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अथात जैनदर्शन में मोक्ष का अभिमाय केवल दर्शन से नहीं वरन् सम्यक् दर्शन से होता है । अत: दर्शन का अर्थ या प्रदा हो, चाटे Yemaleण के पूर्व की बात अनुभूति, वह मोक्ष के लिये उपयोगी तभी होगी | उसमें "सम्यकत्य* का गुण आ जाये। दर्शन को सम्यक्त्व का यह गुण ज्ञान ही प्रदान करता है। यथो विषय का मत है कि प्रदा की परिपुष्टि ज्ञान के बिना नहीं होती | अबानी की प्रद्धा बड़ी दुर्बल होती है जो सहज ही विपरीत सक से प्रभावित हो जाती है । उनके मत में ज्ञान से श्रद्धा का शोधन ठीक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार अंजन से नेत्र का 18 तात्पर्य यह है कि इसापूर्वक प्रT को सम्यक् दर्शन नहीं माना जा सकता । शान चूंकि दर्शन का परिकार वारता है असलिये भी है।
यपि कहीं-कहीं जैन आचायों में मात्र प्रक्षा को मोक्ष का मार्ग कहते हुये दर्शन को जान से बताया है 120 वस्तुतः यह प्रश्न ही गलत है कि दर्शन
05 है या ज्ञान । ज्ञान और दर्शन पृथक नहीं है। प्रत्युत धान और दर्शन प्रत्यक्षीकरण की क्रिया की दो अवस्थायें या अंग हैं। ज्ञान और दर्शन Trमा की दो शक्तियां हैं। अथात आत्मा की चैतन्य शक्ति ही शान और दर्शन असे परिणमन करती है। आत्मा की निराकार चैतन्यता इसके दर्शन की अवस्था है और आत्मा की साकार चैतन्य अवस्था उसके ज्ञान की अवस्था हे 121
जान प्राप्ति की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के अनुसार भी ज्ञान के पूर्व वस्तु का एक सामान्य ग्रहण या आत्मा को उस तु की एक आन्तरिक या आत्मगत । अनुभति अवश्य ही होती है। इस प्राथमिक अनुभूत्ति के बाद ही व्यक्ति उसका ज्ञान प्राप्त करता है। बिना त आन्तरिक अनुभूति के जिसे "दर्शन" कहा गया, मान ही उत्पन्न नहीं हो सकता । अतः ज्ञान के पूर्व दर्शन अवश्य ही होता है। जैन दार्शनिकों का यह स्पष्ट मत है कि जिसे मान होता है उसे दर्शन अवश्य होता है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि दर्शन हो उसे आवश्यक नहीं है कि ज्ञान भी हो ही 122 हमारे बहुत से संवेदन या अनुभव इसी प्राथमिक अनुभूति के स्तर के ही बाद नष्ट हो जाते हैं। मान का स्प