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तो वही संवेदन ले पाते हैं जो अधिक तीव्र होते हैं । दर्शन तभी सभ्य कहलाता है जबकि वह यथार्थ ज्ञानमूलक होता है 133 सम्यग्दर्शन ही ज्ञान के लिये उपयोगी होता है । अतः स्पष्ट है कि चूंकि ज्ञान और दर्शन प्रत्यक्षीकरण की प्रक्रिया के ही दो अंग हैं इसलिए दोनों में अत्यन्त घनिष्ठ संबंध है । जैसा कि माइल कहते हैं - प्रमाण और नय ज्ञान के स्वरूप का निश्चय होने पर वस्तु का निश्चय होता है और वस्तु का निश्चय होने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है 124
अब ज्ञान और चरित्र के संबंध का जटिल प्रश्न आता है ।
जैन दर्शन में आत्मा का शुद्ध ज्ञानभाव ही उसका स्वभाव है तथा इसी स्वभाव की प्राप्ति मोक्ष है 1 25 जीव में जो स्वभाव सिद्ध गुण होता है उसे यहां स्वभाव कहा गया है। तात्पर्य यह है कि हापि ज्ञान को आत्मा का स्वाभाविक गुण मानने पर भी संसार अवस्था में यह गुण अनादि काल से कर्मबन्य आवाज से ढका हुआ है। कर्म का क्षयोपशम होने पर ही ज्ञान संसारी जीवों में प्रकट होता है । इसलिये ज्ञान जीव का स्वाभाविक गुण होते हुये भी arateefay और क्षायिक भाव में गिनाया गया है ।
धवला टीका में कहा गया है कि इस ज्ञान की वृद्धि और हानि के द्वारा जो तरतम भाव होता है वह निष्करण तो हो नहीं सकता क्योंकि वृद्धि और हानि न होने से ज्ञान के एक रूपस्थित रहने का प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु एकम्प से अवस्थित ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती है । अतः ज्ञान प्रमाण में होने वाली वृद्धि और हानि के सकारण ति हो जाने पर उसमें जो हानि के तरतम भाव का कारण है, वह आवरण कर्म है, यह सित हो जाता है 126 ater टीका में कहा गया है कि यदि कर्म को जीव से संबद्ध न माना जाये तो कर्म के कार्य मूर्त शरीर से जीव का संबंध नहीं बन सकता है। जैसा कि arsar ने कहा था वैसे ही जयला टीका में भी कहा गया कि यदि जीव