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________________ कि दर्शन एक संप्रत्यय या स्पष्टीकरण है। ऐसा ही विन्टेन्स्टाइन ने भी कहा कि दर्शन विचारों का तार्किक स्पष्टीकरण एवं विश्लेषण है। विश्लेषण की सबसे बड़ी उपलब्धि यह ही है कि यह किसी व्यवस्था को न मानकर विशिष्ट म की स्थापना करता है । यह ही नयवाद की उपलब्धि है । जहाँ तक कोई संप्रत्यय मत है वहाँ तक ठीक है किन्तु जहाँ उसे एक व्यवस्था के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया जाता है वहाँ वह मिथ्या दुर्नय हो जाता है । इसी कारण जैन ज्ञान- माता में नयवाद की प्रमुख स्थान दिया गया । जैनों की ज्ञान-मीमांसा के अध्ययन से स्पष्ट होगा कि उनकी एक ज्ञान atarar नहीं है । आगम, नयाय व नय तीनों भिन्न दृष्टिकोण है जिनका समन्वय नहीं हो सकता । दृष्टिकोणों की इसी भिन्नता का परिणाम है कि कहीं इनकी ज्ञान-मीमांसा आधुनिक वास्तववाद, बुद्धिवाद और अनुभववाद के समीप लगती है तो कहीं प्रत्ययवाद और अध्यात्मवाद के समीप और कहीं arter और व्यवहारवाद के समीप । जहाँ तक ज्ञान की विषमता का प्रश्न है जैन यथार्थवादी एवं वस्तुवादी व्याख्या करते प्रतीत होते हैं, सत्यता के पुत्रन पर सापेक्षवादी व्यावहारवादी मत के समर्थक और सर्वज्ञता के प्रश्न पर अध्यात्मवादी दर्शन के समीप लगते हैं । अतः इनकी एक ज्ञान-मीमांसा नहीं है । arayकारों को एक ज्ञान के स्तर के रूप में नहीं माना जा सकता । इस रूप में इनका समन्वय असंभव है। वास्तव में, जैन दार्शनिक सभी ज्ञानों का समन्वय भी नहीं करते हैं। ये दिखाते हैं कि ज्ञान के विविध प्रकार हैं और उनमें कोई विरोध नहीं है किन्तु समन्वय कैसे होता है यह स्पष्ट नहीं करते । विरोध परिहारमात्र समन्वय नहीं है । फिर एक में ऐसा विरोध नहीं है कि एक है तो दूसरा नहीं है । यह ही कारण है कि यहाँ ज्ञान की कोई ऐसी परिभाषा नहीं दी गई जो सभी ज्ञानों में लागू होती हो । कहीं आगम के अनुसार परिभाषा दी गई तो कहीं तार्किक परिभाषा और कहीं नय के अनुसार रा
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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