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का कर्मों के साथ अनादिकालीन संबंध स्वीकार न किया जाये तो वर्तमान काल मैं जीव और कर्मों का at it उपलब्ध होता है वह नहीं बन सकता 127
जीव की यह कर्मजन्य अवस्था क्षायोपशमिक ज्ञान रूप ही है । इस अवस्था को जीव का स्वलक्ष्य नहीं कहा जा सकता । आत्मा की शुद्ध नायकभाव अवस्था उसका स्वभाव है । अतः शुद्ध जीव के लक्षणों के द्वारा ही उसे ग्रहण करना चाहिये । षडागम में कहा गया है कि जीव के पूर्णस्वभाव की प्राप्ति होनी चाहिये क्योंकि स्वभाव वृद्धि का तारतम्य पाया जाता है जैसे शुक्ल पक्ष के चन्द्र मंडल का 128
जो कर्मजीव से संबंद्ध हैं ये सहेतुक होते हैं । यदि ऐसा न माना जाये तो जो जीव निव्यापार हैं उनको भी कर्मबंधन होगा | कर्म का कारण मिध्यात्व असंचय और कनाय है क्योंकि सम्यकत्व, संचय और विरागता का जीवद्रव्य के अविनाभावी ज्ञान की वृद्धि के साथ कोई विरोध नहीं है इसलिये वे जीव के गुण रूप से अवगत हैं 129 कथायें ज्ञान की विरोधी हैं क्योंकि कपायों की वृद्धि और हानि से क्रमशः ज्ञान की वृद्धि और हानि पाई जाती है । प्रमाद व असंचय भी जीवगुण नहीं है क्योंकि वे कायों के कार्य है । इस कारण ज्ञान, दर्शन, संचय, सम्यकत्व, क्षमा, मृदुता, अजिव, सन्तोष, विराग आदि स्वभाव गुण हैं, यह सिद्ध होता है 130
माइल का कहना है कि में ग्रोथ आदि से भिन्न एक परमतत्व हूँ, मैं केवल ज्ञाता हूँ । इस प्रकार की vara भावना होने पर आत्मा परमानन्दमय होता है 131 कहने का तात्पर्य है कि जब शुद्ध ज्ञाता रूप लक्षण पाली आत्मा को ग्रहण कर लिया तो उसके ध्यान के लिये इस प्रकार की भेदभावना की आवश्यकता होती है कि न मैं कोरूप हूँ न मानल्प हूँ, न मायारूप हूँ, न लोभप हूँ और न रागादिरूप हूँ, ये सब तो पुदगल के विकार हैं, जब तक इस प्रकार की भेदभावना नहीं होती तब तक ज्ञानादि की तरह क्रोधादि को भी अपना स्वभाव