वस्तु के भेद के अनुसार भिन्न-भिन्न आकृतियों को यह चिन्तनशील मन धारण कर लेता है। यह आकृतिया ही मन की पयाय और उन मानसिक आकृतियों को सातात जानने वाला मान मनःपर्ययशान है । ज्ञान से सिर्फ चिनानशील मन ही आकृतिया ही जानी जाती हैं, 'चिन्तनीय वस्तुयें नहीं जानी जा सकती । तुर्षे तो बाद में अनुमान से जानी जा सकती है।38
अकर्मक इससे असहमति प्रकट करते हैं। उनका कहना है कि मनः पर्ययज्ञान दूसरों के विचारों की विषयवस्तु को साक्षात् जान लेता है, ऐसी वस्तुओं का ज्ञान अनुमान से नहीं माना जा सकता। यह प्रत्यक्ष शान है।३१
केवलशान की चचा भारतीय-दर्शन के प्रायः सभी सम्पदायों में किसी किसी रूप में की गयी है। जैन दर्शन के अनुसार, समस्त शानावरणों के समूल नाश होने पर प्रकट होने वाला निरावरण शान केवलशान है। यह शान मात्र