SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भिन्नता नहीं है तो इसका है, वस्तु नहीं । ज्ञेय विषयवस्तु है या आत्मा' 78 है कि ज्ञाता भी आभा और ज्ञेय भी आत्मा यदि प्रत्यक्ष ज्ञान में हम ज्ञान का विषयवस्तु मानें तो इसका तात्पर्य होगा यह ज्ञान विषयी विषय भेट पर आश्रित है और चूंकि ये एक दूसरे पर आश्रित है. अतः सापेक्ष ज्ञान है, इसलिये इन्हें परम ज्ञान नहीं माना जा सकता, जबकि यह ज्ञान तो पूर्ण ज्ञान है । देवा-काल और कार्यकारण भाव पर आज यह भौतिक जगत किसी तरह असत्य नहीं माना जा सकता । यह हमारे ऐन्द्रिय अनुभवों से सिद्ध है किन्तु इस इन्द्रिय जगत को अन्तिम नहीं माना जा सकता क्योंकि अनुभूत पदार्थ सदैव परिवर्तनशील होते हैं और परिवर्तनशील होने का तात्पर्य है अपूर्ण होते हैं । फिर भी इनका निराकरण नहीं किया at सकतT | यहा तक कि शंकर भी इसका frerary नहीं करते । किन्तु यदि हम आनुभविक भौतिक जगत को अतीन्द्रिय ज्ञान में ज्ञेय माना जाये तो इसका तात्पर्य होगा कि विषयी और विषय में भेद है दूसरे शब्दों में अतीन्द्रिय ज्ञान भी विषयी और विषय के भेद से परे नहीं है और इस प्रकार सापेक्ष, सर्वोच्च नहीं । इस समस्या का हल वास्तववाद में नहीं है कि अतीन्द्रिय ज्ञान को परम are माना जाये और आनुभविक भौतिक जगत के ऐन्द्रिक ज्ञान को सापेक्ष ज्ञान न माना जाये | इसी विवोधाभास से बचने के लिये ही शंकराचार्य सत्ता के दो स्तरों में अन्तर करते हैं - पारमार्थिक सत्ता और व्यवहारिक सत्ता | व्यवहारिक दृष्टि से जगत और आनुभविक आत्मा जीवा यथार्थं तत्तायें हैं किन्तु अतीन्द्रिय अनुभव के स्तर पर ज्ञाता और ज्ञेय मिलकर एक हो जाते हैं । यहाँ ज्ञाता भी आत्मा है और द्वय भी आत्मा है किन्तु यहाँ आत्मा को शेय
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy