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उपलब्धि के कारण उन्मत्त की तरह का ज्ञान भी अज्ञान ही है किन्तु सम्यग्दृष्टि का सभी ज्ञान तो ज्ञान ही है 120
उमास्वाति का यही मत है कि सत् अर्थात् प्रशस्ततत्वज्ञान, असत् अर्थात् अज्ञान इनमें 'मिथ्या दृष्टि को कोई विशेषता का मान नहीं होता। वह कभी सत् को अतत् और असत् को सत् कहता है। यदृच्छा से सत् को सत् और असत् को असत् कहने पर भी उसका यह मिथ्याज्ञान ही है 127
आगे वह कहते हैं कि 'मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यादर्शन के साथ रहने के कारण इन ज्ञानों में मिथ्यात्व आ जाता है जैसे कड़वी तूमरी में रखा हुआ दूध कड़वा हो जाता है। उनके अनुसार यह शंका उचित नहीं है कि जिस तरह मणि, सुवर्णं गन्दे स्थान में गिरवार भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते' उप्सी प्रकार ज्ञान को भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ना चाहिये ! कड़वी तूमरी के समान मिथ्यादर्शन में ज्ञान दूध को 'बिगाइने की शचित्त है । यद्यपि गन्दे स्थान से मणि आदि में विकृति नहीं होती पर अन्य धातु आदि के सम्पर्क से सुवर्ण आदि भी परिवर्तित हो ही सकते हैं ।22
उमास्वाति का मत है कि जीव दो प्रकार के होते हैं - मोक्षाभिमुख और सासाराभिमुख । मोक्षाभिमुख जीव में समभाव की मात्रा और आत्मविवेक होता है । इसलिये वे अपने सभी ज्ञानों का उपयोग समभाव की पुष्टि में ही करते हैं । अत: उनका ज्ञान सांसारिक दृष्टि से अल्प होने पर भी ज्ञान ही होगा। इसके विपरीत संसाराभिमुख जीव का ज्ञान समभाव का पोषक न होने के कारण लौकिक दृष्टि से कितना ही अधिक हो अज्ञान ही कहा जायेगा क्योंकि वह सत्य और असत्य ज्ञान का अंतर जानने में असमर्थ होता है। अतः उत्तका सभी ज्ञान अज्ञान ही होगा । संसारी जीव की श्रद्धा विपरीत और समीचीन के भेद से दो प्रकार की होती है । 'विपरीत श्रद्धावाले व्यक्ति को विश्व का यथार्थ ज्ञान नहीं होता। यही कारण है जीव की श्रद्धा के अनुसार ज्ञान की समीचीन ज्ञान और मिथ्याज्ञान में विभक्त हो जाता है।