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उनके मत में मिथ्यावादि प्रणीत अर्थ भी तो लोगों द्वारा जाने जाते हैं परन्तु दे तत्व नहीं हैं। अत: "तत्व" पद का प्रयोग न करने से मिध्यावादि प्रणीत अर्थ पर प्रदा भी सम्यग्दर्शन कही जायेगी। यदि मात्र "अर्थ' शब्द का ही। प्रयोग किया जाये तो यूंकि "अर्ध" शब्द के अनेक अर्थ हैं इसलिए संदेह होगा कि 'किस अर्थ की श्रद्धा को सम्पादन कहा जायेगा । अतः इन ऐकान्तिक अथों के 'निराकरण के लिये तत्व पद का प्रयोग किया ही जाना चाहिए ।
सम्यग्दर्शन के निरूपण में "तत्व' शब्द के प्रयोग के औचित्य को सिद्ध करने के बाद आचार्य "अर्थ पद के औचित्य को भी बताते हैं। "अर्थ प्राब्द का अर्थ है "जो 'निश्चय किया जाता है ।' यदि "अर्थ शब्द का प्रयोग न किया जाये और मात्र तत्व ग्रहण को ही सम्यग्दर्शन कहा जाये तो यह समस्या उठती है कि कि एकातवादियों को भी तत्वदा होती है जिससे उनकी एकाणी प्रदा को भी सम्यग्रदान करना पड़ेगा। किंतु इच्छापूर्वक प्रदा को सम्यग्दर्शन नहीं कहा जा सकता।
अत: निष्कर्ष निकलता है कि तत्व रुप से मान्य अधों की श्रद्धा ही सम्परदर्शन है। इसलिए दर्शन पद के पूर्व "सम्यक् पद का प्रयोग “दर्शन के आत्मगत अर्थ का निराकरण करके दर्शन को एक ताकि पद के रूप में प्रतिष्ठित करता है।
ज्ञान और दर्शन का संबंध :
"दर्शन" पद के और स्पष्टीकरण का प्रयत्न किया गया है। जैन दार्शनिकों ने आत्मा की चैतन्यायित को आत्मा का विशिष्ट गुण माना है। यह चैतन्यवाति जिसे जैन दर्शन में "उपयोग" भी कहा गया है दो प्रकार की है एक तो ज्ञानोपयोग और दूसरा दर्शनोपयोग । अथात् वैतन्यशयित ही ज्ञान और दर्शन रूप से कार्य करती है। आत्मा की इस शक्ति का नाम ज्ञान है जिससे पदार्थ जाने जाते हैं तथा उस शक्ति का नाम दर्शन है जिससे तत्व की श्रद्धा होती