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प्रकार से चेतना का वस्तुविषयक व्यक्तिगत भाव है जिसका वस्तु के वास्तविक म से कोई अनिवार्य संबंध नहीं है क्योंकि अभी तक चेतना का वस्तु से सम्पर्क स्थापित नहीं हुआ है । अतः ज्ञान में जब चेतना का वस्तु ते सम्पर्क स्थापित होता है तो इस बात की संभावना रह जाती है कि दर्शन ज्ञान के अनुरूप न हीँ । यह ही कारण है कि जैनाचार्यों ने माना है कि ज्ञान के द्वारा दर्शन का शोधन होता है । ज्ञान के बिना श्रद्धा की परिपुष्टि नहीं होती ।
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दर्शन के विषय में एक मत यह भी है कि दर्शन का अर्थ है विषय और विषयों के सम्पर्क के बाद ज्ञान के पूर्व वस्तु का एक सामान्य अवभास या संवेदन | 13 मत के अनुसार विषय और विषयों के सम्पर्क के तत्काल बाद ही ज्ञान उत्पन्न नहीं हो जाता बल्कि इस सम्पर्क के बाद वस्तु का एक अव्यक्त ग्रहण होता है । वस्तु के इस प्राथमिक प्रत्यक्षीकरण या अन्नतः सवेदन को ही दर्शन है। किसी भी वस्तु के विस्तारपूर्वक जानने के पूर्व एक स्थिति होती है जब हम उस वस्तु को सामान्य रूप से देखते हैं और उस वस्तु के अस्तित्व से सचेतन होते हैं । दर्शन सत्ता की यही सामान्य अतः पुक्ष अनुभूति है । इस अनुभव के बाद ही प्रत्यक्षीकरण की क्रिया प्रारम्भ होती है । आत्मा का पदार्थ को जानने के लिये प्रयत्न करना ही दर्शन है क्योंकि यदि चेतना से सम्पर्क होते ही ज्ञान मान लिया जाये तो यह बहुधा हमारे अनुभव में आता है कि प्रतिदिन चलते हुये सोचते हुये विभिन्न कार्य करते हुये अनेकों वस्तुओं के सम्पर्क में हम आते हैं किन्तु वे सभी वस्तुयें ज्ञान की श्रेणी में नहीं आती क्योंकि उन सभी वस्तुओं को जानने का प्रयत्न हम नहीं करते । ज्ञान उन्हीं वस्तुओं का होता है जिनको जानने के लिए चेतना प्रयत्न करती है | दर्शन वस्तु का सामान्य संवेदन है जबकि ज्ञान स्पष्ट और विशेष | यह ही कारण है कि अकलंक और पूज्यपाद ने कहा कि दर्शन को ही प्रथम ग्रहण करना चाहिये तथा साथ में यह भी कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि जिसे दर्शन है उसे ज्ञान भी होगा, लेकिन हा, जिसे ज्ञान है उसे दर्शन अवश्य होगा 114 इस बात को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है कि मुझे सामने