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में शान होता है तो इस शाम को भी प्रमाण मानना चाहिए । 'किसी वस्तु को जानना और उसकी सत्यता का निश्चय होना भिन्न स्थिति है ।
FAT RAT प्रकार दिया गया है कि अपमान भी मियाय होता है| रती मैंस का मान होता है उस सिर्फ यही ज्ञान होता है कि या सप । किन्तु यह ज्ञान वस्तु में यथार्थ समाप के विपरीत है अत: इस शान मैं संभाग उपन्न हो जाता है। तब हास संशय के निराकरण की आवश्यकता पड़ती है। सीए TET प्रमाण धन पाता है। प्रमाण र प्रभा दोनों में धान का मि..! पर होती है किन्तु जहा प्रमाण-ज्ञान में संशय, पि ओर अनथ्यवसाय के विरोध न होने से वस्तु का यथार्थ, सत्य ज्ञान होता है वहीं कान में यदि संशय, विषय और यवशाय य समारोप उत्पन्न हो जाये तो ही शान अपमाण हो पाया है। यही कारण है माणिक्यनन्दि फहते हैं कि "दृष्ट जथात् किसी अन्य प्रमाणात भी यदा समारोप हो जाने से अपूवार्थ हो जाते हैं। प्रमाग के लक्षण में जो "अपूर्व पद का प्रयोग माणिक्यनन्दिारा किया गया उसका अभिप्राय यह ही है कि मान के ,TT गृहीत वस्तु का निर्णय न किया जा सके तो यह भी "अपूर्य" ही कही जायेगी। इसी कारण से प्रमाण के लक्षण-कथन में व्यवसायाम पद का प्रयोग भी किया गया है। इसका तात्पर्य है कि संजा, तिपय और अनध्यवसाय स्प जो समारोप है उसके विरोधी पदार्थ को जानना ही प्यलाभकता है, तथा व्यवसायात्मवाता' के होने पर ही प्रमाणहान का अविषादी होना संभव है।
प्रमाण की जैन-दर्शन में तार्किक graft दी गयी है - प्रमाया: सात करणं प्रमाणम् । TET अर्थ है, 'जिा माध्यम से पदायों न होता है उस माध्यग को प्रमाण करते है। इसका अभिप्राय है कि मान निमियक नहीं होता। वस्तुमान-स्वभाव है किन्तु वस्तु का अस्तित्व बान पर निर्भर नहीं है । 42 बान की प्रमाणता और अप्रमाणता पदार्थ के हेतु से होती है। अतः शान की प्रमाणता, उत्पत्ति की दुटि से पातकी अपेक्षा अधात परत होती है। माणिजयनान्दिा