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उपर्युक्त विवेयन से यही सिद्ध होता है कि प्रमाण सत्यता की कसौटी पर परar Kar भान है। प्रमाण हानमात्र नहीं है, अपितु परीति शान है, सत्यापित भान | बान उत्पन्न होते ही प्रमाण नहीं बन जाता, पल गाण लभी बनता है जब उसे सत्यता की किसी कसौटी पर कसकर ययार्थज्ञान का रूप प्राप्त हो जाये। यह मात्र प्रत्यक्षा नहीं अपितु पुनर्निरीक्षित प्रत्यक्ष है, किन्तु यदि ऐसा है तो यह प्रमाण के अनगिताग्राही और अपूधार्थनाटील. विरह होगा।
अकलंकदेव ने प्रमाण का एक लक्षण दिया - "अनागिताग्राही* और माणिक्यनन्दि ने भी प्रमाग का एक लक्षण दिया - "स्वयूवायव्यवसायी"। मकान के अनुसार, अनगित का अर्थ है ऐसा कान प्रमाण होगा जो प्रमाणान्तर से अनिणीत अर्थ का निर्णय करे । इसी प्रकार माणिक्यनन्दि के "स्व" अर्थात् अपने और अपूवार्थ' अधात जिसे किसी अन्य प्रमाण से नहीं जाना गया है, ऐसे पदार्थ के निश्चय करने वाले ज्ञान को प्रमाण महा है। यदि प्रमाण के ये *अपूर्व" और "नाधिगत 'विशोषण मान लिये जाते हैं तो इसका अर्थ हुआ कि प्रमाण सत्यापित ज्ञान नहीं वरन् प्रत्युत ऐसा मान है जिसको पहले किसी प्रमाण से नहीं जाना गया है। अतः प्रमाण के लक्षण परस्पर विरोधी प्रतीत होते है। प्रमाण के लक्षण सम्यक्त्व और अनगितार्थग्राहित्य में स्पष्ट रूप से विरोध परिलक्षित होता है। प्रमाण का लण सम्यक्त्व मानने पर प्रतीत होता है कि ज्ञान को प्रमाण मानने के पूर्व सत्यता की किसी कसौटी पर परखा जा चुका है किन्तु अनधिताया धित्व को प्रमाण का लण मानने पर प्रतीत होता है कि ऐसे कान को प्रमाण माना गया है जिसकी पहले परीक्षा नहीं की गयी
इस प्रकार जैन-दार्शनिकों के प्रमाण के लयिान नै स्प होता है कि इनके द्वारा प्रमाण के मकाथन मैं सत्यता की विधि आगों को माना गया । साथ ही, पाश्चात्य-दर्शन की सत्यता की विविध कलाँदियों में जैन दार्शनिकों के प्रमाणलग की तुलना करने पर नई बात सामने आई कि म पाश्चात्य दार्शनिकों .