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________________ सारांश यह है कि जिस प्रकार सम्यग्दृष्टि वाला व्यक्ति चक्षु के द्वारा वस्तुओं को ग्रहण करता है, शुत के द्वारा पदार्थों को जानता है और अवधि के द्वारा पदार्थों को ग्रहण करता है उसी प्रकार 'मिथ्यादृष्टि भी ग्रहण करता है किन्तु उन्माद के कारण वास्तविक और अवास्तविक का अंतर नहीं समदा पाता | रागद्वेष की तीव्रता और आत्मा की कारपूर्ण अज्ञानावस्था के कारण वह अपने ज्ञान का . उपयोग सिर्फ सांसारिक पासना की पूर्ति के लिये करता है, इसलिये उसका सारा लौकिक ज्ञान आध्यात्मिक दृष्टि से अज्ञान ही है 125 यह तो जैनों की अज्ञान विषयक अपनी विशिष्ट आध्यात्मिक आगमिक दृष्टि थी किन्तु यहा मुख्य प्रयोजन तार्किक या व्यवहारिक दृष्टि से है। ताकि या व्यवहारिक दृष्टि से भ्रम का उदाहरण है एसी में सर्प का ज्ञान, सीप में चांदी का भ्रम, मृगमरी चिका आदि । इस भाग के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। विवाद का विषय है भम क्या है १ भम की उत्पत्ति कैसे और क्यों होती है १ आदि-आदि । 3. 'विपरीत ख्यातिवाद भ्रम यथार्थ ज्ञान के विपरीत है और क्या है तथा क्या नहीं है इसके बीच भेद करने में असफलता है। जैन आचार्य वादिदेवसूरि के मत मैं म तब होता है जब वस्तु का एक पक्ष से 'निश्चय या निरूपण करते हैं। किसी वस्तु के कई अंग या पक्ष होते हैं। यदि इनमें से किसी एक ही पक्ष या पहलू से वस्तु का निर्णय करते हैं और अन्यों को छोड़ देते हैं तब वस्तु का ज्ञान भ्रम होगा ।24 उदाहरणार्थ देखने पर यह निश्चित करना कि सीप में चादी है जबकि सीप चादी नहीं है। सीप को यादी को रूप में समझाने की गलती करना ही भ्रम है 125 जैनों का भ्रम विषयक उपरोक्त सिद्धान्त भारतीय दर्शन में विपरीत ख्याति
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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