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जाये तो मान सिर्फ मिलेगात्मक परामशों तक सीमित रह जायेगा और सम्पूर्ण शान सदैव्युक्त हो जायेगा। पाश्चात्य-दर्शन मैं डेविड हयूम ने इसी प्रकार मात्र अबाध-नियम को सत्य की कसौटी मानकर सम्पूर्ण ज्ञान को संदेशयुक्त सित किया था । ह्यूम के पश्चात्ती जर्मन दार्शनिक इमैन्युअल काट ने बराम के मत का तापूर्ण संडन कर दिया था | काट ने दिखाया कि संघलेषणात्मक परामों की सत्यता पर संदिश नहीं किया जा सकता। ज्ञान सिर्फ यह नहीं है कि "चौकोर गोल नहीं है", परन् वा ज्ञान की सत्यता में किंचित दट नहीं किया जा सकता कि अमुक मेज एक विशिष्ट आकार और विशिष्ट रंग की है। अबाधिता के नियम को सत्यताही तोटी क्यों गाना पाये'
यदि संगति और अबाधिता को बान की सत्यता की कसौटी माना जाये तो जिस प्रकार सत्य मानों में सामंजस्य स्थापित किया जाता है, उसी प्रकार পেয়ে ফ্লাশ * মাশয় গঠির কাট ব্লগ চানী কাবু দানা পা গল । होगा । तिन ने साधा विर्णित ज्ञान को प्रमाण माना, किन्तु अबाfree और सत्यता में कोई अनिवार्य संबंध नहीं किया जा सकता। हम आकाशकुसुम की । कल्पना कर सकते हैं, इस कल्पना में कोई बाधा नहीं है क्योंकि आकाश भी सत् है और अराम भी सत् है, लेकिन क्या इससे आकाशसम की सत्यता सिर की जा सकती है' रेगिस्तान में कहीं-कहीं पानी का भम होता है, उस समय उस ज्ञान में कोई बाधा नहीं प्रतीत होती किन्तु पास जाने पर पानी का शान भम सिन्द होता है। तात्पर्य यह है कि संगति और बEिRIT को सत्य की कसोटी मानने पर सत्य और भ्रमपूर्ण ज्ञानों में अंतर नहीं किगा जा सकता बोंकि भूमपूर्ण कानों में भी संगति स्थापित की जा सकती है।
माणिक्यनन्दि सारा बताये गये प्रमाण के लटका मिले ण करने पर सत्यता की एक अन्य कसोटी सामने आती है - अर्थ क्रियावादी कसौटी। इस कसौटी के अनुसार कोई न तभी सत्य कहा जा सकता है जब मान व्यवहार