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लिया जाता है। अन्य दर्शनों में "अE* का अर्थ इन्द्रियही लिया गया है, परिणाम स्वरूप उन्होंने प्रत्यक्षा का ल किया है। ऐसा ज्ञान जो इन्द्रियों की सहायता से होता है। सिद्धतेन का कथन है कि इन्द्रियों से होने पाला भान साक्षात् आत्मा से नहीं होता, अत: पड प्रत्यक्षा नहीं है।' पैन-दर्भान के अनुसार, प्रत्यक्षा शान में जाता
और शेय के मध्य कोई शक्ति नहीं होती। इस प्रकार, यहाँ जो ज्ञान आवरणरक्षित केवल आत्मा के प्रतिनियम है, जो ज्ञान बाय-इन्द्रियादि की अपेक्षा से न होकर केवल पोपशम वाले पा आवरणरहित आत्मा से होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान है ।
जैनदर्शन का स्पष्ट विगर है जिसमें शीन काल के गोचर अनन्त गुण-पयाय संयुक्त पदार्थ अतिशयता से प्रतिभासित होते हैं उसको ज्ञानी पुरूषों ने ज्ञान कहा है। यह ज्ञान आल्मा का स्वाभाविक है। यदि अग्नि को उष्ण स्वभाव न माना जाये तो अग्नि का स्वरूप क्या रह जाता है, अथात कुछ स्वरूप नहीं रहता, उसी प्रकार यदि आत्मा को शानरूप न माना जाये तो इसका भी कुछ स्वल्प नहीं बचेगा 110 अत: शान आमा का सारतत्व है। आत्मा पद रूप में ज्ञान है और आत्मा ही ज्ञाता रूप में ज्ञात है। ऐसा ही अनुभव पाश्चात्य-दर्शन के महान दार्शनिक रेने देकात ने किया, जब उन्होंने कहा - "मैं सोचता हूँ इसलिये मैं हूँ Icomjargosum !' उन्होंने कहा कि मैं अपने अस्तित्व का निराकरण कर फिर भी निराकता के रूप में आत्मा के अस्तित्व का खंडन नही किया जा सकता है।
आत्मा और शान के संबंध को कुन्दकुन्द ने इस प्रकार स्पष्ट किया कि माता और मान में कोई भेद नहीं है, क्योंकि आनुभविक दृष्टि से केवलनानी सम्पूर्ण वास्तविकता को जानता और अनुभव करता है तथा अतीन्द्रिय दृष्टिकोण से आत्मा
पहा पर अकलंक एक नवीन विचार प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार शन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान भी प्रत्यक्ष ज्ञान की कोटि में रखा जा सकता है क्योंकि अकालक। के अनुसार प्रत्यक्ष का अर्थ है "पष्ट मान* ! यक्ष ज्ञान आत्मा के द्वारा भी उत्पन्न