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पटने का तात्पर्य नहीं है कि आत्मा विजय के रूप में उपस्थित होती है या परिवर्तित हो जाती है। अतीन्द्रिय कान में आत्मा को अपने स्वयं प्रकाशी स्प का मान होता है या जैसा शंकराशर्य का कथन है शाता और य दोनों परमार्थ हम में एक हैं।
अतीन्द्रिय ज्ञान में जीव के समक्ष आत्मा परमनिरपेक्षा सत्ता के रूप में उपस्थित होती है। धपि प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों के मूल में आत्मा। जीव प्रमुख सत्ता है किन्तु जैनों की जीव सम्बन्धी धारणा संतोष्पद नहीं है। यहां आमा शारीर इन्द्रिय सीमित एक जीवा के प में ही मानी गयी है। यता मारमा पर शुद्ध संघलेमा साना सर्वोच्च वेतन इकाई नहीं मानी गयींहै जो शानों और अनुभवों में शुद्ध चेतना के रप में सामंजस्य स्थापित करती है । झो सार्वभौम घेतय नहीं माना जा सकता। जीव के स्म में आत्मा, आमा का व्यवहारिक प है जो कि शरीर इन्द्रिय आदि भौतिक उपायों से शुवात होता है। यह जीप अतीन्द्रिय पान का arr नहीं हो सकता। इस बीच फा प आत्मप्रकाश, स्वपरावभासकत्व नहीं हो सकता। यदि हम जीव को पास्तविक आत्मा मान लिया जाये तो आत्माओं के अनेकत्व की समस्या उठ खड़ी होगी।
आनुभविक दृष्टि से यह आत्मा जीव है किन्तु यह वैयवित्तक आत्मा 'निरपेक्ष ज्ञान का आधार नहीं बन सकती क्योंकि यय ती मित जीवात्मा है। शुद्ध चैतन्य के अन्दर विजयी और विजय का भेद नहीं होता क्योंकि उसमें पारभार्थिक रूप से जाता और ज्ञान दोनों एक हो जाते हैं। यह निरपेक्ष आत्मा सभी ज्ञानों में शुद्ध चेतना के रूम में उपस्थित होती है विपी और विषय दोनों
ए परम चैतन्य के अन्दर आ जाते हैं। यही कारण है कि प्रकराचार्य आनुभषिका जगत और सीमित जीप दोनों को वहारिक रूप से सत्य मानते हुये भी अन्तिम रूप में सत्य नहीं मानी तथा werfrक सत्य से अमर एक पारमार्मिक सत्य की