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कौशलज्ञान की नियति है 144
अनुयोगदार मैं वीरसेन ने इसी तर्क प्रक्रिया के अनुसार केवलज्ञान की सिद्धि के लिए कई युपिया दी है, जो उनकी मौलिक उपलEि फटी जा सकती है। प्रथम युपित के अनुसार आत्मा ज्ञान स्वरूप है तथा उसके प्रतिमा को का क्षय होना भी संभव है। प्रतिक कर्म के नष्ट हो जाने पर ज्ञान प्राप्त हो जाना ज्ञान विभाव वाली आत्मा का अनिवार्य है। जैसे अग्नि में जमाने की शक्ति हो और प्रति घट गये हों तो पट दाहक पदाधों को यों नही जलायेगी
दूसरी युक्ति में वीरसेन ने पौधलझान को स्वर्गसिद्ध बताया है। फेवलज्ञान और मतिनादि में अजय-अवधिभाव की कल्पना करके उन्होंने फटr, शिा प्रकार घट-पट आदि अवयवी पदाधों का साध्यवहारिक प्रत्यक्ष राम अवयवों को देखकर ही होता है, उसके अन्दर और बाहर के सम्पूर्ण अवयवों को प्रत्यक्षा करना हम लोगों के लिए संभव नहीं है। उसी तरह केवलज्ञान सी मी का प्रत्यक्षा भी उसके काड मतितानादि अवयवों के स्वयेदन प्रत्यक्षा के मारा होता
केवलज्ञान के दि. 'य में कुंदगेंद ने कुछ भिन्न विचार प्रस्तुत किया । उनका कहना है कि क्षेतालज्ञान को जो समरत पदार्थों को जानने वाला कहा गया है पल पल व्याहारमय से ही कहा जा सकता है, क्योंकि निश्चय-नय ले तो देवलज्ञान आत्माभिमुख होता है, अपने स्व-प में निमग्न होता है 146
___एक अन्यस्थान पर उन्होंने कहा है, जो अनंत पर्यायवाले एक द्रव्य को नहीं जानता TE Aधको कैसे जानता है और जो सबको नहीं जानता यह अनत । पाथवाले एक द्रव्य को कैसे जान सकता है#7