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कथन है कि दूर में जल भर कर आते ही लोगों को देखकर या कमलों की सुगन्ध है जी और तालाब का मान होता है, किन्तु इन लागों से करें या तालाब का ज्ञान तो तभी संभव है जब इन लक्षणों के साथ कुयें और तालाब का HIT जान प्राप्त हो चुका हो 143
उपयुत विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दर्शन में दो अर्थों में प्रमाण और ज्ञान का वियन किया गया - उत्पत्ति अथवा गृहणशीतता और मूल्यांगन । उत्पत्ति और ग्रहणशीलता की दष्टि से ज्ञान की विविधता और पुकारता को माना गया है तथा दूसरी दुटि से कान का मूल्यांकन किया गया है। शी लगा की दृष्टि से न को स्वपरावभाति कहा गया है और उसे प्रत्यः। और परोक्ष धगों में रखा गया है। मूल्याकन में नयवाद और स्पालाद का आता है 11 पाते मूल्यांकन की दृष्टि से सल्म को परिस्थिति-सापे। माना गया है तथा सत्यता: संभामा को बनाये रखा गया है। इनके सभी Pिart "सत्य-प्रायिकता के सिंहति का प्रतिपादन करते हैं। जैनों कीभानगी माताको नापीमांतीयप्रसंभाव्यताबाद* epislamic - Poolocabi.cism | कहा जा सकता है। यही जैन शानमीमांसा का आधारभूत स्वरय है।
उत्पत्ति की दृष्टि से स्पष्ट होता है कि नैनों के दृष्टिकोण में दिवादिता नहीं है क्योंकि ज्ञान को प्रत्यक्ष और परीक्षा नगों में बात हो भी निश्चित मानप्रकारों का मिट किया गया है और नवीन HTन-प्रकारों की सम्भावना बनाये रखी है। वास्तव में ज्ञान-प्रकारों में भेद का आधार चेतना का तिहास है, इसलिए जान को कम-1 से जोड़ा है।44 काय के आधार पर न की प्रकारता निशिचत की है। वस्तुतः प्रत्यक्षा और परीक्षा के बीच टपही हाय हैं और यही कर्म- दोनों को धीच सम्पर्क-सू भी है। जैन दार्शनिकों ने अनुसार, जब सम-4 TAT अर्थात् "आवरणीय" का होने पर पान होता है, ऐसी स्थिति में, जो भान होगा, पर परोक्ष होगा । यही कारण है कि यहा'