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________________ प्रत्यक्ष प्रमाण पिछले अध्याय में स्वपरावभाति ज्ञान अधातु ऐसा ज्ञान जो स्वयं अपने के और पदार्थ को प्रकाशित करता है। प्रमाण का उपयुक्त लक्षण प्रतीत हुआ था। इसका तात्पर्य है कि एक ज्ञान दो स्थितियों में प्रमाण होता है। एक तो जब वह अपने स्वरूप का प्रकाशन करता है और दूसरे, जब वह पदार्थों का प्रकाशान करता है। ज्ञान जब अपने स्वरूप का प्रकाशन करता है तो उस स्थिति में प्रमाण को प्रत्यक्ष प्रमाण और जब वह पदार्थों का प्रकाशन करता है तो उस स्थिति में प्रमाण को परोक्ष प्रमाण कहते हैं। अतः दो प्रकार के प्रमाण संभव हैं - प्रत्यक्षा और परोधा । जैनदर्शन में प्रमाण के यह ही दो प्रकार माने गये हैं। न्यायावतार की टीका में सिमा ने कहा है कि मान की प्रवृत्ति दो ही प्रकार की होती है, विशद औरअविशद । इसके अतिरिक्त और किसी प्रकार की ज्ञान-प्रवृत्ति नहीं हैं। अतएव प्रमाण का तीसरा प्रकार हो ही नहीं सकता। विवादमान प्रत्यक्ष है और अविषदबान परोक्ष ज्ञान के जितने भी प्रकार है उन्हें विशदता और अविशदता के अन्दर रखा जा सकता है। उमास्वाति का कथन है कि अनुमान, उपमान, आगम, अापत्ति, संभावना, अभाव और अनुपलब्धि प्रमाण के पृथक प्रोत नहीं हैं। वे इन सब प्रमाणों को परोक्ष प्रमाण में समाविष्ट कर लेते हैं। उनका कहना है कि इनमें से अधिकांश प्रमाण वस्तुओं के साथ इन्द्रियों के सम्पर्क के कारण है। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि जैन-दर्शन की प्रत्यक्ष और परीक्षा की परिभाषायें सामान्य परिभाषाओं से भिन्न हैं। अकालकदेव ने स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष माना है। स्पष्ट मान का पही अर्थ है जो विशदता का ।' विशदता का अर्थ है ऐसा ज्ञान जिसके प्रकाशन के लिए किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता न हो।' प्रत्यक्षा का व्युत्पत्ति-मूलक लक्षाग जैन दर्शन के अनुसार यह ही है, क्योंकि यहा' "अक्ष' शब्द का अर्थ आत्मा लिया गया है। अत: "अक्षा अथात् आत्मा की अपेक्षा से जो बान होता है वह प्रत्यक्षावान है। किन्तु सामान्य प्रयोग में "rel" का अर्थ आख-इन्द्रिय से
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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