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________________ ___ 80 कल्पना करते हैं जो व्यवहारिकताका आधार है इसी के कारण अनुभव संभव होता है। शंकर भौतिक रेन्द्रिक जगत का निराकरण नहीं करते किन्तु आतीन्द्रिय शान की समस्या का समाधान आनुभविक तथ्यों के द्वारा नहीं हो सकता । जैन दर्शन भी इस सत्य को अनुभव करता है जहा वह कहता है कि प्रत्यक्ष ज्ञान का ला भी यह मान लिया जाये, जो इन्द्रियादि बाय-साधनों की सहायता से उत्पन्न होता है तो उस स्थिति में सर्वरता की सिद्धि सम्भव ही नहीं होगी। शकराचार्य के व्यवहारिक और पारमारिक दृष्टि के मूल में निर्भर इस पिचार को कि सर्वोच्च अतीन्द्रिय ज्ञान आत्माभिमुख होता है वस्तु की ओर नहीं, क्ष प में उपस्थित किया गया कि केवलान को जो समस्त पदार्थों को जानने वाला कहा गया है वह केवल हारनप से कहा गया है क्योंकि निषण्य नय से तो केवलहान आत्माभिमुख होता है, अपने स्वस्थ मैं विमग्न होता है बेदालन म आत्मr के स्वप्रकाशक तप की अनुभूति है । भान के पूर्ण प्रकटीकरण की अवस्था में केवलज्ञान इन्द्रियादि से उत्पन्न शाय-वस्तु की अपेक्षा नहीं होती। इस कथन का तात्पर्य है कि अनुभाजन्य बायजगत अन्तिम सत्य नहीं है। जय शाता आत्मा को जानता है तो जान आत्मगत | Subjective होता है इसे हम जैनों का प्रत्यदा शान कह सकते हैं और जब ज्ञाता वस्तु को जानता है तो वह ज्ञान वस्तुगत होता है जिसे बम परोक्ष ज्ञान कह सकते हैं। परोक्ष तान ती सत्यता व्यवहारनय पर निर्भर है जबकि प्रत्यवान की सत्यता निचरानय पर निर्भर है। इन दोनों दृष्टियों को माने बिना दोनों कानों में कोई सामंजस्य स्थापित नहीं किया जा सकता। बैनाचायों का कहना है कि जब ज्ञान का स्वतः प्रकटीकरण पूर्ण होता है तब उसे किसी बाय-वस्तु की अपेक्षा नहीं होती तब पूर्णज्ञान केशलझान अपने में सभी विष्टि मानों को समावेश कर लेता है। यदि हम इस समाधान को मानसे से
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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