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यहा नय, धान और प्रमाण शब्दों के प्रयोग में gs farद हैं। जैन दार्शनिक ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। यहाशान शब्द के प्रयोग में म उत्पन्न हो गया है। जब ज्ञान को वह जो सत्यापित हो चुका है इस अर्थ में लेते हैं तो ज्ञान को इस अर्थ में प्रमाण माना जा सकता है। यहाँ ज्ञान और प्रमाण एकार्थक हैं। किन्तु मान तो सत्य भी होता है, मिथ्या भी। भान शब्द से हमारा अभिप्राय वगा समझा पायेगा' प्रमाण भाषद के प्रयोग का यह ही कारण था । ज्ञान में सत्यता और असत्यता दोनों की संभावना होती है किन्तु प्रमाण सत्य शान होता है।
कान उत्पन्न होते ही उसकी सत्या का निधचय भी नहीं हो जाता अन्यथा भ्रम संभव न हो। अत: प्रत्येक नय दृष्टि में सत्यता की संभावना हो सकती है, अत: चिनिष्ट दृष्टिकोण से नय सत्य है। किन्त नयों की यह सत्यता सत्यता की शानमीमासीय गारंटी नहीं हो सकती। किसी भी नय विश्वास को बिना प्रमाणित किए सत्य कहना मानमीमातीय दृष्टि से महत्वहीन है।
इस बात से इंकार नहीं किया ताकि लोगों को भ्रम और मिया विचारा होते हैं 126 से यह विषयात कि सूर्ण पृथ्वी के चारों ओर पू गा पृथ्वी रापटी है आदि ।
जससे संबंधित आधुनिक दार्शनिकों ने प्रश्न उठाया है कि भौतिक शास्त्र या अन्य शास्त्रों से संबंधित विश्वासों में भ्रम उत्पन्न होने की संभावना हो सकती है लेकिन उनका कहना है कि तक के नियमा अनिवार्य होते है, अत: मिथ्या नहीं हो सकते । इसलिए तक के नियमों में विश्वास में कोई भी नहीं हो सकता ।
यहा इसके उत्तर में कहा गया कि गणित के नियम भी तो तर्कशास्त्री भाति अनिवार्य हैं किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि हमें असत्य गणितीय भिवास नहीं होते। तात्पर्य है कि तार्किक नियम अनिवार्य सत्य हो सकते हैं 'किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं है कि शास्त्र में भिध्या frare नहीं होते 127