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और पुमिति दोनों को एक साथ सत्य सिद्ध करे। जो हमारे कान और ज्ञान के शिदोनों की यथार्थता स्थापित करे । बरा दुष्टि से "स्वपरासभा जिला प्रमाण का उपयुक्त लक्षण हो सकता है, क्योंकि पहलाण प्रमाण और प्रमिति दोनों को सय मि.: करता है। जैसा कि प्रमाण - लक्षणों के पूर्व विवचन के प्रसंग में अकलंक देव द्वारा लि किया गया कि यदि प्रमाण को दीग की भाति स्व और पर का प्रकाशक माना जाये तो प्रमाण और प्रमेय के संघर्ष की समस्या हल हो जाती है। हेमचन्द्र का कथन है कि ज्ञान प्रकाशमान स्प में ही अ को प्रकाशित करता है 118 ज्ञान का पर प्रकार होने के कारण स्वप्रकार से दीपक की भाति कोई विरोध नहीं है। जानने स्य किया कि घेतम होता है, यही कारण हे विमान को प्रमाण माना गया है। जिस प्रकार दीपक की प्रकाश माने बिना दीपक द्वारा प्रकाशित पदायों की प्रा मानना संभव नहीं, उसी प्रकार यदि प्रमाण स्वस्य ज्ञान की स्वत: प्रकाशता न मानी जाये तो बान दारा TT पदार्थों की प्रत्याला संभव नहीं। शान का गुणबी है - अपने को और पन्तु को प्रलानी करना | ज्ञान चेतन है। इसीलिये जैन-दर्शन में प्राप्ति की दृष्टि से दान स्वत: प्रमाण है 140 ज्ञान के स्वरूपगृहण की अपे। उसका प्रामाण्य-निशाय स्वयं होता है। चाहे प्रमाण हो या अपमाण, पE अपने स्वस्थ का सवेदन करता ही है। माणियनन्दि का कथन है कि कौन सा व्यक्ति है जो भान से प्रतिभा सित सुरु पदार्थ को प्रत्यक्ष मानता भी स्वयं जान को प्रत्यक्षा न भाने ।जैन मत में इन्द्रिया सान्निका प्रमाण के स्वरपगवण में हैतु नहीं होते, अतः शप्ति की दृष्टि से प्रमाण स्वत: होता है। अन्य दोनों मारा मान्य ज्ञान पतन्निकों की प्रमाणता के निराकरण के लिए ही पैनों ने बाप्ति की जान को स्वतः पुमाण माना ।
यहा परन उanा है कि क्या उत्पत्ति की दृष्टिले मीन यता प्रमाण है' यदि ऐसा मान लिया जाये तो प्रत्येक शान स्वत:प्रमाण हो जायेगा। ज्ञान में अप्रमाणता का प्रान ही नहीं उठेगा । तब प्रथम भाग मैं जब "घाट सप है", ऐसार्स