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युग में ही झा है, जिसे न्याय-युग भी कहा जा सकता है। इस विषय पर विस्तृत विवेधन दलसुख मालवणिया जी ने किया है।
*ज्ञान* और "प्रमाण में क्या संबंध है" - इस विषय पर स्पष्ट विचार उमास्वाति के गन्ध में मिलता है। उन्होंने ही सर्वप्रथम शान" और "प्रमाग का स्पष्ट संबंध स्थापित किया और कहा कि "ज्ञान* मति, भुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल ज्ञाना ही प्रमाण है। अतः उन्होंने बान' और 'प्रमाण' में अमेट संबंध स्थापित किया ।
उमास्वाति के पायात अधिकाश जैन - विचारकों ने उनके मत का अनुसरण किया जिसके परिणामस्वरूप ज्ञान और प्रमाण में सामंजस्य स्थापित हो गया।
Pottamam
अकलंक देव के अनुसार - प्रमाण शब्द 'भाव, कई और करण* इन तीनों अयों में प्रयुक्त होता है। जब भाव की प्रधानता होती है तो प्रमा को प्रमाण कहते हैं, का अर्थ में प्रमातृत्व पाक्ति की प्रधानता होती है जबकि करण अर्थ में प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण की भेद विवer होती है। इनमें से विवक्षानुसार अर्थ ग्रहण किया जाता
प्रमाण के भाषसाधन और कर्तु-साधन के रूप पर कुछ आपत्तियां उठाई गयी थी जिनका समाधान अकलक ने किया है।
यदि प्रमाण को भाव-साधन के अर्थ में लिया जाये तो यूंकि प्रमा ही प्रमाण है और प्रमा ही फल है अतश्य, प्रमा के पल होने के कारण प्रमा के पल का अभाव हो जायेगा। तक का समाधान करते हुए अक्षांक कहते हैं कि आत्मा को इन्द्रियों