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________________ सिद्ध करते हैं क्योंकि उनके भत में सत्ता स्व अपरिजनशील है। सो परीत, जैनदार्शनिक वस्तु का विवेचन एक विशिष्ट रूप में करते हैं, वस्तु-विषयक सभी दृष्टिया उस विशिष्ट दृष्टिकोण के संबंध में सत्य हैं। सभी दृष्टिया सत्य को जानने के सम्भावित माध्यम हैं। इससे सिद्ध होता है कि जैन-दार्शनिकों ar प्रमाण के जो विभिन्न लक्षण दिये गये हैं वे सम्भत क्योंकि वस्तु में विभिन्न गुण संभव है। के विरोधी प्रमों को सत्य सि. हारने IT-HT उपर्युक्त सित तार्किक दुष्टि सन्तोषपद नहीं हो सकता | अत: ताकि दुकोण से विवेचन को यहीं सपा नहीं किया जा सकता | ब के शान की उपEि की दृश्टि से प्रमाण के ये पिरोधी लाण संभव हो तो है पयोंकि बाद मैं पत्तियों का अपना यक्तिगत विशिष्ट दृष्टिकोण हो सकता है, तुओं को ग्रहण करने का ध्ययित का अपना तरीका हो सकता है, यस्तु के दाग की पमित्त की सीमा हो सकती हैं जो वस्तु के विधय में व्यक्ति को एक विशिष्ट दृष्टिकोण बनाने को बात कर सकती हैं किन्तु मान की सत्यता की दृष्टि से सभी दृष्टियों को सत्य नहीं माना जा सकता क्योंकि वस्तुओं का सत्य परिवर्तनशील नहीं है। प्रस्तु का सत्या वस्तु की आन्तरिक विशिष्टता होती है जो दष्टिकोणों की विविधता के साथ नहीं बदल जाती । सस्थ व्यक्तिगत नहीं परन् सार्वभौमिक होता है जो प्रत्येक जानने वाली बुद्धि के लिये सत्य होता है आकामा मैं तारों का अस्तित्व और कगीचे में गुलाब का अfिrera किती व्यक्ति के ITन पर निर्भर नहीं है। यह संभव है कि गचित उस गुलाब को अपने तरीके से जाने और विशिश क में जाने लेकिन इससे गुलाब के अस्तित्व में कोई अन्तर नहीं आता। इस प्रकार, व्यक्ति का वन्तुसत्य को ग्रहण करने का तरीका विशिष्ट व्यक्तिगत हो सकता है, किन्तु इससे वस्तु-सत्य यागत नहीं हो जाता। अतः हमें प्रमाण की सत्यता की एक निश्चित कतोटी चाहिये पो प्रमाण
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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