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है । आत्मा की चैतन्य शक्ति जब बाड्य वस्तु के स्वरूप को जानती है तब
आत्मा की निराकार चैतन्या
इस निराकार अवस्था में दर्शन कहलाती है । वस्था उसके दर्शन की अवस्था है ।"
wad यह स्पष्ट होता है कि ज्ञान साकार है और दर्शन निराकार | जयला टीका में आकार का अर्थ घातलाया गया है कि सकल पदार्थों के समुदाय से अलग होकर बुद्धि के विषय भाव को प्राप्त हुआ कर्मकारक आकार पाया जाता है as arre उपयोग कहलाता है । 10 निराकार दर्शन इन्द्रिय और पदार्थ के सम्पर्क से पूर्व होता है । स्वावभाति चैतन्य को अनाकार दर्शन तथा बायवभाति चैतन्य की साकार ज्ञान कहते हैं । चैतन्य का स्व से भिन्न पदार्थों को जानना ही साकार होना है जबकि दर्शन का विषय अनारंग पदार्थ है। यदि दर्शन का विषय अन्तरंग पदार्थ न माना जाये तो वह अनाकार नहीं बन सकता अतः विषय और विषय के सम्पर्क के पूर्व अन्तरंग पदार्थ को ग्रहण करने वाला दर्शन होता है | 12
sa सन्दर्भ में अनाकार और अन्तरंग पदार्थ इन शब्दों का स्पष्टीकरण आवश्यक है क्योंकि पदार्थ तो साकार और मूर्तभौतिक ही होते हैं । "दर्शन का विषय अन्तरंग पदार्थ है" इससे क्या अभिप्राय है'
यदि हम ज्ञान का
तो देखेंगे कि ज्ञान में चैतन्य ही एकमात्र हेतु नहीं होता क्योंकि वस्तु का वास्तविक रूप चैतन्य को निरूपित करता है । यहाँ चेतन्य के अनुरूप वस्तु नहीं होती बल्कि वस्तु के वास्तविक रूप के अनुरूप चैतन्य धारा होती है। इसके विपरीत दर्शन में वस्तु की वास्तविक स्थिति क्या है यह प्रश्न नहीं उपस्थित होता क्योंकि यहां चैतन्य के अनुरूप वस्तु की अवधारण की जाती है। यहां पर चैतन्य प्रधान है । इस अर्थ में पदार्थ के arathe agree को अन्तरंग पदार्थ कहा जा सकता है क्योंकि यह चैतन्य द्वारा आत्मगत अनुभूति है जिसका भौतिक पदार्थ से संबंध नहीं हुआ है । यह एक