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________________ नान के भेद में निहित तक की स्वाभाविक परिणति तो प्रत्ययवाद की ओर उन्मुल प्रतीत होती है किन्तु ये इस निष्कर्ष को स्वीकार न करके वास्तववादी श्रेणी में आ जाते हैं। यदि हम प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय ज्ञान को परम निरपेक्ष ज्ञान न मानें तो जैनों के परोक्ष ज्ञान के विश्लेषण के आधार पर उन्हें वास्तववादी दर्शन कहा जा सकता है और रेन्द्रिय ज्ञान की वास्तविकता मानी जा सकती है क्योंकि वे ज्ञाता के रूप में एक सार्वभौम आत्मा के अस्तित्व की कल्पना न करके अनन्ना आत्माओं की फाल्पना करते हैं, कोय के रूप में जाना स्थान बाध्य जड पदार्थों की पृथक रवतंत्र सत्ता को भी मानते हैं जिनका ज्ञान हन्द्रियों से होता है। रेखाशिनारा इस बात को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है - माता जीव । परीक्षा मान -----साधनइन्द्रियाँ। शेय । भौतिक वस्तु जगता 'किन्तु यदि हम इन्द्रियजन्य परीक्षा ज्ञान को बाध्य वस्तु जगत का स्वतंत्र ज्ञान मान लिया जाये तो प्रत्यक्षा मान की क्या स्थिति होगी' प्रत्यक्ष मान का विश्लेष्ण भी अपूर्ण है क्योंकि यहाँ प्रस्थान में भी विय, वस्त ही होती है, यपि परोक्षशान के विपरीत यहा पस्तु का ज्ञान हमें बिना। इन्द्रियों के माध्यम से होता है। क्या प्रत्यक्ष और परोक्षानों के मध्य सिफ इन्द्रियों की माध्यम के रूप में उपस्थिति और अनुपस्थिति का ही भेद होता है' प्रपन उठता है कि यदि माता बिना इन्द्रियों की सहायता के वस्तु का साक्षात धान प्राप्त करने में समर्थ है सो परीक्षा ज्ञान के रूप में इन्द्रियों की मध्यस्थता की आवश्यकता क्यों पड़ती है फिर यह तो हमारा स्पष्ट अनुभव है कि वस्तु जगत का ज्ञान हमें इन्द्रियों द्वारा ही मिलता | आमा द्वारा वन्तु का साक्षात जो मान मिलता है उसमें और इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान में था संबंध
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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