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हो सकता है। अकलंक प्रत्यक्षा ATन लिए "अS-ATविशेषण का प्रयोग करते हैं जिसका अभिप्राय है प्रत्यक्षाज्ञान अपने स्वभाव से ही स्प होता है. चाहे वह शन्द्रियों से उत्पन्न हो अथवा इन्द्रियों से उत्पन्न न हो ।
किन्तु अकलंक आत्मा को स्वभावत: मान-स्वरूप पाला मानते हुए कहते हैं कि आत्मा जच निहावरण रूप में होता है तो उसे ज्ञान के लिए इन्द्रियादि साधन की आवश्यकता नहीं पड़ती, वह अपनी शक्ति से ज्ञान प्राप्त कर लेता है। ज्ञान प्राप्ति में इन्द्रियादि-सहायता की आवश्यकता तो तब पड़ती है जब उसका स्वाभाविक ज्ञानमय स्वरूप ढक जाता है।15 उनका स्पष्ट विचार है कि जिस प्रका चलने की शक्ति से सम्पन्न मनु-य स्वयं चलने में असमर्थ होने पर ही लाठी आदि का महारा लेता है उसी प्रकार मानावरण से ढक जाने पर मान-स्वभाव वाली आत्मा बाय-उपकरण का सहारा लेती है। बाय-उपकरण ज्ञान की उत्पत्ति में एक स्थितिमात्र हो हैं जिसमें स्वयं आत्मा का स्वभाव प्रकट होता है। आत्मा का शान सवय आत्मा की अवस्था है जिसमें बाध्य पदार्थ आभासित होते हैं, इन्हीं के आधार पर हमें बाप-पदार्थ का ज्ञान होता है। भाड्य-पदार्थ के अभाव में, उसके विषय में विशिष्ट ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के रूप में स्व का प्रकाशन तो होता ही है। जब भान का स्वता प्रकटीकरण पूर्ण होता है उसे किसी बाध्य पदार्थ की अपेक्षा नहीं होती और इन्द्रियादि से उत्पन्न पदार्थों के for Eान से उसका कोई प्रयोजन नहीं रह जाता | तब पूर्णतान केवलज्ञान अपने में सभी विशिष्ट ज्ञानों को समावेश कर लेता है।
उपरोक्त विवेयनों से क्या यह निकली नहीं निकलता कि केवलज्ञान के अतिरिक्त सब कानों को मिथ्या माना जाये' अस विषय में उमास्वाति का तिर है कि जानने की शक्ति चेतना समान होने पर भी जानने की किया-बोध उपयोग सा आत्मानों में समान नहीं होता। यह उपयोग की विविधता बाह्य-आभ्यन्तर का की विविधता पर अवलम्बित है। 'विष्यभेद, इन्द्रियादि साधन भेद, देवकालमेर इत्यादि विविधता बाह्य सामग्री की है। आवरण की तीता-मन्दता का तारत