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नाम से प्रसिद्ध है। कुमारिल और नैयायिक भी भमविषयक विपरीत ख्याति सिद्धान्त के समर्थक हैं। नैयायिकों का भी कथन है कि भ्रम विषय का यथार्थ रूप प्रकाशित नहीं करता। ऐसा होता है कि अधोरे में रस्सी को सर्प समझ लिया जाता है, सीप को चांदी समझ लिया जाता है। किन्तु यह ज्ञान भ्रम है। यह कैसे पता चलता है। यहाँ नैयायिक उपयोगितावादी दृष्टिकोण अपनाते हुये कहते हैं कि भ्रांतियां हमारे उददेश्य की पूर्ति करने में असफल होती हैं। अभिप्राय यह है कि यदि किसी वस्तु के ज्ञान के आधार पर उस वस्तु के संबंध में कोई कार्य किया जाये और वे कार्य सफ्ल निकले तो उस ज्ञान को यथार्थ समझना चाहिये और यदि विपलता मिले तो उसे भंम समझना चाहिये। जैसे सीप को चादी समझकर उठाते हैं किन्तु उठाने पर ज्ञात होता है कि वह तो मात्र सीप थी।
जैनों और नैयायिकों के भ्रम विषयक इस विपरीत ख्याति सिद्धान्त की मीमांसकों और अद्वैतियों ने आलोचनायें की। मीमासकों का भ्रम विषयक सिद्धान्त 'विवेकाख्याति नाम से प्रसिद्ध है ।
__जैनों का मत है कि भ्रम विपरीत ख्याति में होता है, अर्थात् भ्रम प्रत्यक्षीकरण की विषयवस्तु से 'विपरीत वस्तु का भावात्मक प्रत्यक्षीकरण है। भ्रम में किसी वस्तु का ज्ञान उस रूप में प्रकट नहीं होता जिस रूप में वह है बल्कि उस रूप में प्रकट होता है जैसे कि वह वस्तु नहीं है ।
प्राभा कर मीमांसक जैनों के इस मत की आलोचना करते हुये कहते हैं कि भ्रम एक विपरीत वास्तविक से। वस्तु का भावात्मक प्रत्यक्षीकरण नहीं है बल्कि 'विवेकाख्याति अथात भेद के ज्ञान का अभाव है। यह ज्ञान का अभावमात्र है। मीमांसकों के अनुसार प्रत्येक ज्ञान सत्य होता है। जिसे भ्रम कहा जाता है वह स्मृति दोष है । भतकाल में देखी गयी वस्तु जो वर्तमानकाल में स्मृति का विषय होती है उसे वर्तमान में भी प्रत्यक्ष मान लिया जाता है । अर्थात् स्मृति और प्रत्यक्षा में भेद का अनुभव नहीं कर पाते । भ्रम भावात्मक मिथ्याज्ञान के कारण नहीं बल्कि अभावात्मक अज्ञान