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ज्ञान में मात्रात्मक भेद माना गया है, प्रकारात्मक भेद नहीं। लक्षण-भेद ही प्रमाण-भेद का नियामक है। इसलिये जैन-दार्शनिक ज्ञान को एक और अखंड नहीं मानते । वे सभी ज्ञानों का समन्वय भी नहीं करते । वे दशाते हैं कि ज्ञान के विविध प्रकार हैं किन्तु उनमें विरोध नहीं है। "यही है" ऐसा आगृह नहीं है यही "सत्य-प्राय' का रूप है ।
मूल्यांकन की दृष्टि से भी यह ही सिद्ध होता है कि सत्य निरपेक्ष नहीं वरन् परिस्थिति-सापेक्ष है । इसलिये सत्यापन की जो प्रचलित कसौटिया हैं उनसे इन्हें सत्यापित या असत्या पित नहीं किया जा सकता । इन्हें "अनुभव की । HUTCHTHT"* I possibilities of experiences ! FT # TEGIT UT HOT
यहाँ पर जैनों का सिद्धांत काल पापर के "असत्यापन सिद्धांत" | Theoryo Falsshahei के निकट लगता है। पापर का मानना है कि प्रत्येक सामान्य कथन प्रसंभाव्य कथन है । वह तभी तक सत्य माना जाता है जब तक भावी उदाहरणों से अस त्या पित नहीं हो जाता । इस प्रकार किसी कथन के सत्यापन का अर्थ है - उसका असत्यापित न हो पाना ।46 अतः स्पष्ट है कि जैनों का सिद्धांत पापर के "असत्यापन-सितांत से काफी समानता रखता है। जो सत्य है उसे कहा नहीं जा सकता, जो "सत्यप्राय" है उसे मानेंगे । इसी अर्थ में इसे ज्ञानमीमासीय सापेक्षतावाद TEpistemic - Reladiesm | और ज्ञानमीमासीय पृसंभाव्यतावाद या सत्यपायिकतावाद | Episaune. Probabilasm | कहा जा सकता है |
अंत में, कहा जा सकता है कि यहाँ सत्यता का संप्रत्यय महत्वपूर्ण नहीं है । प्रगाण अर्थ का ज्ञान देता है । यहाँ पर अर्थ का निर्णय किया गया है, संप्रत्यय का मूल्याकन नहीं। ज्ञान प्रवृतिपरक और फलोन्मुख होता है इसलिये वह सफल और 'निष्फल कहा जाता है। यहाँ जैन-दार्शनिक आधुनिक पाश्चात्य व्यवहारवाद