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चुक्ष पैसा कम दिखाई पड़ता है किन्तु मैं यह जानने का प्रयत्न नहीं करती कि यह क्या है। यदि कोई मासे यह जानने का प्रयत्न करे कि मैंने सामने क्या देखा तो मैं नहीं बता सगी कि मैंने वक्ष देखा क्योंकि मुझे वृक्ष का एक सामान्य संवेदन आ था पिसे ज्ञान नहीं कहा जा सकता। इससे निष्कर्ष निकालाता है 'कि हमारे बहुत से संवेदन दर्शन के स्तर तक ही रह जाते हैं ज्ञान नहीं बन पाते; अर्थात् जिसे दर्शन हो तो यह आवश्यक नहीं है कि उसे ज्ञान भी हो। जिसे भान होगा उसे दर्शन अवश्य ही होगा क्योंकि वस्तु के विशेष साकार मान के पूर्व उसका सामान्य निराकार रविंदन अवश्य होता है। अतः दर्शन ज्ञान की प्रक्रिया का अनिवार्य प्रथम चरण है ।
इस मत के समर्थन का आधार यह है कि जैन दर्शन में ज्ञान का लक्षण दिया गया है स्वपरावभाति । अतः ज्ञान के इस लक्ष्मण को मानने पर दर्शन को अंतरंग पदार्थ का विवेचक नहीं माना जा सकता | मान विकल्प स्प होता है दर्शन सामान्य होता है जो कि विषय और वियों के सम्पर्क के बाद होता है।
अतः स्पष्ट होता है कि ज्ञान और दर्शन में अनिवार्य संबंध है । अकलंकदेव के मत में से मेघ्पटल के हरते ही सूर्य का प्रकाश एक साथ ही फैल जाता है उसी तरह आत्मा में ज्ञान और दर्शन की युगपत् प्रवृति होती है।15
दर्शन के इस अर्थ से एक प्रश्न यह उठता है कि चूंकि अवग्रह का भी जैन दार्शनिक यही अर्थ करते हैं जो दर्शन का अर्थ, तो दोनों में क्या भेद है'
अकलंकदेव इस बात का स्पष्टीकरण करने का प्रयत्न करते हैं। उनका कथन है कि विजय और विषयी के सम्पर्क के बाद पुथम समय में जो "यह कुछ है* इस प्रकार का विशेष्ान्य निराकार प्रतिभास होता है वह दर्शन कहलाता है उसके बाद दूसरे तीसरे आदि समयों में यह रूप है" "यह पुरुष है आदि स्य से 'विशेषाश का निश्चय अपग्रह कहलाता है। आचार्य एक सय: जात बालक के उदाहरण से इस बात को स्पष्ट करते हैं। यदि बालक के प्रथम समय में होने