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पृथम - अध्याय
पूमाण का ताकि पिरलेषण
प्रमाण-पथा:
भारतीय दान के अलाश सम्प्रदायों में प्रमाण के विषय में विस्तृत पवार की गयी हैं। डा सुरेन्द्रनाथ दासगुप्त के अनुसार प्रमाण* शब्द का प्रयोग मुख्यतः दो रूपों में किया गया है - एक तो असत्य और भ्रमपूर्ण मानतिक धान के विपरीत सत्य मानसिक शान के अर्थ में, और दूसरे, ज्ञान को उत्पन्न करने पाली परिस्थितियां के संग्रह या माध्यम के स्प में ।। प्रत्येक दर्शन का ज्ञान के सम्बन्ध में विशिष्ट दृष्टिकोण ही प्रमाण के इन दोनों अर्थों के विषय में मतभेद होने का कारण है।
जैन दर्शन में प्रमाण का संपत्थप अन्य दर्शनों के संप्रत्ययों से भिन्न है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए जैन दर्शन में दो युगों - प्राचीन युग और आधुनिक युग का उल्लेख किया जा सकता है। प्राचीन युग, जिसे शागम युग भी कहा जा सकता है. में प्रमाण के विषय में विशेष या नहीं की गयी है। यद्यपि उस युग में भी अन्य दर्शनों में प्रमाण-पगार चलती थी और जैन दार्शनिक उनसे अनभिज्ञ नहीं थे, फिर भी उन्होंने अपने मौलिक ज्ञान-सिद्धान्त में प्रमाण को स्थान नहीं दिया| इतर दोनों में सामान्यत: सत्य और असत्यमान का भेद प्रदर्शित करने के लिए प्रमाणका आप्रय लिया गया है। इसके विपरीत, जैन दार्शनिकों ने सत्य और असत्य ज्ञान में ही मेद स्थापित करके प्रमाण का प्रयोजन ज्ञान द्वाराहीपुरा कर लिया। इस कारण आगम युग में "प्रमाण-वा" मान-चर्चा के अन्तर्गत ही है।
फिर भी, पेन दार्शनिक अन्य दर्शनों में चलती प्रमाण-चया से अप्रभावित हुए बिना नहीं रहे हैं। यही कारण है कि यत्र-तत्र दोनों आगमिक गन्धों में प्रमाण और बान* दोनों शब्दों का प्रयोग होता रहा। यहा इसके उल्लेख का प्रयोजन इतना मात्र दिखाना है कि जैन-दर्शन में शाम से धक करके प्रमाण का वेिचन नवीन