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मारा और निरीक्षण-परीक्षा वारा उलबान को परख लिया जाये। डिवी के अनुसार सत्य का केवल एक अर्थ है- परीक्षित | अर्थक्रियावादी विलियम जेन्स के अनुसार केवल उन्ही प्रत्ययों को सत्य कहा जा TANT है, जो प्रयोग : प्रमाणित किये जा सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि भान अनुभवामित परीण के पश्चात् ही सत्य सिद्ध होता है।
माणिक्यनन्दि मती अर्थपियावादी कसोटी का समर्थन करते हैं, जब कहते हैं किया याज्य और उपादेयागाड्या पदाथों की संलिन प्रमाण से होती है । अर्थत तिति के प्रधान कारणभूत प्रमाण से वन्तुरवपar यथार्थ ज्ञान होता है। उनके अनुसार प्रमाण fer की प्राप्ति एवं शहित के परिहार में समर्थ होता है। प्रमाण के धारा पस्तु का परीक्षण किया जाता है, जिससे उपादेय और हेय पदार्थों का ज्ञान होता है। अत: माणिक्यनन्दि के विधारानुसार मान तब तक सत्य नहीं होता जब तक उसकी पुष्टि संतोषजनक परिणामों की और मजाये। सन्तोनक कार्यगत होना सत्यता की कसौटी है। पिलियम जैम्स का कहना है कि वास्तविक विचार वही होते हैं जिन्हें हम समझ सकते हैं, लागू कर सकते हैं, 'पिनकीपुर की जा सकती है और जिन प्रमाणित किया जा सकता है 12 'विचार घटनाओं द्वारा सत्य बना दिया जाता है। यथार्थ प्रत्यय मानय के लिये उपयोगी होता है। उपयोगिता के मानदंड TT यथार्थ प्रत्ययों की रचना की जाती है।
शरा सिद्वाना मैं भी कठिनाइयाँ हैं । गपुधाम तो सत्य का निर्णय सदैय परीक्षा नहीं , मूसरे, उपयोगिता की अनुभूति में मम हो सकता है। इसके अतिरिक्त यह आवश्यक नहीं है कि जो उपयोगी है वह यथार्थ है | कभी किसी परिस्थिति में भूठ बोलना उपयोगी हो सकता है, किन्तु इस उपयोगिता से उस
की यमाता सिद्ध नहीं की जा सकती । उपयोगिता और लत्यता में अनिवार्य संबंध नहीं है।