SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 75 जहाँ तक विषयता की स्थिति का प्रश्न है जैन दार्शनिक चूँकि विषय को ज्ञान से स्वतंत्र मानते हैं, इसलिए वास्तवादी कहे जायेंगें । art की सतत क जातक संबंध है या कि ज्ञान में उपलब्ध विषय की सत्यता का प्रश्न है वहाँ जैन दार्शनिक सापेक्षतावादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए प्रत्येकज्ञान की प्रसंग-सा मानते हुए Frent को भी प्रसंग - सापेक्ष मान लेते हैं। से वस्तु का ज्ञान प्राप्त किया गया है उस उद्देश्य की दृष्टि से वह ज्ञान साथ है। तात्पर्य है कि यहा जैन दार्शनिक विश्व के निरपेक्ष की और आग्रह न जिस प्रसंग में जिस उद्दे दिखाते हुए, विषय-वस्तु जिस रूप में उपलब्ध हो रही है उसी को परिस्ि "विशेष से उसके उपयुक्त होने के कारण सत्य मान लेते हैं । इससे निष्कर्ष निकल है कि विज्ञान के संबंध में जैन-दृष्टि सापेक्षवादी है, व्यवहारवादी है । जैन दर्शन प्रत्यक्ष ज्ञान के रूप में अतीन्द्रिय केवल ज्ञान को परम निरपेक्ष पूर्ण ज्ञान मानता है और ज्ञान के शेष प्रकारों को जिनमें रेन्द्रिय ज्ञान भी का हैन के मैट मानता है जैसा अकलंक का कहना है केवलज्ञान सामान्य ज्ञान है जिसके आवरण भेद से 5 मे होते है । इस कथन का स्वाभाविक निकर्ष होगा कि केवलज्ञान के रूप में अती 1 ज्ञान के अतिरिक्त बाकी सब ज्ञानों के पुकार जिन्हें जैन दार्शनिक मानते हैं ये deer के भेद होने के कारण सापेक्ष और सीमित ज्ञान होगें निरपेक्ष ज्ञान तो Samare है । रूप निष्कर्ज की स्वीकृति का अर्थ होगा प्रकारान्तर से प्राकराच के दर्शन की भांति सत्ता और ज्ञान के दो स्तरों में अन्तर मानना, अर्थात् व्यावहारिक दृष्टि से ऐन्द्रिय ज्ञान सत्य होते हुये भी पारमार्थिक दृष्टि से ज्ञान है जो निरपेक्ष केवलज्ञान पर निर्भर है । किन्तु यह स्थिति प्रत्यवादी की स्वीकृति है जो कि वास्तववादी, वस्तुवादी दर्शन जैनों को स्पष्ट रूप से Sariff के ऐन्द्रिय अनुभवों को भी ज्ञानप्राप्ति का स्वतंत्रता मानते हैं । इस स्थिति में सामंजस्य कैसे स्थापित किया जा सकेगा जैनों में
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy