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वाले सामान्य अनुभव को अवगृह ज्ञान माना जाये तो वह कौन सा ज्ञान होगा' बालक के इस प्रथम समय के अनुभव को समाय और विपर्यय भी नहीं कर सकते। क्योंकि ये दोनों सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही होते हैं जिसने उस विषय का पक्षले सम्यरज्ञान प्राप्त किया हो उसे ही उस विषय में संशय आदि हो सकते हैं। इस प्राथमिक ज्ञान को संशय और विपर्यय नहीं कहा जा सकता। इसे सम्यग्ज्ञान भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि किसी अर्थ विशेष के आकार का निश्चय नहीं हुआ है। अबगृह से पहले वस्तु मात्र का सामान्य सवेदन स्य दर्शन होता है फिर रूप है" यह अवग्रह "फिर "यद शुक्ल लै या कृष्ण यह समाय, फिर "शुक्ल होना चाहिये यह ईटा फिर "शुक्ल ही है यह आयाय, उसके बाद आवाय की दृढतम अवस्था धारणा होती है। 6
ज्ञान-दर्शन-परित्र मोक्षमार्ग :
जैन दर्शन में दर्शन शान और चरित्र को सम्मिलित रूप से मोक्षमार्ग FET गया है।17 यहा या पुरन उठाया जा सकता है कि पान को या चरित्र को एकाफिक रूप से मोक्ष का मार्ग क्यों नहीं कहा गया' दर्शन में क्या कमी है। जिसे शान पूरा करता है और मान में क्या की है जिसे चारिन पुरा करता है' दर्शन, ज्ञान और चरित्र में आपस में क्या संबंध है और यह सभी किस प्रकार मोक्षमार्ग में सहायक होते हैं"
सर्वप्रथा हमें दर्शन होता है। जैन दर्शन में "दर्शन शाहद के दो अर्थ "मिलते हैं। एक तो दर्शन का अर्थ श्रद्धा से लिया जाता है और दूसरे, सत्ता की एक सामान्य आत:प्रत अनुभति के स्प में; अर्थात वस्तु के धानको दर्शन कहा गया है। यह आत्मा की एक प्रकार की आत्मगत अनुभति है। इसी आत्मगत अनुभूति के बाद प्रत्यक्षीकरण की प्रिया प्रारम्भ होती है ।
"दर्शन" पद का अर्थ कुछ भी लिया जाय किंतु उल्लेखनीय यह है कि दर्शन पद का प्रयोग सदैव "सम्यक् पद के साथ ही किया गया है, एकान्ततः नहीं,