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द्वारा सत्यता भी इन विविध कसौटियों को परस्पर विरोधी माना गया है और किसी एक कसौटी को ही अंतिम रूप से चुना गया वहीं जैन-दार्शनिकों द्वारा प्रमाण के लक्षण के रूप में एक साथ ही सत्यता ने ये विविध कप्तौ टिया स्वीकार की।
प्रश्न उठता है कि जैन-दार्शनिकों द्वारा प्रमाण के लक्षण में एक साथ सत्यता की ये विविध कसौटिया क्यों मानी गयीं' इसका उत्तर खोजा जा सकता है। जैन-दर्शन की विशिष्ट तत्वमीमांसा में, जिसका अनिवार्य तार निकलता है उनकी अनेकान्तवादी दृष्टि, जो इनके सम्पूर्ण दर्शन में व्याप्त है। इस अनेकान्तवाद के सिद्धान्त के अनुसार वस्तु में विरुद्ध प्रतीत होने वाले अनन्तधाम रह सकते हैं क्योंकि वस्तु अनन्तधात्मक है। वस्तु में जितने विरोधी धर्म हैं सब सत्य हैं क्योंकि वस्तुविषयक सम्पूर्ण यथार्थता का ज्ञान उन विरोधी मों के समन्वय में निहित है। अतः वस्तु के विषय में सभी मत उपयोगी हैं क्योंकि वे वस्तु के विविध पहलुओं का कथन करते हैं और वस्तु के विषय में सम्पूर्ण सत्य को जानने के सहायक होते हैं। वस्तुओं के विषय में जो नाना मत-मतान्तर हैं, उनका कारण वस्तु का अनेक धमात्मकस्वल्प है 133
जैन-दर्शन के अनुसार, वस्तु को ट्रव्य और पदार्थ दोनों ही दृष्टियों से देखा जाना अपेक्षित है 154 द्रव्य की दृष्टि से वस्तु स्थिर प्रतीत होती है। वस्तु में जो अपरिवर्तनशीलता प्रतीत होती है उसका कारण द्रव्य है। किन्तु वस्तु में नित्य नये परिवर्तन होते रहते हैं, जिनका कारण वस्तु के अनन्त पयाय हैं, जो सदैव परिवर्तन उत्पन्न करते हैं। अतः वस्तु के विषय में जो नाना दृष्टिकोणों की विविधता दिखायी पड़ती है वह सम्भव है क्योंकि पर्याय वस्तु में प्रतियण परिवर्तन उत्पन्न करते रहते हैं। वस्तुओं की अनन्तधात्मकता के इस सिद्धान्त को तार्किक रूप से स्यादवाद और सप्तभंगीनय के रूप में व्यक्त किया गया है 135
उपर्युक्त विवेचन का अभिप्राय यह है कि पाश्चात्य - दार्शनिक वस्तु और सत्यता की एक कसौटी मानते हैं और दूसरी कसौटी को उस कसौटी का विरोधी